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जैनधर्म
६ अंचल गच्छ - इस गच्छके संस्थापक उपाध्याय विजयसिंह | पीछे वे आरक्षित सूरिके नामसे विख्यात हुए। इस गच्छमे खपट्टी के वदले अंचलका (वस्त्रके छोरका) उपयोग किया ता है इससे इसका नाम अचल गच्छ पड़ा है।
७ आगमिक गच्छ - इस गच्छके संस्थापक शीलगुण और देवभद्र । पहले ये पौर्णमीयक थे पीछेसे आंचलिक हो गये थे । ये क्षेत्रकी पूजा करनेके विरुद्ध थे । विक्रमको १६ वी गतीमें इस गच्छकी क शाखा कटुक नामसे पैदा हुई । इस शाखा के अनुयायी केवल आवक ही थे।
इन गच्छोंमेंसे भी आज खरतर, तपा और आंचलिक गच्छ ही र्तमान है। प्रत्येक गच्छकी साघु सामाचारी जुदी जुदी है। श्रावकी सामायिक प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाविधि भी जुदी दी है। फिर भी सबमें जो भेद है वह एक तरहसे निर्जीव-सा है।
कल्याणक दिन छे मानता है तो कोई पांच मानता है। कोई युषणका अन्तिम दिन भाद्रपद शुक्ला चौथ और कोई पंचमी मानता । इसी तरह मोटी वातोको लेकर गच्छ चल पड़े है ।
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स्थानकवासी
सिरोही राज्यके अरहट वाडा नामक गांव में, हेमाभाई नामक श्रीसवाल के घरमें विक्रम सम्वत् १४७२ में लोंकाशाहका बेन्म हुआ । २५ वर्षको अवस्थामे लोकाशाह स्त्री-पुत्र के साथ हमदाबाद चले आये। उस समय अहमदाबादकी गद्दीपर हम्मदशाह बैठा था। कुछ जवाहरात खरीदने के प्रसंगते लोकाशाहपरिचय मुहम्मदशाहते होगया और मुहम्मदशाहने लोकाशाहचातुरीस प्रसन्न होकर उन्हें पाटनका तिजोरीदार बना दिया । क दिपद्वारा मुहम्मदशाहकी मृत्यु होनेपर लोकाशाहको बहुत द हुआ। उन्होंने नौकरी छोड़ दी और लेखन कार्यमें लग गये । तिनको सुन्दर अक्षरोसे आकृष्ट होकर ज्ञानत्री नामक मुनिराजने
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