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जैनधर्म
अभी पुष्यमित्र मगध के सिंहासनपर जम भी न पाया था कि उसे तो प्रबल शत्रुमोका सामना करना पड़ा-उत्तर पश्चिमीय सीमा पान्तसे मनीन्द्रने उसके राज्यपर आक्रमण कर दिया और दक्षिणसे कलिंगराज खारवेलने । तीसरी पीढीके बाद शुगवश भी समाप्त हो गया। उसके बाद आन्ध्रोका राज्य हुआ जो दक्षिणी थे। ईसाकी चौथी शताब्दीके प्रारम्भमें आन्ध्रोके एक अधिकारीने ही जिसका नाम या उपाधि गुप्त थी, गुप्तवंशकी नीव डाली। अस्तु, भव प्रकृत विषय पर आइये।
१बिहारमें जैनधर्म बिहार तो भगवान महावीरकी जन्मभूमि, तपोभूमि और निर्वाण भूमि होनेके साथ-साथ कार्यभूमि भी रहा है। वहाँके रॉजघरानोसे महावीर भगवानका कौटुम्बिक सम्बन्ध भी था। फलत उनके समयमे और उनके बाद भी वहां जैनधर्मका अच्छा प्रसार हुमा और कई राजाओ और राजघरानोने उसे अपनाया, जिनमेंसे कुछका परिचय इस प्रकार है
राजा चेटक । जैनसाहित्यमे वैशालीके राजा चेटककी वडी ख्याति पाई जाती है। इसके कई कारण है। प्रथम तो यह राजा भगवान महावीरका महान उपासक था, दूसरे भगवान महावीरकी माता देवी त्रिशला राजा चेटककी पुत्री थी। राजा चेटकके आठ कन्याएं थी और उस समयके प्रमुख राजघरानोमे उनका विवाह हुआ था । सिन्धुसौवीर देशका राजा उदयन, अवन्तीनरेश प्रद्योत, कौशाम्बीका राजा शतानीक, चम्पाका राजा दधिवाहन, और मगधका राजा श्रेणिक (विबसार) ये सब राजा चेटकके जामाता थे । जनसाहित्यमे कुणिक और बौद्धसाहित्यमें अजातशत्रुके नामसे प्रसिद्ध मगधसम्राट तथा जैन, बौद्ध और ब्राह्मण सम्प्रदायक कथासाहित्यमें प्रसिद्ध वत्सराज उदयन, ये दोनो चेटक राजाके सगे दौहित्र थे। राजा चेटक भारतके तत्कालीन