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या। राजा नन्दकी ल गइहुई कलिग जिनमतिको स्थापित किया। स महाविजयके बाद, जब कि शुंग और सातवाहन तथा उत्तरापथके' । विन सव दब गये, खारवेलने जैनधर्मका महा अनुष्ठान किया । उन्होने भारतवर्ष भरके जैन यतियो, जैन तपस्वियो, जैन ऋषियों और पडितोको बुलाकर एक धर्म-सम्मेलन किया। जनसंघने खारवेलको महाविज्यों की पदवीके साथ खेमराजा', 'भिनुराजा और धर्मराजाकी पदवी दी। इसके समयमे जैनधर्मका बड़ा उत्कर्ष हुआ। ___ इस शिलालेखमें सं० १६५ दिया है, जिसे स्व० जायसवालने नार्य सम्वत् सिद्ध किया है, जो कि महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहणकाल (ई० पू० ३२१) से चला होगा । एक स्वतंत्र राजाने इसरे राजाके चलाये हुए सम्वत्का उपयोग क्यो किया? इसके उत्तरम' जायसवालजीका कहना है कि चन्द्रगुप्त मौर्यका जैन होना जननन्थों वशिलालेखोंसे सिद्ध है। अत एक जैन राजाके चलाये हुए सम्वत्का दूसरा जैन राजा उपयोग करे तो इसमे आश्चर्य क्या है ? ___ इस प्रकार विहार व उडीसा, महावीरके पश्चात् भी जैनधर्मका खूब उत्कर्ष हुआ। ईस्वी ३०८ में पाटलीपुत्र नगरके पास एक गांवके छोटेसे राजा चन्द्रगुप्तको लिच्छविक्राको क्न्या कुमारदेवी व्याही थी। यह लिच्छविवश वरणालीके राजा उसी चेटकका वंश है जिनकी कन्वानोसे महावीर स्वामीके पिता राजा सिद्धार्थ और मगवके राजा श्रेणिक वगैरहका विवाह हुआ था। चन्द्रगुप्तने एसे महान वंशकी कन्यासे विवाह होनेको अपना बहुत भारी गौरख माना । वास्तवमें इस सम्बन्धके प्रतापसे ही वह महाराज हो गग। उसने अपने सिक्कोपर लिच्छवियोंकी वेटीके नामसे अपनी स्त्रीको भी मूर्ति वनवाई। उसकी सन्तान बड़े गर्वसे अपनेको लिच्छवियोका दौहित्र कहा करती थी। किन्तु चन्द्रगुप्तने एक बौद्ध सावुके उपदेगसे वौद्धधर्म ग्रहण कर लिया, और उसके पुत्र समुद्रगुप्तने ब्राह्मणधर्म स्वीकार करलिया। फिर भी ई० नं० ६२९ में आये चीनी यात्री हुएनत्सांगने