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पण्डित श्री दीपचन्दजी शाह कासलीवाल विरचित
चिद्विलास
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सम्पादक
पण्डित राकेश कुमार जैन शास्त्री, जैनदर्शनाचार्य, एम. ए.
परामर्शदाता अ० यशपाल जैन, एम. ए.
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प्रकाशक
साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग
श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थसुरक्षा ट्रस्ट, ए-४, बापूनगर, जयपुर ३०२०१५
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विषय-सची प्रकाशकीय ५ सम्पादक की ओर से vili मङ्गलाचरण १३ :
प्रथम अध्याय द्रव्य
१४ से १६ द्वितीय अध्याय गुरण
२० से ४३ सम्यक्त्वगुण २४ ज्ञानगुरग २७, ज्ञान के सात भेद ३१ । वर्शनगुग ३७, दर्शन के सात भेद ३६ चारित्रगुण ४०
ततीय अध्याय पर्याय
४४ से ५६ कारण-कार्य सम्बन्ध ५१, सत्-उत्पाद और असत्-उत्पाद ५७
र्थ अध्याय सामान्य-विशेषात्मक वस्तु और स्यावाद ६० से ७९ नयविवरण ६२, संग्रहनय ६३, नैगमनय ६३, द्रध्याथिकनय ६४, व्यवहारनय ६६, व्यवहारनय के सूचक कुछ उदाहरण ६७, निश्चयनय ७१, ऋजुसूत्रनय ७७, शब्दनय ७७, समभिरूनय ७७ एवंभूतनयः ७८, पर्यायाथिकनय ७८, उपसंहार ७६
पंचम अध्याय आत्मा की अनन्त शक्तियों
८० से ११६ सुख या आनन्द 50 जीवनशक्ति या जोवत्वशक्ति ८१ प्रभुत्वशक्ति ८४, द्रव्य का प्रभुत्व ८४, गुण का प्रभुत्व ८५,
'पर्याय का प्रभत्व ८६, धोयशक्ति (सामान्यवीर्यशक्ति और विशेषवीर्यशक्ति) ८७
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LANCE"
( iv ). द्रव्यवीर्यशक्ति ८७, गुणवीर्यशक्ति ६१, पर्यायवोर्यशक्ति ६३, क्षेत्र वीर्यशक्ति ६५ कालवीर्यशक्ति १६, तपवीर्यशक्ति १८, भाववीर्यशक्ति ६६ गुण की विशेषता १०१ परिणामशक्ति १०४ प्रदेशत्वशक्ति १०६, द्रव्य-मुग-पर्याय का विलास ११० भावमावशक्ति १११ कारण-कार्य के तीन भेद ११२, च्यवारणकार्य ११३, गुणकारणकार्य ११३, पर्यायकारणकार्य ११४
षष्ठ अध्याय परमात्मस्वरूप की प्राप्ति के उपाय ११७ से १३५ सम्यक्त्व के सड़सठ भेद ११७ शाता के विचार १२५ अनन्त संसार कैसे मिटे १२८ मन की पांच भूमिका १३४ क्षिप्त १३४, विक्षिप्त १३४, मूढ १३४, चित्तानिरोध एवं एकाग्रता १३४
' सप्तम अध्याय समाधि के तेरह भेद
१३.६ से १५६ समाधि के तेरह भेद १४० (१) लय समाधि १४१, (२) प्रसंज्ञात समाधि १४२, (३) वितानुगत समाधि १४४, (४) विचारानुगत समाधि १४६. (५) अानन्दानुगत समाधि १४८, (६) अस्मिदानुगत समाधि १४६, (७) निवितर्कानुगत समाधि १५१, (८) निर्विचारानुगत समाधि १५१, (६) निरानन्दानुगत समाधि १५२, (१०) निरस्मिदानगत समाधि १५३, (११) विवेकख्याति समाधि १५४, (१२) धर्ममेघ समावि १५५, (१३) असंप्रज्ञातसमाधि १५५ अन्तिम प्रशस्ति
१५६
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सम्पादक की ओर से ग्रन्थकार के सम्बन्ध में
जैन अध्यात्म को अग्रेसित करने में प्राध्यात्मिक विद्वान पण्डित श्री दीपचन्दजी शाह कासलोवाल का विशिष्ट स्थान है। आपने अध्यात्म से ओतप्रोत अनेक रचनाय लिखी हैं, जिनमें कुछ गद्य रचनाये हैं और कुछ पद्य । गद्य रचनाओं में चिविलास, अनुभवप्रकाश, आत्मावलोकन, परमात्मपुराण मादि प्रमुस्त्र हैं। पद्य रचनात्रों में ज्ञानदर्पण स्वरूपानन्द, उपदेश सिद्धान्त रत्न आदि हैं । इन सभी रचनाओं में ग्रन्थकार ने अध्यात्म की धारा ही प्रवाहित की है।
आपकी जाति खण्डेलवाल एवं गोत्र कासलीवाल था । आप सांगानेर के निवासी थे, बाद में आप जयपुर की राजधानी आमेर में या गए थे। पामेर में रहकर ही आपने ग्रन्थों की रचना की है। आपके लौकिक जीवन का इससे अधिक परिचय प्राप्त नहीं हो सका है।
अापके व्यक्तित्व के संबंध में पण्डित श्री परमानन्दजी जैन शास्त्री ने मूल भाषा में पूर्वप्रकाशित चिश्लिास के सम्पादकीय में लिखा है :
"थे अध्यात्मशास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान थे, पर-पदार्थों से. उदासीन रहते थे, वे अनुकूल-प्रतिकूल परिणमन से चित्त में हर्ष-विषाद नहीं करते थे, हृदय में संतोष था और अंतरंग कषायें भी कुछ मन्द हो गयी थीं, अध्यात्मरस की सुधाधारा के प्रवाह द्वारा
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ग्रन्थ के सम्बन्ध में ]
निजानन्दरस की अनुपम छटा बह रही थी। यह सन्न होते हुए भी उनके हृदय में 'संसारी जीवों की विपरीत परिणति एवं विपरीत अभिनिवेश कैसे मिटें' - ऐसी करुणाबुद्धि थी, जैसा कि उनकी अन्य कृति 'भावदीपिका' पत्र २४१ के अन्त के निम्न वाक्य से स्पष्ट होता है :
'जिनसूत्र के अर्थ अन्यथा करने लगे, ताकरि भोले जीव तिनकी बताई प्रवृत्ति ताही विर्षे प्रवर्तते भये । नाहीं है सत्यसूत्र का ज्ञान जिनको, ताकरि महंत शास्त्रन का ज्ञान, तिनत अगोचर भया ताकरि मूढ़ता प्राप्त भये होनशक्ति भये, सत्यवक्ता सांचा जिनोक्तसूत्र के अर्थ ग्रहण कराबनेहारा कोई रहा नहीं, तातें सत्य जिनमत का तो प्रभाव भया, तब धर्म ते परान्मुख भये । तब कोईकोई गृहस्थ सुद्धि संस्कृत प्राकृत का वेत्ता भया, ताकरि जिनसूत्रन को अवगाहा, तब ऐसा प्रतिभासता भया जो सूत्र के अनुसार एक भी श्रद्धान-ज्ञान-पाचरणन की प्रवृत्ति न करें हैं पर बहुत काल गया मिथ्याश्रद्धान-ज्ञान-पाचरण की प्रवृत्तिकों, तारि अतिगाढ़ताने प्राप्त भई, तात मुखकरि कही माने नहीं तब जीवनका अकल्याण होता जानि करुणाबुद्धिकरि देशभाषाविर्षे शास्त्ररचना करी, तब केई सुबुद्धीन के साँचा बोध भया, बहुरि अब इस अवसर विष ज्ञान की वा शक्ति की ऐसी हीनता भई, जो भाषा शास्त्रन तें भी ज्ञान कर सकें नाहीं, तातै तिन महंत शास्त्रनितें प्रयोजनभूत वस्तु काढ़ि-काढ़ि छोटे प्रकरण करि एकत्र कीजिये है, ताते ऐसे अवसर विौं सम्यकज्ञान के कारण भाषाशास्त्र ही हैं।'
