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जनघन
को स्थान न दिया जाये तो राष्ट्रोंमें पारस्परिक अविश्वास और प्रतिहिताको भावना देखने को भी न मिले। समस्त राष्ट्रोंका एक विश्वसंघ हो, जिसमें सब राष्ट्र समान भ्रातृभावके आधारपर एक कुटुम्बके रूपमे सम्मिलित हों, न कोई किसीका गातक हो न गास्य हो । सब सबके दु ख और सकटका ध्यान रखे । सबके साथ सवका मैत्री - भाव, हो । यदि सब राष्ट्र अपनी अपनी नियतों की सफाई करके इस तरहसे एक सूत्रमे बँधे तो न तो युद्ध हों और न युद्धके अभिगापोंसे जनताको ती कष्ट ही भोगना पड़े ।
आज उत्पादनके ऊपर एक राष्ट्र या जातिका एकाधिकार होनेसे उसे अपने लिए दूर दूरसे कच्चा माल मंगाना पड़ता है और तैयार हुए मालको खपानेके लिए बाजारोंकी भी खोज करनी पड़ती है और उनपर अपना काबू रखना पड़ता है। फिर भले ही वे बाजार दुनियाके किसी भी भाग क्यो न हो । आज इसी पद्धतिके कारण दुनिया कराह रही है। दुनियाको इससे मुक्त करनेके लिये भी हमे महिनाका ही मार्ग अपनाना होगा । राष्ट्रों और जातियोंकी भलाईका स्थान विश्वकी भलाईको दना होगा। हमारा जीवन भौतिक दुनियाको आवश्यकताओंके अनुसार नही चलाया जा सकता । हमें बनावटी तौरपर पहले अपनी जरूरतोको बढाने और फिर उनको पूरा करनेकी कोशिश नहीं करनी चाहिये । जीवनका आनन्द इसपर निर्भर नही करता कि हमारे पास कितनी ज्यादा चीजें है ? जो व्यक्ति, समाज या राष्ट्र जीवनको बनावटी आवश्यकताओंको बढाकर उसीको पूर्ति के लिए प्रयत्न करता रहता है और बिना जरूरतके चीजोका संग्रह करता है, वह दुखो और पापोका सग्रह करता है। इसीसे जैनधर्मने परिग्रहको पाप बतलाया है बीर प्रत्येक गृहत्यके लिए यह नियम रखा है कि वह अपनी इच्छाजो को सीमित करके अपनी आवश्यकता के अनुसार सभी आवश्यक वस्तुलोकी एक सीमा निर्धारित कर ले और उससे अधिकका त्याग कर दे । आज उत्पादन और वितरण के प्रश्नने दुनियामें विराट