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________________ सामाजिक रूप २६ दश वकालिक सूत्रकी एक प्रति लिखनेके लिये दी । फिर तो मुनिश्री पाससे अन्य शास्त्र भी लिखनेके लिये आने लगे। और वे उनकी प्रतियाँ करके एक अपने पास रखने लगे। इस तरह अन्य ग्रन्थोंक भी संग्रह करके लोंकाशाहने उनका अभ्यास किया। उन्हे लगा आज मन्दिरोमे जो मूर्ति पूजा प्रचलित है वह तो इन ग्रन्थो में नही हैं। इसके सिवा जो आचार आज जनधर्ममे पाले जाते है उनमेसे अने इन ग्रन्थोकी दृष्टिसे धर्मसम्मत नही है । अत उन्होने जैनधर्म सुधार करनेका वीडा उठाया । 12 „„ 1 ज ♡ 7'4 अहमदाबाद गुजरातकी राजधानी होनेके साथ व्यापारका केन्द्र था । अत. व्यक्तियोंका आवागमन लगा ही रहता था । वहाँ आते थे लोंकाशाहका उपदेश सुनकर प्रभावित होते थे । कुछ लोगोने उनसे अपने धर्म में दीक्षित करनेकी प्रार्थना की तो शाहने कहा में स्वयं गृहस्थ होकर आपको अपना शिष्य कैसे सकता हूं। तब ज्ञानजी महाराजने उन्हे धर्मकी दीक्षा दी और उन्होने लोंकाशाहके नामपर अपने गच्छका नाम लोंका रखा । इस तरह लोकागच्छकी उत्पत्ति हुई । बन पीछेसे लोकामतमे भी भेद-प्रभेद हो गये । सुरतके एक साधुने लोकमतमे सुधार कर एक नये सम्प्रदायकी स्थापना - जो ढूंढिया सम्प्रदायके नामसे प्रसिद्ध हुआ । पीछेसे लोका के स स अनुयायी ढूंढिया कहे जाने लगे। इन्हे स्थानकवासी भी कहते क्योकि ये अपना सब धार्मिक व्यवहार मन्दिरमे न करके स्थान यानी उपाश्रयमें करते है । इस सम्प्रदायके माननेवाले गुजर काठियावाड, मारवाड, मालवा, पंजाब तथा भारतके अन्य भाग रहते है। इनकी सख्या मूर्तिपूजक श्वेताम्वरोके जितनी ही अत इस सम्प्रदायको जैनधर्मका तीसरा सम्प्रदाय कहा जा सकता. किन्तु ये अपनेको श्वेताम्वर ही मानते है, क्योंकि कुछ मतभेद यदि छोड़ दिया जाये तो वेताम्बरोसे ही इनका मेल अधिक खाता
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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