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चारित्र क्षायिक कहते है। जो गुण कर्मोके क्षय और उपशये होता है उस क्षायोपशमिक कहते है और जो गुण कर्मोके उदय, उपगम, क्षय औ क्षयोपशमके विना स्वभावसे ही होता है उसे पारिणामिक कहते है चूंकि जीव इन गुणवाला होता है इसलिए आत्माको भी गुणनामर कहा जाता है और उसके स्थान गुणस्थान कहे जाते है । वे चौदह है, मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यडमिथ्यादृष्टि, असयतसम्य ग्दृष्टि, सयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति वादरसाम्पराय, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तकपाय वीतराग छद्मस्था क्षीणकषाय वीतराग छमस्थ, सयोग केवली और अयोग केवली। चूंधि ये गुणस्थान आत्माके गुणोके विकासको लेकर माने गये है इसलिए, एकदृष्टिसे ये आध्यात्मिक उत्थान और पतनके चार्ट जैसे है। इन्हें हम आत्माकी भूमिकाएँ भी कह सकते है।
पहले कहे गये आठ कर्मोंमें से सबसे प्रवल मोहनीयकर्म है। यह कर्म ही आत्माकी समस्त शक्तियोको विकृत करके न तो उसे सन् मार्गका-आत्मस्वरूपका भान होने देता है और न उस मार्गपर चलन देता है। किन्तु ज्यो ही आत्माके ऊपरसे मोहका पर्दा हटने लगता है त्यो ही उसके गुण विकसित होने लगते है । अत इन गुणस्थानोकी रचनामे मोहके चढाव और उतारका ही ज्यादा हाथ है। इनक. स्वरूप संक्षेपमे क्रमश. इस प्रकार है
१ मिथ्याष्टि- मोहनीय कर्मके एक भेद मिथ्यात्वके उदयर जो जीव अपने हिताहितका विचार नहीं कर सकते, अथवा विचार करें सकनेपर भी ठीक विचार नहीं कर सकते वे जीव मिथ्यादृष्टि जाते है। जैसे ज्वरवालेको मधुर रस भी अच्छा मालूम नही होता ही उन्हें भी धर्म अच्छा नहीं मालूम होता । संनारके अधिकतर जीट इसी श्रेणीके होते हैं।
२ सासादनसम्यग्दृष्टि-जो जीव मिय्याल कर्मले उदयके हटाकर सम्यग्दृष्टि हो जाता है वह जव सम्यक्त्वते च्युत होपर मिव्यात्व