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चारित्र किसीका पुत्र मर जाता है तो किसीकी पुत्री विधवा हो जाती है। कोई पत्नीके बिना दु:खी है तो कोई कुलटा पत्लीके कारण दुखी है। साराश यह है कि प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी दु खसे दुखी है। और अपनी अपनी समझके अनुसार उसे दूर करनेकी चेष्टा करता है, किन्तु फिर भी दुखोंसे छुटकारा नहीं होता। सुखकी चाहको पूरा करनेके प्रयत्नमे जीवन बीत जाता है किन्तु किसीकी चाह पूरी नहीं होती। आइये । जरा इसके कारणोंपर विचार करे। __सुखके साधन तीन है-धर्म, अर्थ और काम। इनमें भी धर्म ही सुखका मुख्य साधन है और बाकीके दोनो गौण है, क्योंकि शुभा चरणरूप धर्मके बिना प्रथम तो अर्थ और कामकी प्राप्ति ही असंभव है। जरा देरके लिये उसे संभव भी मान लिया जाये तो अधर्मपूर्ण साधनोंसे उपार्जन किया हुआ अर्थ और काम कभी सुखका कारण हो नहीं सकता, बल्कि दुःखोंका ही कारण होता है। इसके दृष्टान्तके लिये चोरीसे धन कमानेवालों और परस्त्रीगामियोको उपस्थित किया जा सकता है। मोहवश इन कामोंमे बहुतसे लोग प्रवृत्त हुए देखे जाते है, पर उन कामोंको स्वयं वही अच्छा नही बतलाते । और उस धन और कामभोगसे उन्हें कितना सुख मिलता है यह भी उनकी आत्मा ही जानती है। यथार्थमें अर्थ और कामसे तभी सुख हो सकता है जब उसमे सन्तोष हो । सन्तोषके बिना धन कमानेसे धनकी तृष्णा बढती जाती है और तृष्णाकी ज्वालासे जलते हुए मनुष्योको सुखका लेश भी नही मिल सकता। इसी प्रकार जो कामभोगकी तृष्णामें पडकर कामभोगके साधन शरीर, इन्द्रिय वगैरहको जर्जर कर लेते हैं वे क्या कभी सुखी हो सकते है ? फिर अर्थ और काम सदा ठहरनेवाले नहीं है, इनका स्वभाव ही नश्वरता है, किन्तु मनुष्योने उन्हें ही सुखका साधन मान रखा है। अर्थ और काममे जो जितनी उन्नति कर लेता है, जितनी अधिक संपत्ति, भोग-उपभोगके साधन, ऊंची अट्टालिकाएं, सुन्दर सुन्दर गाडियाँ आदि जिसके पास है वह