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जैनधर्म जैनधर्मके सभी तीर्थङ्कर क्षत्रियवशी थे। उन्होने अपने जीवनमे अनेक दिग्विजये की थी। मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त, महामेघवाहन सम्राट खारवेल, वीर सेनापति चामुण्डराय आदि जैन वीर योद्धा तो भारतीय इतिहासके उज्ज्वल रत्न है। वस्तुत जैनधर्म उन क्षत्रियोका धर्म था जो यद्धस्थलमें दुश्मनका सामना तलवारसे करना जानते थे और उसे तमा करना भी जानते थे। जैन क्षत्रियोके लिये आदेश है
“य. शस्त्रवृत्ति समरे रिपु स्याद् य कण्टको वा निजमण्डलस्य। अस्त्राणि तत्रैव नपा. क्षिपन्ति न दीनकानीनशुभाशयेषु॥"
यशस्तिलक. पृ० ६६ 'अस्त्र शस्त्रसे सुसज्जित होकर युद्धभूमिमे जो शत्रु बनकर आया ते, या अपने देशका दुश्मन हो उसीपर राजागण अस्त्रप्रहार करते , कमजोर, निहत्थे कायरो और सदाशयी पुरुपो पर नहीं।'
यही जनी राजनीति है। अत जो लोग अहिंसा धर्मपर कायरतालाञ्छन लगाते है, वे भ्रममे है। अहिंतामे तो कायरताके लिये थान ही नहीं है। अहिंसाका तो पहला पाठ ही निर्भयता है। निर्भयता और कायरता एक ही स्थानमे नही रह सकती। शौर्य आत्माका एक ण है, जब वह आत्माके ही द्वारा प्रकट किया जाता है तब वह अहिंसा हलाता है और जब वह गरीरके द्वारा प्रकट किया जाता है तव रिता। जनधर्मकी अहिंसा या तो वीरताका पाठ पढाती है या क्षमाTI आपत्तिकालमे गृहस्थका कर्तव्य बतलाते हुए एक जैनाचार्यने उखा है
"अर्यादन्यत्तमस्योच्चद्दिष्टेषु स दृष्टिमान् । सत्सु घोरोपसर्गेषु, तत्पर स्यात्तदत्ययं ॥१२॥ यद्वा न ह्यात्मसामयं यावन्मत्रासिकोशकम् । तावद् दृष्ट च श्रोतुं च तद्वाघा सहते न स.८१३॥"-पञ्चाध्या० ।
अर्थात्-'धर्मके आयतन जिन मन्दिर, जिन विम्व आदिमते सीपर भी आपत्ति आ जानेपर सच्चे जैनीको उसे दूर करनेके लिये दा तत्पर रहना चाहिये । अथवा जबतक उसके पास आत्मबल,