परन्तु फिर भी वह परपदार्थों के विपरीत परिणमन से कभी दिलगीर प्रभवा दुखी नहीं होते थे; किन्तु यह समझकर संतोष धारण कर लेते थे कि इनका परिणमन मेरे आधीन नहीं, ये अपने परिणमन के आप ही कर्ता-धर्ता हैं, अतएव मैं इनके परिणमन का
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२]
' [ चिद्विलास कर्ता-धर्ता नहीं हूं। जीव भूल से परद्रव्य एवं परपरिणति को अपना समझने लगता है, जो दुःख का मूल कारण है।"
पापके साहित्यसुजन की भाषा वि० सं० १७७६ के लगभग को हिन्दी गद्य भाषा है। इसमें ढ ढारी तथा ब्रजभाषा मिश्रित है। आप पण्डित टोडरमल जी से पूर्ववर्ती हैं, अतः श्रापके बाद पण्डित टोडरमलजी एवं पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा की भाषा में काफी परिवर्तन एवं सुधार हुया है, फिर भी आपकी भाषा उससमय बड़ी ही लोकप्रिय समझी जाती थी । जब हम इसका अध्ययन करते हैं तो इसकी सरसता एवं सरलता का प्रगट अनुभव होता है । इस सन्दर्भ में चिद बिलास का ही निम्न अंश दृष्टव्य है :
"कोई कहै संसार अनंत है, कैसे मिट ? ताका समाधान:वानरे का उरमार एता ही है, मूठी न छोड़ें है। सूबे का उरझार एता ही है, नलिनी को न छोड़ है। श्वान का उरझा र एता हो है, जो भूसं है । विबक जेवरी में सांप मान है, सो भय जब ताई ही है। मुग भांडली के मांहि जल मानि दौर है, एते ही दुःखी है । ऐसें प्रात्मा पर कौं आपा माने है, एता ही संसार है, न मान मुक्त हो है।'' ग्रन्थ के सम्बन्ध में
पण्डित श्री दीपचन्दजी शाह ने 'चिद्विलास' नामक इस लघु ग्रन्थ में ग्रन्थ के नाम के अनुसार ही विषय-प्रतिपादन किया है। इसमें चैतन्य परमात्मा के अनन्त साम्राज्य का निरूपण किया गया है । अध्यात्मरुचि सम्पन्न मुमुक्षु समाज को यह ग्रन्थ विशेष प्रिय है, क्योंकि अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों पर इसमें खलकर मीमांसा
को गई है. प्रात्मा के वमन का दिग्दर्शन कराया गया है। ___L, इसी पुस्तक के पृष्ठ १२८-१२६ पर इसका अनुवादित मश देखें।
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ग्रन्थ के सम्बन्ध में
[ ३
इस सम्बन्ध में ग्रन्थकार स्वयं कहते हैं
:
सो या चरचा स्वरूप को रुचि प्रगट तब पावै अरु करें। निज
घर का निधान निज पारखी ही परखे।'
इस ग्रन्थ में परमात्मा का वर्णन किया, पीछे परमात्मा पायये का उपाय दखाया । जो परमात्मा को अनुभव कियो चाहें हैं ते या ग्रन्थ कौं बार-बार विचारों । *
ग्रन्थ में ग्रन्थकार की शैली मौलिक है, वे विषयवस्तु का प्रतिपादन इस ढंग से करते हैं, मानों वे बातें उनके हृदय के जिनमें अंतस्तल से भा रही हों । कितने ही प्रकरण ऐसे भी हैं, पूर्ण मौलिकता है, जिनका निरूपण अन्यत्र देखने में नहीं भाता । ज्ञानियों का व्यक्तित्व हो निराला होता है । ग्रन्थकार आगमप्रमाण को तो मानते ही हैं; साथ ही कतिपय स्थानों पर स्वानुभव से प्रभाग करके भी लिखते हैं। वे मात्र शास्त्रों को पढ़पढ़कर ही नहीं लिखते, बल्कि कई विषयों को स्वानुभव द्वारा प्रमाण करके भी लिखते हैं । जैसे :
1
·
"एक ज्ञान नृत्य में अनंत गुण का घाट (तमाशा) जानिवे मै आया है, तातें ज्ञानमें है । अनंत गुण के घाट में गुण एक-एक अनंत रूप होय अपने ही लक्षणकों लिए हैं, यह कला है, एक-एक कला गुणरूप होवेतें अनंतरूप घरे हैं। एक एकरूप जिहिं रूप भया तिनकी अनंत सत्ता है, एक-एक सत्ता अनंत भावको घर है। एकएक भाव अनंतरस है, एक-एक रस में अनंत प्रभाव है ।"
यद्यपि ग्रन्थकार के विषयचयन में समयसार, प्रवचनसार श्रादि श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित ग्रन्थों का स्पष्ट प्रभाव
1. इसी पुस्तक के पृष्ठ २४ पर इसका मनुवादित अ ंश देखें । 2. इस पुस्तक के पृष्ठ १५६ पर इसका अनुवादित अशा देखें ।
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४ ]
[ चिद्विलास
लक्षित होता है, जैसे - शक्तियों की चर्चा पर समयसार का एवं प्रदेशत्वशक्ति के प्रकरण में विष्कम्भक्रम एवं प्रवाहक्रम की चर्चा पर प्रवचनसार का प्रभाव दिखाई देता है; तथापि विश्लेषण में आपने अपनी मौलिकता की स्पष्ट छाप छोड़ी है ।
ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ में प्रमुखतः द्रव्य-गुण- पर्याय का जाल फैलाया है। जहाँ देखो, वहाँ द्रव्य-गुण-पर्याय की चर्चा की गई है। द्रव्य-गुण- पर्याय का पृथक् पृथक् निरूपण करने के बाद भी ग्रन्थकार का मन नहीं भरा तो वे शक्तियों के प्रकरण में भी द्रव्य-गुण-पर्याय की चर्चा करने से नहीं चूके । जैसे प्रभुत्वशक्ति के प्रकरण में द्रव्य के प्रभुत्व, गुण के प्रभुत्व तथा पर्याय के प्रभुत्व की चर्चा करते हैं; वीर्यशक्ति के प्रकरण में भी द्रव्यवीर्यशक्ति, गुणatara तथा पर्यावीर्यशक्ति की चर्चा की गई है । इसीप्रकार प्रदेशत्वशक्ति के निरूपण के बाद द्रव्य-गुण- पर्याय का विलास तथा भावभावशक्ति के प्रकरण के बाद कारण कार्य के प्रकरण में द्रव्यकारणकार्य, गुणकारणकार्य तथा पर्यायकारणकार्य ऐसे तीन
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भेद किये गये हैं ।
ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार यह कहना चाहते हैं कि वस्तु का स्वरूप श्रगाध एवं गंभीर है। उसमें जितना अधिक गोता लगावें, उतना अधिक खजाना उसमें से पाया जा सकता है। ग्रन्थकार ने जिस विषय को भी संगृहीत किया है, उसका यच्छी तरह से खोल-खोलकर निरूपण किया है । मानो उस विषय संबंध में उठनेवाली सभी शंकायों-प्रतिशंकाओं का उन्हें पहले से ही आभास हो गया हो और वे उनका निराकरण करते जा रहे हों ।
उन्होंने कतिपय आगम-महासागर के सिद्धान्तों को बड़े ही सुन्दर ढंग से स्पष्ट किया है । जैसे :
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ग्रन्थ के सम्बन्ध में ]
(१) जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है। (पृष्ठ ३२-३३)
(२) 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' अर्थात् द्रव्य के प्राश्रय से गुण रहते हैं, लेकिन गुण के आश्रय से गुण नहीं रहते। .
