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जैनधर्म
ह आहार वैशाख शुक्ला तीजके दिन हुआ था । इसीसे यह तिथि क्षय तृतीया कहलाती है । आहार करके भगवान फिर वनको चले ये और आत्म ध्यानमें लीन हो गये। एक बार भगवान 'पुरिमताल' गरके उद्यानमें ध्यानस्य थे । उम समय उन्हें केवल ज्ञानकी प्राप्ति ई। इस तरह 'जिन' पद प्राप्त करके भगवान बडे भारी समुदायके आय धर्मोपदेश देते हुए विचरण करने लगे । उनको व्याख्यान सभा समवसरण' कहलाती थी । उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसमें पशुओ तकको धर्मोपदेश सुननेके लिये स्थान मिलता था और सह जैसे भयानक जन्तु शान्तिके साथ बैठकर धर्मोपदेश सुनते थे । भगवान जो कुछ कहते थे सबकी समझमे आ जाता था। इस तरह जीवनपर्यन्त प्राणिमात्रको उनके हितका उपदेश देकर भगवान प म़देव कैलास पर्वतसे मुक्त हुए। वे जैनधर्मके प्रथम तीर्थ कर थे । हिन्दू राणो में भी उनका वर्णन मिलता है। इस युगमे उनके द्वारा ही जैनधर्मका आरम्भ हुआ।
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३ - जैनधर्मके अन्य प्रवर्तक
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६ - भगवान ऋषभदेवके पश्चात् जैनधर्म के प्रवर्तक २३ तीर्थङ्कर और हुए, जिनमें से दूसरे अजितनाथ, चौथे अभिनन्दननाथ, पाँचवे सुमतिनाथ और चौदहवें अनन्तनाथका जन्म अयोध्यानगरीमं हुआ। तीसरे, भवदेवका जन्म श्रावस्ती नगरीमे हुआ। छठे पद्मप्रभका जन्म कौशाम्बी हुआ । सातवे सुपार्श्वनाथ और तेईसवे पार्श्वनाथका लिन्म वाराणसी नगरी (बनारस) में हुआ । आठवे चन्द्रप्रभका
जन्म चंद्रपुरीमे हुआ । नौवे पुष्पदन्तका जन्म काकन्दी नगरीमे सुना। दसवें शीतलनाथका जन्म भद्दलपुरमे हुआ । ग्यारहवे श्रेयानायका जन्म सिंहपुरी (सारनाथ) में हुआ । बारहवें वासुपूज्यका जन्म चम्पापुरीमें हुआ। तेरहवे विमलनाथका जन्म कपिला नगरीमें हुआ । पन्द्रहवें धर्मनाथका जन्म रत्नपुरमें हुआ । सोलहवै शान्तिनाथ, तरहवें कुन्थुनाथ और अठारहवें भरनाथका जन्म हस्तिनागपुर में
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