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________________ चारित्र न तो आत्माके अभावको ही मोक्ष कहा जाता है जैसा बौद्ध लोर मानते है और न आत्माके गुणोके विनाशको ही मोक्ष कहा जाता जैसा वैशेषिक दर्शन मानता है । जैनधर्ममे आत्मा एक स्वतत्र द्रा है जो ज्ञाता और दृष्टा है, किन्तु अनादिकालसे कर्मबन्धनसे बंधा हुआ होनेके कारण अपने किये हुए कर्मोका फल भोगता रहता है। जब वई उस कर्मबन्धनका क्षय कर देता है तो मुक्त कहलाने लगता है। मुक्त अवस्थामे उसके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख अनन्त वीर्य आदि स्वाभाविक गुण विकसित हो जाते है। जैसे स्वर्णमेरे मलके निकल जानेपर उसके स्वाभाविक गुण पीतता वगैरह ज्याद विकसित हो जाते है इसीसे शुद्ध सोना ज्यादा चमकदार और पील होता है, वैसे ही आत्मामेसे कर्म मलके निकल जानेसे आत्माके स्वाभा विक गुण निखर उठते है। मुक्त होने के बाद यह जीव ऊपरको जाता है चूंकिंजीवका स्वभाव ऊपरको जानेका है जैसा कि आगकी लपटें स्वभाव से ऊपरको ही जाती है। अत अपने उस स्वभावके कारण ही मु, जीव ऊपरको जाता है। लोकके ऊपर अग्रभागमे मोक्ष स्थान है जिर जैन सिद्धातमे सिद्धशिला भी कहते है । सब मुक्त जीव मुक्त होनेव वाद ऊर्ध्वगमन करके इस मोक्षस्थानमे विराजमान हो जाते है जैन सिद्धान्तमें मोक्षस्थानकी मान्यता भी अन्य सब दर्शनोसे निराल है। इसका कारण यह है कि वैदिक दर्शनोमें आत्माको व्यापक मान गया है अत उन्हे मोक्षस्थानके सम्बन्धमे विचार करनेकी आवश्यकत नही थी। बौद्धदर्शनमे आत्मा कोई स्वतत्र तत्त्व नहीं है, अत उनक लिए मोक्षस्थानको चिन्ता ही व्यर्थ थी। किन्तु जैनदर्शन आत्माक एक स्वतंत्र तत्त्व माननेके साथ ही साथ व्यापक न मानकर । शरीरके बराबर मानता है । इसलिए उसे मोक्षस्थानके सम्वन्धर विचार करना पड़ा। वह कहता है कि मुक्त जीव बन्धनसे छूटकर ऊर्ध्व गमन करता है और लोकके अग्रभागमे पहुंचकर स्थिर हो जाता है फिर वहाँसे लौटकर नहीं आता। जैन शास्त्रोमे एक मण्डली मतका उल्लेख पाया जाता है, ज
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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