(पृष्ठ १७-१८-२२) इसीप्रकार अन्य अनेक सिद्धान्तों का इस लघु ग्रन्थ में विस्तार से निरूपण किया गया है।
प्रत्येक प्रकरण को कहने की उनकी अलग पद्धति है । जैसे :(१) सप्तभङ्गी का निरूपण (पृष्ठ २२) (२) ज्ञान के सात भेद (पृष्ठ ३१-३६) (३) सामान्य-विशेषरूप वीर्यशक्ति में विशेषवीर्यशक्ति के
सात भेद (पृष्ठ ८७-१००) (४) सम्यक्त्व के सड़सठ भेद (पृष्ठ ११७-१२५) (५) मन की पांच भूमिका (पृष्ठ १३४-१३५) (६) समाधि के तेरह भेद (पृष्ठ १४०-१५६)
अापने सम्यक्त्व को अलग गुण माना है । वे कहते हैं कि सम्यक्त्व के अनन्त प्रकार हैं, यह प्रधान गुण है तथा सभी गुणों में सम्यक्पना इसी गुण के कारण आता है। . ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार श्रद्धागुण को ही सम्यक्त्व नाम से कहते हैं, क्योंकि आप स्वयं लिखते हैं :
'जहाँ सम्यक् दर्शन प्राव, तहाँ सम्यक्त लेना।।
ग्रन्थकार की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि आपने अपने प्रतिपादन में गुणों के संबंध में एक विशेष बात कही है। यद्यपि !. इसी पुस्तक में पृष्ठ २७ पर इसका अनुवादित अंश देखें।
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[ चिद्विलास आगम में गुणों को निर्गुण माना है। 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुगाः' इस सूत्र में द्रव्य कोः तो अनन्तगुणरूप स्वीकार किया है, लेकिन एक गुण को अन्य गुणस्वरूप स्वीकार नहीं किया, तथापि ग्रन्थकार कहते हैं कि एक गुण में अनन्तगणों का रूप पाता है। इस संबंध में उनका कथन दृष्टव्य है :____एक गुण में सब गुण का रूप संभव । वस्तुविर्षे अनंतगुण हैं सो एक-एक गुणन में सब गुण का रूप संभषे हैं । काहेत ? जो सत्ता गुण है तो सब गुण हैं, तातें सत्ताकरि सब गुण को सिद्धि भई । सूक्ष्म गुण है तो सब गुण सूक्ष्म हैं, तो सब सामान्य विशेषता को लिये हैं । द्रवत्वगुण है तो द्रव्य को द्रौ है, व्यापं है । अगुस्लघुत्व गुण है तो सब गुण अगुरुलघु हैं । अबाधित गुण है तो सब अबाधित गुण हैं । अमूर्तीक गुण है तो सब अमूर्तीक हैं। या प्रकार एक-एक गुण सबमें है, सबकी सिद्धि की कारण है। एक-एक गुण में द्रव्य-गुणपर्याय तीनों साधिये, एक गुण ग्यान है ताको ज्ञानरूप तौ द्रव्य है, गाको लक्षण गुण, जाकी परिणति पर्याय है। प्राकृति व्यंजन पर्याय है।"
नयप्रकरण में भी नवीनता के साथ निरूपण किया गया है। सर्वत्र निश्चय-व्यबहारनय अथवा द्रव्याथिक-पर्यायाथिकनय को मूलनय कहा जाता है तथा नैगमनय का अलग से निरूपण किया जाता है, लेकिन इस ग्रन्थ में लेखक ने उन सबका समन्वय करने का प्रयत्न किया है । समन्वय करने के प्रयास में उन्होंने इन सबका अपने मौलिक क्रम में ही निरूपण किया है। उनके निरूपण का क्रम निम्न प्रकार है:
१. संग्रहनय, २. नेगमनय, ३. द्रव्याथिकनय, ४. व्यवहारनय, 1. इसी पुस्तक में पृष्ठ १०१ पर इसका पनुवादित अंश देखें ।
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ग्रन्थ के सम्बन्ध में ]
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५. निश्न्त्रयनय ६ ऋजुसूत्रनय, ७ शब्दनय, ६. एवंभूतनय, १०. पर्यायार्थिकनय ।
ऐसा क्रम रखने के पीछे क्या कारण हो सकता है - इसका विचार करें तो ज्ञात होता है कि ग्रन्थकार ने 'स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर' इस सिद्धान्त का पालन करते हुए यह क्रम रखा है। इस. संबंध में नय प्रकरण के अन्त में वे स्वयं लिखते हैं :
[ ७
समभिनय,
"इन नयन (नयों) में पूर्व-पूर्व विरुद्ध महाविषय उत्तर-उत्तर सूक्ष्मारूपरूप अनुकूल विषय कहिये ।" 1
नयप्रकरण की उनकी मौलिक विशेषताओं को निम्न बिन्दुनों से स्पष्टतः समझ सकते हैं :
'—
(१) सर्वत्र संगमनय के बाद संग्रहनय का निरूपण किया जाता है; जबकि ग्रन्थकार ने पहले संग्रहनय का, बाद में नैगमनय. का निरूपण किया है।
(२) नैगमनय के भेद - प्रभेद भी विचित्रता सहित हैं, जो कि मूलतः पठनीय हैं |
( ३ ) सर्वत्र द्रव्याधिन के दश भेदों का निरूपण जीव को मुख्यता से किया जाता है, जबकि इस ग्रन्थ में उन्हें पुद्गल की मुख्यता से निरूपित किया है ।
( ४ ) ग्रन्थकार ने निश्चय व्यवहारवाले व्यवहारनय एवं नैगमादि नयों में आनेवाले व्यवहारनय दोनों का सम्मिलित निरूपण किया है। साथ ही व्यवहारनय का निरूपण अनेक उदाहरणों के माध्यम से किया है ।
1. इसी पुस्तक में पृष्ठ ७१ पर इसका अनुवादित अंश देखें |
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[ चिविलास (५) निश्चयनय का निरूपण तेरह प्रकार से किया गया है, जो मूलत: पठनीय है।।
ग्रन्थकार की शैली है कि जब भी किसी विषय का निरूपण करते हैं, उसकी महिमा अवश्य करते हैं - इससे उस विषय के सबध में जिज्ञासाभाव उत्पन्न होता है । जैसे -- गुणों के प्रकरण में वे प्रत्येक गुण को प्रधान कहते हैं । उदाहरणार्थ :-- (१) वस्तु का निश्चयरूप अनुभव रूप सम्यक्त्व है, वही
प्रधान है। . (२) दर्शनगुण प्रधान गुण है ।
(३) चारित्र द्वन्य का सर्वस्वगुण है । - सभी गुणों को प्रधान क्यों वाहा जाता है - इसका समाधान भी उन्होंने स्वयं ही किया है । वे कहते है :
गुण अनंत हैं, सामान्य विवक्षा मैं अनंत ही प्रधान है। विशेष विवक्षा में जो गुण प्रधान कीजिये सो मुख्य है, और गुण हैं । यात मुख्यता-गौणता भेद, विधि-निषेध भेद जानिये ।"
सर्वत्र षड्गुणी वृद्धि हानि के स्वरूप को केवलीगम्य कहा जाता है, लेकिन षड्गुणी वृद्धि हानि का स्वरूप क्या है, ऐसी शंका होने पर समाधान करते हुए ग्रन्थकार करते हैं:- गसिद्ध भगवान हैं तिन विर्षे षट्गुणी वृद्धि-हानि का स्वरूप कहिये है"
बाद में उन्होंने षड्गुणी वृद्धि-हानि का स्वरूप विस्तार से लिखा है, जो मूलतः पठनीय हैं।
आपके विश्लेषण में जैन अध्यात्म और जैन न्याय - दोनों का 1. इसी पुस्तक में पृष्ठ २७ पर इसका अनुवादित अंश देखें । 2. इसी पुस्तक में पृष्ठ ३७ पर इसका अनुवादित मश देखें । 3. इसी पुस्तक में पृष्ठ ४२ पर इसका अनुवादित प्रश देखें। 4. इसी पुस्तक में गृष्ठ २० पर इसका अनुवादित प्रशदेखें।
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ग्रन्थ के सम्बन्ध में ]
[ ६ संगम परिलक्षित होता है। जैसे प्राध्यात्मिक चर्चा करते हुए उन्होंने प्रष्टसहस्री एवं प्राप्तमीमांसा के उद्धरण भी प्रस्तुत किये हैं।
ग्रन्थ में समागत कतिपय महत्त्वपूर्ण वाक्य-उपवाक्य निम्नप्रकार हैं। यद्यपि इनका पूर्णतः ग्रानन्द पूरे प्रसंग के साथ पड़ने पर ही पायेगा, फिर भी किञ्चित् रसास्वाद कराने की दृष्टि से उन्हें ग्रन्थ की मूल भाषा में ही अविकलरूप से दे रहे हैं :-. .
