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जैनधर्म
बुद्धि कहलाये और देवोने उनके चरणोंकी पूजा की, इसलिए उनका राम पूज्यपाद हुआ । इनका सक्षिप्त नाम 'देव' भी था। आचार्य जनसेनने आदिपुराणमे और वादिराजसूरिने पार्श्वनाथचरित्रमें न्हें इसी सक्षिप्त नामसे स्मरण किया है। महाकवि धनञ्जयने अपनी |ममालामे पूज्यपादके व्याकरणको 'अपश्चिम रत्नत्रय' में गिनाया है। नका जैनेन्द्र व्याकरण जैनोका पहला संस्कृत व्याकरण है । इसक
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बहुत ही सक्षिप्त है । सज्ञाएँ भी सक्षिप्त है । मुग्धबोधके कत • बोपदेवने आठ वैयाकरणोमे जैनेन्द्रका भी उल्लेख किया है। जैनेन्द्र के सिवाय इनके चार ग्रन्थ और उपलब्ध है - सर्वार्थसिद्धि, समाधितत्र, ष्टोपदेश और देशभक्ति (संस्कृत) । इन्होने अपने जैनेन्द्रपर रास भी बनाया था जो अप्राप्य है। इसी तरह वैद्यक ग्रन्थ भी इन्होने नाये थे । गगवंशीय राजा दुर्विनीत इनका शिष्य था, जिसका राज्यल ई० सन् ४८२ से ५१२ तक माना जाता है।
पात्रकेसरी (ईसाकी छठीं शती)
इन्हें पात्रस्वामी भी कहते है। इन्होने बौद्धोके त्रैरूप्य हेतु वादका search for 'froक्षण कदर्थन' नामका शास्त्र रचा था जो पलब्ध है । शान्तरक्षितने अपने तत्त्वसंग्रहमें पात्रस्वामी के मत की लोचना करते हुए कुछ कारिकाएँ पूर्वपक्षके रूपमे दी है । इनका न श्लोक बहुत प्रसिद्ध है—
अन्ययानुपपन्नत्व यत्र तत्र श्रयेण किम् । नान्ययानुपपन्नत्व as a श्रयेण किम् ।
वादिराजसूरि और अनन्तवीर्यने लिखा है कि बौद्धों के त्रिलक्षणखण्डन करने के लिए पद्मावतीदेवीने भगवान सीमन्चर स्वामीके मरणमें जाकर उनके गणधरके प्रसाद से इस श्लोकको प्राप्त के पात्र केसरीको दिया था । श्रवणवेलगोलाके शिलालेख नं० में भी ऐमा उल्लेग है ।