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जैन साहित्य भाषाओंका उपयोग करते है तथा उन्होने हिन्दी और गुजराती साहा को तथा दक्षिणमें तमिल और कन्नड साहित्यको विशेषरूपसे सम किया है।' ___ आज जो जैन साहित्य उपलब्ध है वह सव भगवान् महावी ५ उपदेश परम्परासे सम्बद्ध है । भगवान महावीरके प्रधान गणप, गौतम इन्द्रभूति थे। उन्होने भगवान महावीरके उपदेशोको अवधार करके वारह अग और चौदह पूर्वके रूपमे निबद्ध किया। जो इन 40
और पूर्वोका पारगामी होता था उसे श्रुतकेवली कहा जाता था। ज. परम्पराम ज्ञानियोंमे दो ही पद सवसे महान गिने जाते है-प्रत्य ज्ञानियोमें केवलज्ञानीका और परोक्ष ज्ञानियोमे श्रुतकवलीका जसे केवलज्ञानी समस्त चराचर जगतको प्रत्यक्ष जानते और देख है वैसे ही श्रुतकेवली शास्त्रमे वर्णित प्रत्येक विषयको स्पष्ट जानते हैं।
भगवान महावीरक निर्वाणके पश्चात् तीन केवलज्ञानी और उनके पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए जिनमेसे अन्तिम श्रुतका, भद्रवाहु थे। इनके समयमें मगधमे बारह वर्षका भयकर दुर्भिक्ष पडा तब ये अपने सबके साथ दक्षिणको ओर चले गये और फिर लाटक नही आये । अत दुर्भिक्षके पश्चात् पाटलीपुत्रमे भद्रबाहु स्वामीक अनुपस्थितिमे जो अग साहित्य सकलित किया गया वह कभी कहलाया, दूसरे पक्षने उसे स्वीकार नहीं किया, क्योकि दुभिक्षके समर जो साघु मगधमे ही रह गये थे, सामयिक कठिनाइयोके कारण अपन आचारमे शिथिल हो गये थे। यहीसे जैनसघ दिगम्बर और श्वेता म्बर सम्प्रदायमे बँट गया और उसका साहित्य भी जुदा जुदा हो गया।
दिगम्बर साहित्य श्रुतकेवली भद्रबाहुके पश्चात् कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ। पाद पूर्वोमसे ४ पूर्व उनके साथ ही लुप्त हो गये। उनके पश्चात् यार आचार्य ग्यारह अंग और दस पूर्वोके ज्ञाता हुए। फिर पाँच पार ग्यारह अगके ज्ञाता हुए। पूर्वोका ज्ञान एक तरहसे नष्ट ही हो गया ।