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३. चारित्र जैनधर्मके दार्शनिक मन्तव्योका परिचय कराकर अब हम उस परित्रकी ओर आते है, जो वस्तुत. धर्म कहा जाता है।
रत्नकरंडश्रावकाचार नामक प्राचीन जैन-ग्रन्यमें समर्थ जैनाचार्य त्री समन्तभद्र स्वामीने धर्मका वर्णन करते हुए लिखा है'देशवामि समीचीन धर्म कर्मनिवर्हणम्।। संसारदुःखत सत्वान् यो घरत्युत्तम सुते॥२॥'
'म कर्मवन्धनका नाश करनेवाले उस सत्यधर्मका कथन करता ईजो प्राणियोंको संसारके दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुखमें घरता है।'
इससे निम्न निष्कर्ष निकलते है(१) संसारमें दुःख है। (२) उस दुखका कारण प्राणियोंके अपने अपने कर्म है।
(३) धर्म प्राणिमात्रको दुखते छुड़ाकर न केवल सुख किन्तु उत्तम सुख प्राप्त कराता है। ___ अब विचारणीय यह है कि संसारमे दुल क्यों है और धर्म कैसे उससे छुडाकर उत्तम सुख प्राप्त कराता है।
१ संसारमें दुःख क्यों है ? ' संसारमे दु.ख है यह किसीसे छिपा नहीं। और सब लोग सुसके इच्छुक है और सुखके लिए ही रात दिन प्रयत्न करते है यह भी किसीसे छिपा नहीं। फिर भी सव दु.खी क्यों है ? जिन्हें पेट भरनेके लिये न मुट्ठी भर अन्न मिलता है और न तन ढाँकनके लिये वस्त्र, उनकी गत जाने दीजिये। जो सम्पत्तिगाली है उन्हें भी हम कित्ती न किसी दुःखसे पीड़ित पाते है। निर्धन बनके लिये छटपटाते हैं और धनवानोको धनकी तृष्णा चैन नहीं लेने देती। निसन्तान सन्तानके लिये रोते है तो सन्तानवाले सन्तानके भरणपोषणके लिये चिन्तित है।