(१) यह द्रव्य का सत्स्वभाव अनादिनिधन है, द्रव्य-गुण । अन्वयशक्तिकौं लियें हैं, सो पाँव क्रमवर्ती सों व्याप्त हुना भी द्रव्याथिकानय करि अपने वस्तु सत्करि जैसा है तैसा उपज है । पर्याय की अपेक्षा करि उपजना ऐसा है, पर अन्वयी शक्ति में जंसा का तसा है तो भी ल्याया है । पर्याय शक्ति में असत्-उत्पाद.बताया है. (सो) पर्याय और और उपजें हैं। तातें कहा है, पर अन्वयो शक्तिसौं व्याप्त है। पर्यायाथिकानयकरि है।
(२) पर्याय द्रव्यको कारण, द्रव्य पर्यायको कारण, यह तौ कारणरूप है। पर पर्याय का कार्य पर्यायहीतर, है। द्रव्य का कार्य द्रव्य होलब है।
(३) जसे एक नर के अनेक अंग हैं, एक अंग में नर नाही, सन अंगरूप नर है। तैसें द्रक्ष्यरूप, गुणरूप, पर्यायरूप जीव नाही, जीववस्तु द्रव्य-गुण-पर्याय का एकत्व है, एक अंग में जीन होय ती ज्ञानजीव, दर्शनजीव, अनंतगुण यों अनंतजीव होय, तातें अनंतगुण काज जोषवस्तु है।'
(४) द्रव्यकरि गुण-पर्याय हैं, गुण-पर्यायकरि द्रव्य है, द्रव्य गुणी है, गुण गुण है, गुणीत गुण की सिद्धि है, गुणत गुणी की सिद्धि है।
1. इसी पुस्तक में पृष्ठ ५७ पर इसका अनुवादित अंश देखें। 2. इसी पुस्तक में पृष्ठ ५८ पर इसका अनुवादित म श देखें । ३. इसी पुस्तक में पृष्ठ ८२ पर इसका अनवाचित मश देखें। 4. इसी पुस्तक में पृष्ठ ५४ पर इसका अनुवादित अश देखें।
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१.]
[ चिविलास : । (५) या प्रकार करि इत्यादि अनंत महिमा वस्तु की है, सो कहाँ लौं कहै, ताते संत हैं, जे स्वरूप अनु भौ (भव) अमृत रस पीय अमर हो। . (६.) "सम्यक्तस्त्ररूप अनुभौ सकल निजधर्ममूल शिवमूल छ, यो भावै मूल सम्यक्त जिनधर्म कल्पतरुको छ ।"
(७) "ये जु हैं षट् द्रव्य तिनमें चेतन राजा है, तिन पांच में तो तुम मत अटकी, तुम्हारी महिमा बहुत ऊँची है।"
अन्त में ग्रन्थकार की निम्नोक्त भावना के साथ विराम लेता हूँ :
___ "इस ग्रन्थ में परमात्मा का वर्णन किया, पोछे परमात्मा पायवे का उपाय दिखाया। जो परमात्मा को अनुभव कियो चाहै हैं, ते या ग्रन्थ कौं बार-बार विचारौं । इस संस्करण के सम्बन्ध में
हमारे प्रकाशन विभाग की यह रीति-नीति है कि किसी भी पुस्तक का प्रकाशन तब ही कराया जाय, जबकि उसे कम से कम एक बार प्राद्योपान्त पढ़ लिया जाय । उसमें प्रकाशन की दृष्टि से यदि किसी प्रकार के सुधार की गुंजाइश प्रतीत हो तो उसमें प्रकाशन समिति से अनुमति लेकर सुधार किया जाता है और तब हो उसका प्रकाशन किया जाता है।
इस चिविलास के प्रकाशन की बात भी. जब पाई, तो मुझे आदरणीय श्री नेमीचन्दजो पाटनी ने इसे प्रकाशन की दृष्टि से पढ़ने के लिए कहा । मैंने इसे पढ़ा भी, लेकिन मुझे सन्तोष नहीं
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1. इसी पुस्तक में पृष्ठ ११६ पर इसका अनुवादित प्रण देखें। 2. इसी पुस्तक में पृष्ठ १२१ पर इसका अनुवादित प्रपा देखें। 3. इसी पुस्तक में पृष्ठ १३१ पर इसका अनुवादित प्रश देखें। 4. इसी पुस्तक में गृष्ट १५६ पर इसका मनुवादित अंश देखें।
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इस संस्करण के सम्बन्ध में ]
[ ११ हुआ तो मैं और व० यशपालजी ने लगभग ५०-६० पृष्ठों को सायसाथ पढ़ा । हम दोनों ने यह अनुभव किया कि इसके अनुवाद को कुछ सुधारा जाय । इसीप्रकार सम्पादन की दृष्टि से भी इसमें कुछ परिवर्तन करने की अावश्यक्ता महसूस हुई । हमने क्या-क्या किया है, इसकी विशेष जानकारी तो पापको इस संस्करण एवं पूर्वप्रकाशित सस्करण के तुलनात्मक अध्ययन करने पर ही ज्ञात होगी, फिर भी हमने क्या-क्या किया है, उसकी संक्षिप्त जानकारी यहाँ दे रहे हैं :
पुस्तक की मूल प्रति में तो कहीं कोई पैराग्राफ प्रादि के द्वारा विभाजन नहीं है । यहां तक कि अध्यायों का विभाजन भी नहीं किया गया है । अतः समझने में सुगमता हो- इस दृष्टि से छोटेछोटे पैराग्राफ बनाये हैं।
पूर्व में इसका अनुवाद पण्डित श्री गोपीलालजी शास्त्री ने किया था, लेकिन जब इस अनवाद को मूल प्रति के प्राधार पर परिमार्जित किया गया तो इतना अधिक परिवर्तन हो गया कि मानो नया ही अनुवाद हो गया हो । अत: इसकी नयी प्रेसकॉपी तयार की गई; उस प्रेसकॉपी को भी मैंने पुनः पढ़ा, इसके आधार पर ही इस संस्करण को प्रकाशित किया गया है।
मध्यायों का विभाजन भी नये सिरे से किया है । जहाँ पूर्व सम्पादित कृति में ३० अध्यायों में विभाजन था, वहीं इस संस्करण में केवल सात अध्याय बनाये गये हैं।
___ ये अध्याय मुख्य-मुख्य प्रकरण की दृष्टि से बनाये गए हैं, जैसे द्रव्य, गण, पर्याय आदि । अन्य प्रकरणों को इनके अन्तर्गत होने से पृथक् अध्याय नहीं माना गया है। जैसे ज्ञानगुण, चारित्रगण प्रादि गुणों के भेद होने से उन्हें गुण नामक प्रकरण में ही रखा गया है इसीप्रकार शक्तियों के प्रकरण में भी प्रत्येक शक्ति के अलग-अलग अध्याय माने गये थे। जबकि उन्हें इस संस्करण में 'मात्मा की
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१२ ]
चिद्विलास
अनन्त शक्तियाँ नामक पंचम अध्याय में गृहीत किया है । इसीप्रकार अन्यत्र समझना चाहिये ।
ग्रन्थकार ने कतिपय स्थानों पर अन्य ग्रन्थों के उद्धरण भी दिये हैं, जो संस्कृत भाषा में होने से संस्कृत में श्रनभिज्ञ समाज को सरलता से समझ में नहीं ला पाते; प्रतः उनका सामान्यार्थ भी साथ-साथ दे दिया गया है ।
प्रत्येक प्रध्याय के अन्त में बचे हुए स्थान में ग्रन्थकार के अन्य ग्रन्थों के कुछ उद्धरण दिए गये हैं। जैसे :- पृष्ठ १६ पर अनुभवप्रकाश का; पृष्ठ ४३, ५६ एवं १९४७ पर श्रात्मावलोकन के; पृष्ठ ७० पर उपदेश सिद्धान्त रत्न का तथा पृष्ठ ११६ पर ज्ञानदर्पण का उद्धरण दिया गया है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि पण्डित दीपचन्दजी साहब ने बड़ी ही अधिकारपूर्व शैली में वर्णन किया है। श्रात्मा के गुणों, श्रात्मा की शक्तियों, आत्मा की महिमा आदि के संबंध में प्रगट होनेवाले उनके हृदयोद्गार इस बात के द्योतक है कि वे एक आत्मानुभवी सगृहस्थ थे ।
यह ग्रन्थ प्रत्येक स्वाध्यायप्रेमी को अवश्य पढ़ना चाहिये । इतना ही नहीं, बल्कि गाँव-गाँव में चलनेवाली दनिक शास्त्र सभायों में भी इसका स्वाध्याय होना चाहिये ।
सभी जीव इस लघु ग्रन्थ के माध्यम से अपने आत्मकल्याण का पथ अग्रसर करें - यही भावना है ।
- राकेश कुमार जैन शास्त्री, जैनदर्शनाचार्य, एम ए.
