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चारित्र
१७६ जैस, धान्यमें मरा हुआ धान्य, घीमे चर्बी, हीगमें खर, तेलमे मूत्र खरे सोने चांदीमे मिलावटी सोना चादी आदि मिलाकर बेचना । व्यापारी समझता है कि ऐसा करके में चोरी नहीं कर रहा हूँ यह तो व्यापारकी एक कला है, किन्तु उसका ऐसा समझना ठीक नहीं है, क्योकि इस तरहके व्यवहारसे वह दूसरोंको ठगता है और ऐसा करना "निन्दनीय है।
५-राज्यमे गडबड उत्पन्न होनेपर वस्तुओंका मूल्य बढ़ा देना, जैसा युद्धके जमानेमे किया गया था। या एक राज्यके निवासीका छिपकर दूसरे राज्यमे प्रवेश करना और यहाँका माल वहाँ ले जाना या वहाँका माल यहाँ लाना। इसी तरह बेटिकिट यात्रा करना, चुंगी महसूल आयकर वगैरह छिपाना , इस तरहके कार्य चोरी ही समझे जाते है। अत इनसे बचना चाहिये। 5 ऊपर जो बाते बतलाई गई है यद्यपि वे व्यापारको लेकरही वतलाई
गई है, किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि चोरीके काम व्यापारी ही करते है और राजा या उसके कर्मचारी नहीं करते। यदि वे भी राज्यमे चोरी करवाएं, चोरीका माल खरीदे, चोरोसे लांच घूस वसूल करें, राजाकी ओरसे वस्तुओकी खरीद होनेपर कमती बढती दे ल, और अपने राज्य या देशके विरुद्ध काम करतो वे भी चोरीके दोषके भागीदार कहे जायेंगे।
वास्तवमें धन मनुष्यका प्राण है, अत. जो किसीका घन हरता है वह उसके प्राण हरता है। यह समझ कर किसीको किसीकी चोरी नहीं करनी चाहिये।
४. ब्रह्मचर्याणुव्रत कामवासना एक रोग है और उसका प्रतिकार भोग नही है। भोगसे तो यह रोग और भी अधिक वढता है। किन्तु जिनके चित्तमे यह बात नही जमती, या जमनेपर भी जो अपनी कामवासनाको रोकने में असमर्थ है उन्हे चाहिये कि वे अपनी विवाहिता पत्नीमे ही