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जैनधर्म
उसमे सम्मिलित नहीं हो सके । फलत भद्रवाह और संघके साथ कुछ खीचातानी भी हो गयी जिसका वर्णन आचार्य हेमचन्द्र ने अपने परिशिष्ट पर्वमे किया है । इसी घटनाको लक्ष्यमें रखकर डा० हर्मन जेकोबीने जैनसूत्रोंकी, अपनी प्रस्तावनायें लिखा है
'पाटलीपुत्र में भद्रवाहकी अनुपस्थितिमें ग्यारह अंग एकत्र किये थे । दिगम्वर और श्वेताम्बर दोनों ही भद्रवाहको अपना आचार्य मानते हैं । ऐसा होनेपर भी श्वेताम्बर अपने स्थविरोंकी पट्टावली भद्रबाहुके नामसे प्रारम्भ नही करते किन्तु उनके समकालीन स्थविर सम्भूतिविजयके नामसे शुरू करते है । इससे यह फलित होता है कि पाटलीपुत्रमें एकत्र किये गये अंग केबल श्वेताम्बरोंके ही माने गये, समस्त जैनसंघ के नही ।
इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि संघभेदका बीजारोपण उक्त समयमें ही हो गया था ।
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वेताम्बर साहित्य के अनुसार प्रथम जिन श्री ऋषभदेवने और अन्तिम जिन श्रीमहावीरने तो अचेलक धर्मका ही उपदेश दिया । किन्तु वीचके बाईस तीर्थरोंने सचेल और अचेल दोनों धर्मोका उपदेश दिया। जैसा कि पञ्चाशकमें लिखा है
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'आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स व पच्छिमल्स य जिणल्त । मज्झिमाण जिणाण होइ सचेलो अचेलो व ॥१२शा' और इसका कारण यह वतलाया है कि प्रथम और अन्तिम जिनके समयके साबु वक्रजड़ होते थे-- जिस तिस वहानेसे त्याज्य वस्तुओंका भी सेवन कर लेते थे । अत उन्होंने स्पष्टरूपसे अचेलक अर्थात् वस्त्ररहित धर्मका उपदेश दिया । इसके अनुसार पार्श्वनाथके समय के साबु सवन्न रहते थे और उनके महावोरके संघमें मिल जानेपर बागे चलकर शिथिलाचारको प्रोत्साहन मिला और वेताम्बर सम्प्रदायको सृष्टि हुई। ऐसा कुछ विद्वानोंका मत है। श्वेताम्बर विद्वान् पं० वेचरदामजीने लिखा है
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