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5-25
पण्डित श्री वीपचन्दजी शाह फासलीवालकृत
चिद्विलास
मंगलाचरण
अविचल ज्ञान प्रकाशमय, गुग अनन्त के थान । ध्यान धरत शिष पाइए, परम सिद्ध भगवान ।।
इस मंगलाचरण का तात्पर्य यह हुआ कि जो अनन्त चित्शक्ति से मंडित हैं - ऐसे परमसिद्ध परमेश्वर को नमस्कार करके में यह चिद्विलास नामक ग्रन्थ लिख रहा हूँ।
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काम
द्रव्य प्रथम ही वस्तु में द्रव्य, गुण और पर्याय का निर्णय किया जाता है; उस में द्रव्य का स्वरूप 'द्रव्यं सत् लक्षणम्'- ऐसा जिनागम में कहा गया है ।
शंका :- हे प्रभो ! 'गुणसमुदायो प्रध्यम्' - ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव का वचन है, जिसके अनुसार एक सत्तामात्र में अनन्तगुणों की सिद्धि नहीं होती । 'गुरणपर्ययबद् द्रव्यम्' - ऐसा गुणसमुदाय के कहने से सिद्ध नहीं होता। 'द्रव्यत्वयोगाद् द्रव्यम्' -- यह भी द्रव्य का विशेषण करें, तब भी कहते हैं कि यदि द्रब्य स्वतःसिद्ध है तो ये विशेषण झूठे हुए; क्योंकि द्रव्य इनके आधीन नहीं है ।
समाधान :- हे शिष्य ! वस्तु से मुख्य-गौण को विवक्षा करें, तब सत्ता की मुख्यता करके द्रव्य को सत्तालक्षण कहा जायगा; क्योंकि सत्ता का लक्षण 'है' अर्थात् 'होना है। अतः 'है' लक्षण में गुणसमुदाय, गुण-पर्याय भौर द्रव्यत्व -- ये सब अन्तर्गभित हो जाते हैं; अतः द्रव्य को सत्तालक्षण कहा जाता है। इसप्रकार कहे जाने में कोई दोष नहीं, बिरोध भी नहीं ।
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द्रव्य ]
[१२ 'गुणसमुदाय' के कहने में अगुरुलघुत्वगुण पाया और अगुरुलघुत्वगुण के कथन से षड्गुरगो वृद्धि-हानि नामक पर्याय पाई; अतः गुणसमुदाय से पर्याय की सिद्धि होती है । द्रव्यत्वगुण भी गुणों के अन्तर्गत आता है, अतः 'गुणसमुदायो द्रव्यम्' यह लक्षण भी विवक्षा से प्रमाण है । ___'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्'- इस लक्षण में सत्ता, सर्व गुण और पर्यायें आ जाती हैं ; अतः द्रव्य को गुणपर्यायवान् कहना भी विचक्षा से प्रमाण है। ___ 'द्रव्यत्वयोगाद् द्रव्यम्'- यह लक्षण भी प्रमाण है, क्योंकि गुणपर्यायों के द्रवित हुए बिना द्रव्य नहीं हो सकता; अतः द्रवणा द्रव्यत्वगुण से है । द्रव्य द्रवित होने से गुणपर्याय को व्याप्त करके प्रकट करता है, अतः गुरण-पर्याय का प्रकट होना द्रव्यत्वगुण से है; अतः द्रव्यत्व को विवक्षा से "द्रव्यत्वयोगाद् द्रव्यम्'- यह लक्षण भी प्रमाण है।
'स्वतःसिद्ध द्रव्यम्'- यह लक्षण भी प्रमाण है, क्योंकि ये चारों द्रव्य के स्वत: स्वभाव हैं। द्रव्य अपने स्वभावरूप स्वतः परिगमन करता है, अतः उसे स्वतःसिद्ध कहा जाता है।
द्रव्य गुरण-पर्यायों को द्रवित करता है तथा गुण-पर्याय, द्रव्य को द्रवित्त करते हैं, तभी द्रव्य को 'द्रव्य' नाम मिलता है।
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१६]
[ मिविलास द्रव्यार्थिव नय की अपेक्षा से द्रव्य विशेषग है, उसके अनेक भेद हैं :- अभेद द्रव्याथिकनय द्रव्य को अपने स्वभाव से अभेदरूप दिलाता है। भेदकल्पना को अपेक्षा से अशुद्ध द्रव्याथिकनय द्रव्य को भेदरूप दिखाता है । शुद्ध द्रव्यापिक.नय द्रव्य को शुद्ध दिखाता है । अन्वय द्रव्याथिकमम द्रव्य को गगणादिस्वभावरूप प्रदर्शित करता है । सत्तासापेक्ष द्रव्य सत्तारूप कहलाता है। अनन्तज्ञानसापेक्ष द्रव्य ज्ञानरूप कहलाता है। दर्शनसापेक्ष द्रव्य दर्शनरूप कहलाता है। अनन्तगुगासापेक्ष द्रव्य अनन्तगुणरूप कहलाता है । इसीप्रकार द्रव्य के और भी अनेक विशेषण हैं, जिन्हें द्रव्य में नय और प्रमाण के द्वारा सिद्ध किया जा सकता है।
शंका :-हे प्रभो ! यदि गुरण-पर्याय का पूज द्रव्य है तो गुण के लक्षण द्वारा गुण को जाना और पर्याय के लक्षण द्वारा पर्याय को जाना, फिर द्रव्य तो कोई वस्तु नहीं रही। इसप्रकार गया और पर्याय ही कहे गये । जिस प्रकार आकाशकुसुम कथनमात्र है, उसीप्रकार द्रव्य का स्वरूप भी कथनमात्र हुआ । इस द्रव्य का स्वरूप तो गुरण' और पर्याय ही हैं, और कुछ नहीं; अतः गुण और पर्याय ही हैं, द्रव्य नहीं ?
समाधान :- जो स्वभाव है, वह स्वभाववान से उत्पन्न है । यदि स्वभाववान न हो तो स्वभाव भी नहीं हो सकता। जिसप्रकार अग्नि न हो तो उष्णस्वभाव भी नहीं
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वन्य ]
हो सकता और यदि सुवर्ण न हो तो पीत, चिक्कण, भारी आदि स्वभाव भी नहीं हो सकते । अतः गुगा और पर्याय द्रव्य के प्राश्रय से रहते हैं।
तत्त्वार्थसूत्र में कहा है -
'द्र श्रिया निर्गुणा गुस्सा :' अर्थात् द्रव्य के आश्रय से गुरग रहते हैं, लेकिन गुगा के आश्रय से गुरुग नहीं रहते ।
इसका दृष्टान्त दिया जाता है :
जैसे एक गोलो बीस प्रौषधियों से बनाई गई है, वे बीसों औषधियाँ गोली के पाश्रय से रह रही हैं । बीसों औषधियों का एकरस गोली नाम से कहा जाता है । यद्यपि गोली में बीसों ही पौषधियां अलग-अलग स्वाद को धारण करती हैं। तथापि यदि गोली के भाव (स्वरूप) को देखा जावे तो ज्ञात होगा कि उस गोली से किसी औषधि का रस अलग नहीं है । उन बीसों में से प्रत्येक रस गोली के भाव (स्वभाव) में स्थित है, उन बीसों औषधियों के रसों का जो एक पुज्ज है, उसी का नाम गोली है ।
ऐसा कथन करने से यद्यपि भेदविकल्प-सा पाता है, परन्तु एक ही समय बीसों औषधियों के रसों का भाव (स्वभाव) ही एक गोली है। उसीप्रकार अलग-अलग प्रत्येक गगा अपने-अपने स्वभाव को लिए रहता है । किसी भी गुण का भाव किसी भी दूसरे गुग्ग के भाव से नहीं मिलता। जैसे ज्ञान का भाव दर्शन से नहीं मिलता
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१८]
[विधिसास और दर्शन का भाव ज्ञान से नहीं मिलता; इसीप्रकार : अनन्तगुण हैं, फिर भी कोई गुरण किसी दूसरे गुरण से नहीं मिलता । सभी गुणों का एकान्तभाव (एकरूपभाव, तादात्म्यभाव) चेतना का पुञ्ज द्रव्य है।
यदि गुणी के बिना गुण मात्र को माना जावे तो माकास के भी फूल होने लगेंगे । गुरपी के बिना गुण कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते ।
ज्ञान को एक गुण माना गया है, लेकिन यदि द्रव्य के बिना ज्ञान को ही बस्तु मान लिया जावे, तब तो ज्ञान वस्तु कहलाने लगेगा और इसप्रकार अनन्त गुरण अनन्त वस्तुएं कहलाने लगेंगी, जो सिद्धान्त के विपरीत होगा; क्योंकि ऐसा है नहीं । सभी गुणों की आधारभूत जो एक वस्तु है, उसी को द्रव्य कहते हैं ।।
शंका :- यह द्रव्य वस्तु है या वस्तु की अवस्था है ?
