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________________ सिद्धान्त नही है। इन्ही वस्तुओके परस्परके सम्बन्धसे इन्हीके गुणो और स्वभावोके द्वारा सव परिवर्तन स्वयमेव होता है। इन प्रकार इन तीनो मतोमे यद्यपि वहुत अन्तर है तो भी एक वात में ये तीनो ही सहमत है। तीनोने ही किसी न किसी वस्तुको अनादि अवश्य माना है। पहला ब्रह्म या ईश्वरको अनादि मानता है। वहीं इन विश्वको वनाता और विगाड़ता है। दूसरा परमेश्वरके ही समार जीवनऔर अजीवको भी अनादि मानता है। तीसराजीव और अजीवकर ही अनादि मानता है। अत इन तीनोमे यह विवाद तो उठ ही नह सकता कि विना बनाये सदासे भी कोई वस्तु हो सकती है या नही नौर जव यह मान लिया गया कि विना वनाये सदासे भी कोई या कुछ वस्तुएं हो सकती है तो यह बात भी सभी स्वीकार करेंगे कि वस्तु कोई न कोई गुण या स्वभाव भी अवश्य होता है, क्योकि विना किसह गुण या स्वभावके कोई वस्तु हो ही नहीं सकती। और जैसे वह वस्ती अनादि है वसे ही उसका गुण या स्वभाव भी अनादि है। साराश यह है कि दो बातोमे संसारके सभी मतवाले एकमत है कि संसारमें को वस्तु विना वनाये अनादि भी हुआ करती है और विना बनाये उसव गुण और स्वभाव भी अनादि होते है। अव केवल यह निश्चय करना है कि कौन वस्तु विना बनी हुई अनादि है और कौन वस्तु सादि है ? जब हम संसारकी ओर दृष्टि देते है तो संसारमें तो हमें कोई भा.. वस्तु ऐसी नहीं मिलती जो विना किसी वस्तुके ही वन गई हो और न कोई ऐसी वस्तु दिखाई देती है जो किसी समय एकदम नास्तिरूपी हो जाती हो। यहाँ तो वस्तुसे ही वस्तु वनती देखी जाती है। सारा यह है कि न तो कोई सर्वथा नवीन वस्तु पैदा होती है और न कोई वस्तु सर्वया नष्ट ही होती है। किन्तु जो वस्तुएँ पहलेसे चली आती है उन्हीका रूप बदल-बदलकर नवीन-नवीन वस्तुएं दिखाई देती रहती है । जैसे, सोनेसे अनेक प्रकारके आभूपण बनाये जाते है। सोनेके विना ये आभूपण नहीं बन सकते। फिर उन्ही आभूषणोकी, - - -
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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