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जनधर्म
चना की थी, किन्तु उनमेसे आज केवल आठ प्राभूत उपलब्ध है। मिल भाषाके तिकुरुल काव्यके रचयिता भी इन्हीको कहा जाता है। नके शिष्य उमास्वामि या उमास्वाति नामके जैनाचार्य थे, जिन्होने सर्वप्रथम जैनवाड्मयको संस्कृतसूत्रोमें निबद्ध करके तत्त्वार्थसूत्र नामके सूत्रग्रन्थकी रचना की। इस ग्रन्थके दस अध्यायोमे जीव आदि सात त्त्वोंका सुन्दर विवेचन किया गया है। अपने अपने धर्मोमे गीता, कुरान और वाइबिलको जो स्थान प्राप्त है वही स्थान जैनधर्ममे इस न्यको प्राप्त है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदाय इसे मानते है। दोनो ही परम्परामोके आचार्योने उसके ऊपर अनेक टीकाएँ रची है, जिनमे अकलकदेवका तत्त्वार्थराजवातिक और विद्यानन्दिका तत्त्वार्थश्लोकवातिक उल्लेखनीय है। दोनो ही वातिकात्य संस्कृतमे बडी ही प्रौढ शैलीमे रचे गये है और जनदर्शनके अपूर्व अन्य है।
दर्शन और न्यायशास्त्रमे स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन की रचनाएँ उल्लेखनीय है । स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमासा नामका एक प्रकरण ग्रन्थ रचा है, जिसमें स्याद्वादका सुन्दर विवेचन करते हुए उत्तर दशनोकी विचारपूर्ण आलोचना की गयी है। इस आप्तमीमासापर प्वामी अकलकदेवने 'अष्टगती' नामका प्रकरण रचा है और अष्टशतीपर स्वामी विद्यानन्दिने अप्टसहस्री नामकी टीका रची है। यह अष्टमहनी इतनी गहन है कि इसको समझनेमे कष्टसहस्रीका अनुभव होता है। इन्ही विद्यानन्दिकी आप्तपरीक्षा और प्रमाणपरीक्षा भी भाषा, विपय और विवेचनको दृष्टिसे द्रष्टव्य है। ___ अकलकदेवको जैनन्यायका सर्जक कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं है। इन्होने टीका ग्रन्थोके सिवा सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय, स्वीयस्त्रय, प्रमाणसरह आदि अनेक प्रकरणगन्थ रचे है जो बहुत ही मोढ और गहन है । इन प्रकरणोपर आचार्य अनन्तवीर्य, वादिराज और प्रभाचन्द्र नामके प्रकाण्ड जैन नैयायिकोने विस्तृत व्याख्या ग्रन्य चे है जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। माणिक्यनन्दि आचार्यका परीक्षामुख
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