समाधान :- सामान्य और विशेष का जो एकरूपभाव (तादात्म्यभाव) है, वही वस्तु का स्वरूप है। द्रवीभूत गुण के कारण ही द्रव्य को 'द्रव्य' नाम मिलता हैं, अतः वस्तु की अवस्था द्रव्यत्व के द्वारा द्रव्य रूप हुई है। अतः वह वस्तु ही है। विशेषण के कारण ही विशेष संज्ञा होती है । स्याद्वाद में विरोध नहीं होता । वस्तु की सिद्धि ... नयसापेक्ष है।
कहा भी है :
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द्रव्य ]
[ १६. "मिथ्यासमहो मिथ्या चेत् न मिथ्यंकरन्तताऽस्ति नः ।
निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥१ सामान्यार्थ :- मिथ्यारूप एकान्तो का समूह मिथ्या है, वह मिथ्या-एकान्तसा हमारे (स्याद्वादियों के) यहां नहीं हैं; क्योंकि निरपेक्षनय मिथ्या हैं, वे सम्यक नहीं हैं; किन्तु जो सापेक्षनय हैं, वे ही सम्यक हैं और बस्तु की सिद्धि के के लिए अर्थक्रियाकारी हैं।"
अतः द्रव्य का यह कथन सिद्ध हुना। इसके पश्चात् गुरगाधिकार में गुरण का कथन किया जावेगा।
१. थीसमन्तभद्राचार्य, : देवागमस्तोत्र, कारिका १०८ २. यद्यपि यह सामान्यार्थ मलग्रन्थ में नही है, तथापि वारिका का सामान्य
शान कराने हेतु दिया गया है ।
प्रश्न :-स्वरूप अनुभव का विलास किसप्रकार कर?
उत्तर :- निरन्तर अपने स्वरूप की भावना में मग्न रहे, उपयोगद्वार में दर्शन-ज्ञान चेतनाप्रकाश को दृढ़ता से भाये । चिपरिणति से स्वरूपरस होता है । द्रव्य-गुण-पर्याय का यथार्थ अनुभव करना ही अनुभव है। अनुभव से पञ्च परमगुरू हुए व होंगे- यह अनुभव का ही प्रसाद है। अरिहन्त और सिद्ध भी अनुभव का प्राचरण करते हैं । अनुभव में अनन्त गुणों का सम्पूर्ण रस पा जाता है ।
__~.. पति दीपचन्दजी शाह अनुभवप्रकाश, पृष्ठ ३
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गुरग 'द्रव्यं द्रव्यात गुण्यन्ते, ते गुणा उच्चन्ते ।' अर्थात् जो द्रव्य को दूसरे द्रव्यों से पृथक बताते हैं, उन्हें गरण कहते हैं । गुरणों के द्वारा द्रव्यों की पथकता का ज्ञान होता है 1 जैसे चेतनागुण के द्वारा जीव जाने जाते हैं।
अस्तित्वगुरण एक ऐसा गुण है, जो साधारण गुण होने से सब में पाया जाता है। महासत्ता की विवक्षा से अवान्तर सत्ताय होती हैं, परन्तु वे सब अपने-अपने अस्तित्व सहित है।
इनमें एक स्वरूपसता भी है, जिसके तीन प्रकार हैं:द्रव्यसत्ता, गुणसत्ता और पर्यायसत्ता ।
इनमें से 'द्रव्य है --- यह द्रव्यसत्ता कहलाती है। द्रव्य का कथन पहले किया जा चुका है।
'गुण है'-- यह गुणसत्ता कहलाती है। गुण अनन्त हैं और सामान्यविवक्षा से अनन्त ही प्रथान हैं। विशेषविवक्षा से जिस गुण को प्रधानता दी जावे, वह मुख्य है।
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गुरण ]
[ २१ और शेष गौग हैं । अत: मुख्यता-गौणताभेद को विधिनिषेध भेद? समझना चाहिय ।
सामान्य और विशेष की विवक्षा से सभी की सिद्धि होती है । नय-विवक्षा और प्रमाण-विवक्षा का नाम युक्ति है। युक्ति प्रधान है. क्योंकि युक्ति से वस्तु की सिद्धि होती है । यही बात नयचक्र में कही गई है :-..
"तच्चारगोसएकाले समयं बुझेहि जुत्सिमग्गेण ।
रणो प्रारा हरणसमये १च्चक्खो प्ररण हवो जमा ॥२
सामान्यार्थ :- तत्त्व के अन्वेषण के काल में समय अर्थात् शुद्धात्मा को युक्तिमार्ग से अर्थात् नय-प्रमाण द्वारा प्रथम जानना चाहिये, किन्तु आराधना के समय में युक्ति की आवश्यकता नहीं होती; क्योंकि यहाँ तो शुद्धात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव है।"
अतः नय और प्रमारण का नाम युक्ति है - ऐसा समझना चाहिए । __ गणसत्ता में अनन्त भेद है, अतः गुरण के भी अनन्त भेद हैं । एक सूक्ष्मगुण की अनन्त पर्यायें होती हैं । ज्ञान सूक्ष्म है, दर्शन सूक्ष्म है और इसीप्रकार सभी गुणों को ऐसे ही सूक्ष्म जानना । सूक्ष्म की पर्यायें भी सूक्ष्म हैं । सूक्ष्म
५., जिस धर्म की मस्यता की जाय, उसकी विधि एवं जिन धर्मों की गोगता
की आव, उनका निषेध (गौणरूप से) समझना चाहिये । २. द्रव्यस्वभावप्रकाशकन यचक गाथा, २६ ३. 'प्रमाशानयात्मको युक्ति :'- ऐसा प्रास्त्र कावचन है।
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२२ ]
[ चिदविलास गुण को 'सूक्ष्म ज्ञान पर्याय' ज्ञायकतारूप अनन्तशक्तिमय नृत्य करतो है । एक ज्ञान के नृत्य में अनन्त गुणों का घाट जानने में आया है, अतः वह ज्ञान में है। अनन्त गुणों के घाट में एक-एक गुण अनन्तरूप होकर भी अपने-अपने लक्षण सहित है--यह कला है और प्रत्येक कला गुणरूप होने से अनन्तरूप को धारण करती है । प्रत्येक रूप जिनजिन रूप में होता है, उनको अनन्त सत्ताएँ हैं और प्रत्येक सत्ता अनन्त रस और एक-एक रस में अनन्त प्रभाव हैं।
इसप्रकार अनंतपर्यन्त ऐसे ही भेद समझना चाहिये ।
एक-एक गुण के साथ दूसरे गुणों को जोड़ने पर 'अनंत सप्तभङ्ग' सिद्ध होते हैं, इसका कथन करते हैं :
सत्तागुण ज्ञानगुण रूप है या नहीं ? यदि सत्तागरण को ज्ञानगणरूप माना जावे तो द्रव्याश्रया निगुणा गणाः " - इस सूत्र में जो एक गुरण में दूसरे गुण के रहने का निषेध किया गया है, वह असत्य हो जावेगा । और यदि सत्तागमा को जान गणरूप म माना जावे, तो वह जड़ हो जाये । अतः सप्तभङ्ग सिद्ध किये जाते हैं ।
(१) केवल चैतन्य का अस्तित्व है; जब ऐसा कथन किया जाता है, तब सनागुरण 'ज्ञानरूप' है।
(२) जब सत्ता को केवल सत्ताल क्षण से सापेक्ष और अन्य गुण निरपेक्ष लिया जाय, तब सत्तागुण 'ज्ञानरूप नहीं है।
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गुण ]
[ २३ (३) दोनों विवक्षामों से कथन करने पर सत्तागुण 'ज्ञानरूप भी है और नहीं भी है' !
