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जन साहित्य
२३५ नामक सूत्रग्रन्थ जैनन्यायके अभ्यासियोंके लिए बडे ही कामका है। इसपर आचार्य प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलसार्तण्ड नामका महान् व्याख्या ग्रन्थ रचा है। उसे अति सक्षिप्त करके अनन्तवीर्य-नामके आचान प्रमेयरत्नमाला नामकी टीका बनायी हो। पांअकसरीका विलक्षणकदर्थन, श्रीदत्तका जल्पनिर्णय आदि कुछ ऐसे भी महत्त्वपूर्ण' ग्रन्थह जो आज अनुपलब्ध है, केवल अन्य ग्रन्थोमे उनका उल्लेख मिलता है।
पुराण साहित्यमें हरिवंशपुराण, महापुराण, पद्मचरित आद! ग्रन्थोका नाम उल्लेखनीय है । जैन पुराणोंका मूल प्रतिपाद्य विषय ६३ शलाका पुरुषोके चरित्र है। इनमे २४ तीर्थ कर, १२ चक्रवर्ती ९ बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव है। जिनमे पुराण पुरुषोका' पुण्यचरित वर्णन किया गया हो उसे पुराण कहते है। हरिवरपुरा में
कौरव और पाण्डवोंका वर्णन है और पद्मचरितमें श्रीरामचन्द्रका वन । है। इस तरहसे ये दोनो ग्रन्थ क्रमश जैन महाभारत और जैन रामायण
कहे जा सकते है। इनके सिवा चरितग्रन्थोंका तो जैन साहित्यमे मण्डार भरा है । सकलकीति आदि आचार्योने अनेक चरित ग्रन्थ रचे है । आचार्य जटासिह नन्दिका वरागचरित एक सुन्दर पौराणिक काव्य है। काव्यसाहित्य भी कम नही है । वीरनन्दिका, चन्द्रप्रभचरित, हरिचन्द्रका धर्मशर्माभ्युदय, धनंजयका द्विसन्धान और वाग्भट्टका नेमिनिर्वाण काव्य उच्चकोटिके सस्कृत महाकाव्य है।
अपभ्रश भाषामे तो इन पुराण और चरितग्रन्योंका संस्कृतको अपेक्षा बाहुल्य है। अपभ्रश भाषामें जैनकन्यिोने खूव रचनाएँ की • है। इस भाषाका साहित्य जैन भण्डारोमे भरा पड़ा है। अपनर
वहुत समयतक यहाँकी लोक भाषा रही है और इसका साहित्य में बहुत ही लोकप्रिय रहा है। पिछले कुछ दशकोसे इस भाषाकी और विद्वानोका ध्यान आकर्षित हुआ है, अब तो वर्तमान प्रान्तीय भाषाको की जननी होनेके कारण भाषाशास्त्रियो और विभिन्न पाया। इतिहास लिखनेवालोके लिए इसके साहित्यका अध्ययन बावश्यक