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जैन कला और पुरातत्त्व रचकर प्रकाशित किया। इसमे उन्होंने ५०० शिलालेखोंका संग्रह किया है व भूमिकामें उनके ऐतिहासिक महत्त्वका विवेचन किया है। किन्तु ये संग्रह कनडी व रोमन लिपिमें है अत उक्त लेखोंका एक देवनागरी संस्करण प्रो० हीरालाल तथा श्रीविजयमूर्तिसे सम्पादित कराके श्री नाथूरामजी प्रेमीने प्रकाशित किया है। इसी तरह आबू देवगढ़ ! आदिमे भी अनेक शिलालेख मूर्तिलेख वगैरह पाये जाते है। भारतीय ! इतिहासके लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण खण्डगिरि उदयगिरिसे प्राप्त जैन शिलालेखकी चर्चा पहले की जा चुकी है।
इस तरह जैनोंने बहुसंख्यक शिलालेखो, प्रतिमालेखो, ताम्रपत्रों, ग्रन्थ प्रशस्तियों, पुष्पिकाओं, पट्टावलियों, गुर्वावलियों, राजवशाव-' लियों और ग्रन्योंके रूपमे विपुल ऐतिहासिक सामग्री प्रदान की है।
स्व० वैरिस्टर श्री का० प्र० जायसवालने अपने एक लेखमे। लिखा था-जनोंके यहाँ कोई २५०० वर्षकी सवत् गणनाका हिसाब हिन्दुओं भरमे सबसे अच्छा है। उससे विदित होता है कि पुराने समयमें ऐतिहासिक परिपाटीकी वर्षगणना हमारे देशमें थी। जब वह और जगह लुप्त और नष्ट हो गयी, तब केवल जैनोंमे बच रही। जैनोकी गणनाके आधारपर हमने पौराणिक और ऐतिहासिक बहुत-सी घटनामोको जो वुद्ध और महावीरके समयसे इधर की है, समयबद्ध किया और देखा कि उनका ठीक मिलान सुज्ञात गणनासे मिल जाता है। कई एक ऐतिहासिक वातोका पताजनोकी ऐतिहासिक लेख पट्टावलियोमे ही मिलता है
१ जैन साहित्य संशोधक, ख १, पृ० २११ ।