(४) सत्तागरण की अनन्त महिमा वचन के अगोचर है, अतः 'प्रवक्तव्य' है।
(५) सत्तागुण को 'ज्ञानगणरूप है'- ऐसा कहने पर 'ज्ञानरूप नहीं है'- ऐसे निषध का अभाव होता है, अतः सत्ता 'ज्ञानरूप तो है, फिर भी अवक्तव्य है।
(६) सत्तागरण को 'ज्ञानरूप नहीं है'- ऐसा कहने से 'ज्ञानरूप है'- ऐसे विधि का प्रभाव होता है, प्रतः सत्तागमा 'ज्ञानरूप नहीं है, फिर भी प्रवक्तव्य है।
(७) सत्तागुरण 'ज्ञानगरण भी है और नहीं भी है',- ये दोनों विवक्षायें एक ही साथ नहीं कहीं जा सकतीं, अतः सत्तागरण 'ज्ञानरूप भी है, ज्ञानरूप नहीं भी है, फिर भी प्रवक्तव्य है।
इस प्रकार चैतन्य में सत्तागा और ज्ञानगरा के सात भङ्ग सिद्ध किये गये हैं। इसीप्रकार चैतन्य में सत्तागुण और दर्शन के भी सात भङ्ग सि करना चाहिए । इसीप्रकार वीर्य गुगा के साथ, प्रमेयत्वगग के साथ और ऐसे ही चेतना की अपेक्षा करके अनन्तगणों और सत्ता में सात-सात भङ्ग सिद्ध करने चाहिये । तब अनन्त सप्तभङ्गी सिद्ध हो जावेगी।
पश्चात् सत्तागण के स्थान पर 'वस्तुत्वगुण' को लिया
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२४ ]
[ चिद्विलास
जावे, तो उससे भी सत्तागुरग की भांति अनन्तबार सप्तभङ्ग सिद्ध होंगे। इसीप्रकार वस्तुत्वगुण की तरह एक-एक गुण के साथ अनन्तबार पृथक्-पृथक् सप्तभङ्ग सिद्ध करने चाहिये और इसोप्रकार अनन्तगुरग को सप्तभङ्गी सिद्ध को जाती है ।
जब सत्ता के स्थान पर अन्य गुणों को रखेंगे, तब केवल एक चेतना की विवक्षा से अनन्त भङ्ग सिद्ध होंगे, और जब ऐसे ही चेतना की भाँति एक-एक गुण को विवक्षा करके भङ्ग सिद्ध करेंगे, तब सब गुण पर्यन्त अनन्तानन्त भङ्ग एक-एक गुण के साथ सिद्ध होंगे ।
अतः यह चर्चा स्वरूप की रुचि प्रकट होने पर ही होती है और की जाती है । निज घर का निधान निजपारखी हो परखता है ।
सम्यक्त्वगुरण
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जीव में अनन्त गुण हैं, उनमें सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, चरित्र और सुख ये विशेषरूप हैं, प्रधान हैं । सम्यक्त्व का अर्थ है - वस्तु का यथावत् निश्चय होना, उसके अनन्त प्रकार हैं ।
१. यहाँ सम्यक्त्व के दर्शन अपेक्षा दो भेद, ज्ञान अपेक्षा दो भेद और चारित्र अपेक्षा दो भेद - इसप्रकार छह भेद समझाये हैं और इसीप्रकार अनन्त गुणों की अपेक्षा से सम्यक्त्व के प्रनन्स भेद होते हैं, अतः यहाँ सम्प्रक्व को अनत प्रकार का कहा है ऐसा समझना ।
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[ २५
सम्यक्त्वगुण ]
___ जो देखनेमात्र परिणमन है, उसे निर्विकल्प सम्यग्दर्शन कहते हैं। तथा जो स्वज्ञेय के भेदों को पृथकपृथक् और परज्ञेय के भेदों को पृथक-पृथक् देखता है, उसे सविकल्प सम्यग्दर्शन कहते हैं।
जो जाननेमात्र परिणमन है, उसे निर्विकल्प सम्यग्ज्ञान कहते हैं, तथा जो स्वज्ञेय भेदों को पृथक्-पृथक और परज्ञेय भेदों को पृथक-पृथक् जानता है, उसे सविकरूप सम्यग्ज्ञान कहते है।
जो प्राचरणमात्र परिणमन है, उसे निर्विकल्प सम्यकचरित्र कहते हैं और जो स्वज्ञ य का प्राचरण और परज्ञ य के त्याग का प्राचरण है, उसे सविकल्प सम्यक्चारित्र कहते हैं ।
इसप्रकार सम्यक्त्व के बहुत भेद हैं ।।
शंका :- सम्यक्त्व उपयोग है या नहीं ? यदि उपयोग है तो उसके जो बारह भेद किये गये हैं-पाठ ज्ञान के और चार दर्शन के, उनमें सम्यक्त्व को भी सम्मिलित क्यों नहीं किया गया ? और यदि वह उपयोग नहीं है तो उसमें प्रधान (प्रधानता) कैसे सम्भव होगी ?
समाधान :-- यह सम्यक्त्वगुण है, वह प्रधानगुण है, क्योंकि सभी गुरगों में सम्यक्पना इसी गुरण के कारण है । सभी गुणों का अस्तित्व इसी गुण के कारण है; क्योंकि सभी गुणों का निश्चय यथावस्थितभाव के द्वारा है ।
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[चिविलास निश्चय का नाम सम्यक्त्व है, उसमें व्यवहार, भेद या विकल्प नहीं, अशुद्धता भी नहीं । सम्यक्त्व तो निजअनुभवस्वरूप है । ज्ञान का जो जाननेमात्र परिणमन हुआ, वह सम्यक्त्व निर्विकल्प ज्ञान १ (निर्विकल्प सम्यग्ज्ञान) है, तथा 'ज्ञान ज्ञेय को जानता है' - ऐसा कथन असद्भूत उपचरित नब (उपचरित-असद्भूतव्यबहारनय) के द्वारा होता है।
जो दर्शन देखनेमात्र परिगमा, उसे निविकल्प सम्यग्दर्शन कहते हैं । स्वज्ञय को पृथक् देखता है और परज्ञ य को पृथक देखता है-ऐसा कथन भेद व्यवहार द्वारा किया जाता है । दर्शन असद्भूत-उपचरितनय (उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय) के द्वारा पर को देखता है ।।
अतः ज्ञान और दर्शन निविकल्परूप सम्यक् हुये और यह सम्यक्पना उनमें सम्यक्त्वगुण के द्वारा ही है । इसीप्रकार अनन्त गुणों में जो सम्यक्पना हुआ, वह सम्यक्त्वगुण की प्रधानता से ही हुमा है।
यद्यपि अनादि से यह जीव शुद्धद्रव्याथिकनय से केवलज्ञान प्रादि अनन्त गुणों को धारण किये हुये है। तथापि जबतक सम्यक्त्व प्रकट नहीं होता, तबतक अशुद्ध रहता है । काललब्धि को प्राप्त करके जब सम्यक्त्व प्रकट हुमा, तब सम्यक्त्व की शुद्धता से वे सभी गुण विमल (शुद्ध) हुए | अतः सर्वप्रथम सम्यक्त्वगुग निर्मल हुमा, पश्चात् अन्य गुण निर्मल हुए।
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स.नगुण ]
[२७ सिद्ध भगवान के भो सर्वप्रथम सम्यक्त्वगुण ही कहा है, अतः सम्यक्त्वगण प्रधान है। . उपधाम दर्शन और ज्ञानस्वरूप है । जहाँ सम्यग्दर्शन' कहा जाय, वहाँ सम्यक्त्व का ग्रहण करना और जहाँ सिर्फ 'दर्शन' ही कहा जाय, वहाँ देखनेरूप (सामान्य अवलोकनरूप) दर्शन ग्रहण करना । वस्तु का निश्चयरूप: अनुभवरूप सम्यक्त्व है, वही प्रधान है।
ज्ञानगरण जानपनेरूप ज्ञान निर्विकल्प है, वह स्वज्ञेय को जानता है । यदि ज्ञान परज्ञेय को निश्चय से जाने तो वह जड़ हो जाय अर्थात् 'पर' में तादात्म्यवृत्ति सम्बन्ध होकर एक हो जाय । अतः ज्ञान पर को निश्चय से तो नहीं जानता, उपचार से जानता है ।
शंका :- यदि ज्ञान 'पर' को उपचार से जानता है तो सर्वज्ञता कैसे सिद्ध होगी ? क्योंकि उपचारमात्र झूठ है, अतः सर्वज्ञता झूठी होकर कैसे सिद्ध हो सकेगी?
