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सिद्धान्त
आकाश उस लोकके अन्दर भी है और बाहर भी है, क्योकि उसका अन्त नहीं है।'
सारांश यह है कि आकाश सर्वव्यापी है। उस आकाशके बीचमें लोकाकाशह, जो अकृत्रिम है-किसीका बनाया हुआ नहीं है। न उसका आदि है और न अन्त ही है। कटिके दोनों भागोंपर दोनो हाथ रखकर और दोनों पैरोको फैलाकर खड़े हुए पुरुषके समान लोकका आकार है। नीचेके भागमे सात नरक है। नाभि देशमे मनुष्यलोक है और ऊपरके भागमे स्वर्गलोक है। तथा मस्तक प्रदेशमे मोक्षस्थान है। चूंकि जीव शरीरपरिमाणवाला और स्वभावसे ही ऊपरको जानेवाला है अत कर्मवन्धनसे मुक्त होते ही वह शरीरमेसे निकलकर ऊपर चला जाता है और जाकर मोक्षस्थानमे ठहर जाता है। उससे आगे वह जा नहीं सकता, क्योकि गमनमे सहायक धर्मद्रव्य वहीतक पाया, जाता है, उससे आगे नही पाया जाता । और उसकी सहायताके विना वह आगे जा नहीं सकता। इसीलिये जब कुछ दार्शनिकोने जैनोसे यह प्रश्न किया कि धर्म और अधर्म द्रव्यको आवश्यकता ही क्या। है, आकाश उनका भी कार्य कर लेगा तो उन्होंने उन्हें उत्तर दिया
'आगासं अवगासं गमणद्विदिकारणेहि देदि जदि। उड्ढे गदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठति किध तत्य ॥९॥' -पचास्ति ।
'यदि आकाश अवगाहके साथ-साथ गमन और स्थितिका भी कारण हो जायेगा तो ऊर्ध्वगमन करनेवाले मुक्त जीव मोक्षस्थानमे
कसे ठहर सकेगे। .. इस पर यह कहा जा सकता है कि मुक्तजीव ऊपरलोकके अग्रभाग
में यदि नहीं ठहर सकेगे तो न ठहरे। मात्र उन्हें ठहरानेके लिये ही तो दो द्रव्य नही माने जा सकते ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते है
'जम्हा उवरिमाण सिद्धाण जिणवरेहि पण्णत्त। तम्हा गमणट्ठाण आयासे जाण णत्यित्ति ॥३॥' –पचास्ति ।।