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जैनयम
१४६ समवसरणमे ले आया। संशय दूर होते ही इन्द्रभूतिने प्रव्रज्या ले ली और भगवान के प्रधान गणधर हुए। भगवान्का उपदेश सुनकर अवधारण करके इन्होंने द्वादगाङ्ग श्रुतकी रचना की। जव कातिक कृष्णा अमावस्याके प्रात भगवान महावीरका निर्वाण हुआ उसी समय गौतम स्वामीको केवल जानकी प्राप्ति हुई। उसके १२ वर्ष पश्चात इन्हें भी निर्वाणपद प्राप्त हुआ।
/ भद्रबाहु (३२५ ई० पूर्व) यह भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली थे। इनके समय, मगवर्म १२ वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। तब यह साधुओंके बहुत बड़े संघक साथ दक्षिण देशको चले गये। प्रसिद्ध मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त भी राज्यभार पुत्रको सौंपकर इनके साथ ही दक्षिणको चला गया। वहाँ मसूर प्रान्तके श्रवणवेलगोला स्थानपर भद्रवाह स्वामी अपना अन्तिम समय जानकर ठहर गये और और गेप संघको आगे रवाना कर दिया । सेवाके लिए चन्द्रगुप्त अपने गुरुके पास ही ठहर गये। वहाँके चन्द्रगिरि पर्वतकी एक गुफामे भद्रबाहु स्वामीने देहोत्सर्ग किया। यह गुफा 'भद्रबाहुकी गुफा कहलाती है और इसमें उनके चरण अंकित है जो पूजे जाते है। भगवाहुके समयमे ही संवभेदका वीजारोपण हुमा अतः उनके वादसे श्वेताम्बर और दिगम्बरोकी आचार्य परम्परा भी जुदीजुदी हो गयी। दिगम्बर परम्पराके कुछ प्रमुख आचार्योका नीत्र परिचय दिया जाता है।
घरसेन (वि० सं० की दूसरी शती) र आचार्य धरसेन अंगो और पूर्वोके एक देशके ज्ञाता थे और सौराष्ट्र देशके गिरनार पवतकी गुफामें ध्यान करते थे। उन्हें इस बातको चिन्ता हुई कि उनके पश्चात् श्रुतनानका लोप हो जायगा । अत उन्होने महिमानगरीके मुनिसम्मेलनको पत्र लिखा । वहाँसे दो मुनि उनके पास पहुंचे। आचार्यने उनकी बुद्धिकी परीक्षा करके उन्हें सिद्धान्तको शिक्षा दी।