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जैनधर्म
→ १०२५ मे महमूद गजनीने इसे तोडा था । इस मन्दिर की निर्माण की गिरनार पर्वत पर स्थित श्री नेमिनाथके जैन मन्दिरसे मिलतीती हुई है। मि० फर्ग्युसनका कहना है कि जब मुसलमानोने इस न्दिरपर आक्रमण किया उस समय वह सोमेश्वरका मन्दिर कहा ता था। सोमेश्वर नामसे ही शिव मान लिया गया। यदि वह न्दिर शिवका था तो उसमें अवश्य ही गिर्वालंग प्रतिष्ठित होना हिये । किन्तु मुसलिम इतिहास लेखकोंका कहना है कि मूर्तिके र हाथ पैर और पेट था । ऐसी स्थितिमे वह मूर्ति शिवलिंग न होकर ष्णुकी या किसी जैन तीर्थङ्करकी होनी चाहिये । उस समय गुजरातमें ष्णवधर्मका नामोनिशान भी देखने को नही मिलता । तथा मुसल
के बाद उस मन्दिरका जीर्णोद्वार राजा भीमदेव, सिद्धराज और मारपालने कराया, जो सव जैन थे । इन सव वातोंपरसे फर्ग्यूसन To ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सोमनाथका मन्दिर जैन मन्दिर था ।
कलाकी तरह पुरातत्त्व शब्दका अर्थ भी बहुत व्यापक है । इतिउस आदिके निर्माण में जिन साघनोकी आवश्यकता होती है वे सभी तत्त्वमें गति है । अत प्राचीन मन्दिरों, मूतियों, गुफाओं और तम्भोंकी तरह प्राचीन शिलालेखो और शास्त्रोको भी पुरातत्वमें अम्मिलित किया जा सकता है।
श्रवणबेलगोला (मैसूर) में बहुतसे शिलालेख अंकित है । मैसूर तत्त्व विभाग तत्कालीन अधिकारी लूइस राइस साहवने श्रवण"लगोलाके १४४ शिलालेखोका मग्रह प्रकाशित किया था। इसकी [मिकामें उन्होने इन लेखो के ऐतिहासिक महत्त्वकी ओर विद्वानोका यान आकर्षित किया और चन्द्रगुप्त मौर्य तथा भद्रवाहुके पारस्परिक Forest विवेचन कर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि सम्राट इन्द्रगुप्त मौर्य ने भद्रवाहमे जिनदीक्षा ली थी तथा शि० लेस न० १ या स्मारक है।
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उपग्रहका दूसरा सत्वरण रावबहादूर आर० नरसिहाचार्यने
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