________________
इतिहास
( ७ ) जव हृदयकी ग्रन्थिको बनाये रखनेवाले मनका बन्ध शिथिल हो जाता है तब यह जीव संसारसे छूटता है और मुक्त होक परमलोकको प्राप्त होता है ।
(८) जब सार - असारका भेद करानेवाली व अज्ञानान्धकारक नाश करनेवाली मेरी भक्ति करता है और तृष्णा, सुख दुखका त्या कर तत्त्वको जाननेकी इच्छा करता है, तथा तपके द्वारा सव प्रकारव चेष्टामोंको निवृत्ति करता है तब मुक्त होता है ।
(६) जीवोंको जो विषयोकी चाह है यह चाह ही अन्धकूप समान नरकमे जीवको पटकती है।
f
(१०) अत्यन्त कामनावाला तथा नष्ट दृष्टिवाला यह जग अपने कल्याणके हेतुओको नही जानता है ।
(११) जो कुबुद्धि सुमार्ग छोड कुमार्गमे चलता है उसे दया विद्वान कुमार्ग में कभी भी नही चलने देता ।
?
(१२) हे पुत्रो ! सब स्थावर जंगम जीवमात्रको मेरे है 'समान समझकर भावना करना योग्य है ।
व
ये सभी उपदेश जैनधर्म के अनुसार है । इनमें नम्बर ४ का उप देश तो खास ध्यान देने योग्य है, जो कर्मकाण्डको बन्धका कारणं, बतलाता है । जैनधर्मके अनुसार मन, वचन और कायका निरोध दिना कर्मवन्वनसे छुटकारा नही मिल सकता । किन्तु वैदिक यह बात नही पाई जाती । शरीरके प्रति निर्ममत्व होना, तत्वज्ञाने पूर्वक तप करना, जीवमात्रको अपने समान समझना, कामवासना फन्देमे न फँसना, ये सब तो वस्तुत. जैनधर्म ही है । अत श्रीमद्भागवत अनुसार भी श्री ऋषभदेवसे ही जैनधर्मका उद्गम हुआ ऐसा स्पष् ध्वनित होता है । अन्य हिन्दू पुराणोमे भी जैनवर्मकी उत्पत्ति सम्वत्वमें प्राय इसी प्रकारका वर्णन पाया जाता है । ऐसा एक ग्रन्थ अभी तक देखनेमे नही आया, जिसमे वर्धमान या पार्श्वनाथ जैनधर्मकी उत्पत्ति बतलाई गई हो । यद्यपि उपलब्ध पुराणसाहित