समाधान :- जैसे हम दर्पण में घट-पट देखते हैं । यहाँ जो देखना है, वह उपचार से देखना (दर्शन) नहीं है । ज्ञेय प्रत्यक्ष दिखते हैं, वे तो असत्य नहीं हैं; परन्तु
१. इस अध्याय के प्रारम्म में स्वय लेखक ने निर्विकल्प सम्यग्दर्शन और
सविकल्प सम्यग्दर्शन की चर्चा की है, जबकि वहाँ सम्यग्दर्शन से तात्पर्य सम्पमत्व से न होकर सामान्य-प्रवसोकन लक्षणवाले दर्शन से है।
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२०]
[ विविलास
विशेषता यह है कि उपयोगरूप ज्ञान में स्व- परप्रकाशक शक्ति है, साथ ही उसमें ऐसा प्रखण्ड प्रकाश है, जो अपने स्वरूप के प्रकाशन में निश्चल व्याप्य व्यापकभाव से लीन रहता है। ज्ञान में पर का प्रकाशन तो है, परन्तु व्यापकरूप एकता नहीं; अतः 'उपचार' संज्ञा है, लेकिन वस्तु की शक्ति उपचरित नहीं होती ।
इसी का विशेष वर्णन आगे करते हैं ।
कुछ मिथ्यावादी ऐसा मानते हैं कि ज्ञान में जो शेय का जानपना है, वही उसकी प्रशुद्धता है । तथा उस शेय का जानपना जब मिढेंगा, तब ज्ञान की अशुद्धता मिटेगी !
यह मान्यता उचित नहीं, क्योंकि ज्ञान में ऐसी स्व-परप्रकाशकता अपने सहज स्वभाव से है, वह अशुद्धभाव नहीं है । अरूपी आत्मप्रदेशों में प्रकाशमान लोक और अलोक के आकाररूप होकर उपयोग मेचक ( अनेकाकार) हुआ है । मही कहा है :
"नीरूपात्मप्रदेश प्रकाशमान लोकालोका कार मेचकोपयोग लक्षणा स्वच्छत्वशक्तिः, १
सामान्यार्थ :- अमूर्तिक आत्मा के प्रदेशों में प्रकाशमान लोक - अलोक के आकाररूप मेचक उपयोग जिसका लक्षण है, वह स्वच्छत्व सक्ति है ।"
१. समयसार गरिशिष्ट ११वीं स्वच्छ शक्ति
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[| २६
शान गुण ]
जिसप्रकार दर्पण में घट-पट दिखाई दें तो दर्पण निर्मल है, और न दिखाई दें तो वह मलिन है। उसीप्रकार जिस ज्ञान में सकल ज्ञेय प्रतिभासित होते हैं, वह निर्मल है
और जिसमें प्रतिभासित नहीं होते, वह मलिन है । सान अपने द्रव्यप्रदेशों की अपेक्षा ज्ञेय में प्रवेश नहीं करता, तन्मय नहीं होता | यदि तन्मय हो तो ज्ञेय का आकार नष्ट होने पर ज्ञान भी नष्ट हो जाये ? अतः द्रव्य की अपेक्षा ज्ञेयव्यापकता नहीं है । ज्ञान की एक 'स्व-परप्रकाशक' नामक ऐसी शक्ति है कि उस शक्ति को पर्याय द्वारा वह ज्ञेय को जानता है ।
शंका :- ज्ञानमात्र आत्मवस्तु का स्वरूप है – इसके सम्बन्ध में चार प्रश्न उत्पन्न होते हैं । प्रथम प्रश्न यह है कि ज्ञान ज्ञेय के आश्रित है या अपने आश्रित ? द्वितीय प्रश्न यह है कि ज्ञान एक है या अनेक ? तृतीय प्रश्न यह है कि ज्ञान अस्तिरूप है या नास्तिरूप ? चतुर्थ प्रश्न यह है कि ज्ञान नित्य है या अनित्य ?
समाधान :- (१) जितनी भी वस्तुएं हैं, वे सभी द्रव्य-पर्यायरूप हैं। अतः ज्ञान भी द्रव्यपर्यायरूप है । द्रव्यरूप निर्विकल्प ज्ञानमात्र बस्तु है, तथा पर्याय मात्र स्वज्ञेय तथा परज्ञेय को जानती है । ज्ञान की पर्याय ज्ञेय की पर्याय के आकारवाली होने से ज्ञान ज्ञेय के प्राकारवाला है तथा वस्तुमात्र अपने आकारवालो है।
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[ चिदविलास
पर्यायमात्र के कथन से ज्ञान 'अनेक' है और
३० ]
( २ ) वस्तुमा 'एक' है ।
( ३ ) पर्यायमात्र की अपेक्षा से ज्ञान 'नास्तिरूप' है, और वस्तुमात्र 'अस्तिरूप' है ।
( ४ ) ज्ञान पर्यायमात्र की अपेक्षा से 'अनित्य' है और वस्तुमात्र 'नित्य' है ।
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ऐसा समाधान करना 'स्याद्वाद' है, वस्तु का स्वरुप ऐसा ही है ।
ज्ञानवस्तु अपने अस्तित्व की प्रपेक्षा चार भेद सहित है । ज्ञानमात्र जीव स्वद्रव्य की अपेक्षा अस्तिरूप है, स्वक्षेत्र की अपेक्षा अस्तिरूप है, स्वकाल की अपेक्षा अस्तिरूप है और स्वभाव की अपेक्षा अस्तिरूप है। इसी प्रकार वह परद्रव्य की अपेक्षा नास्तिरूप है, परक्षेत्र की अपेक्षा नास्तिरूप है, परकाल की अपेक्षा नास्तिरूप है और परभाव की अपेक्षा नास्तिरूप है। ज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, ज्ञेय में नहीं और ज्ञेय के ज्ञान में नहीं ।
अपने निजलक्षण की अपेक्षा से एवं अन्य गुण लक्षण की निरपेक्षता से ज्ञान की संज्ञा, संख्या, लक्षरण और प्रयोजनता ज्ञान में है; अन्य ( गुण ) में नहीं है तथा अन्य गुरप की संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजनता अन्य गुरण में है, ज्ञान में नहीं है ।
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शान के सात भेद ]
[ ३१ ज्ञान के सात भेद
उस ज्ञान के विशेष भेद लिखे जा रहे हैं, क्योंकि विशेषज्ञान से विशेषसुख प्राप्त होता है। ज्ञान और आनन्द की समीपता है, इसीलिए ज्ञान के सात भेद कहे जा रहे हैं । बे भेद इसप्रकार हैं :
(१) नाम (२) लक्षण (३) क्षेत्र (४) काल (५) संख्या (६) स्थानस्वरूप तथा (७) फल ।
(१) नाम :- ज्ञान का नाम ज्ञान क्यों है ? 'जानातीति ज्ञानम्, ज्ञायते अनेन वा इति ज्ञानम् ।'
जो जानता है, वह ज्ञान है अथवा जिसके द्वारा जाना जावे, वह ज्ञान है, इसीलिए ज्ञान का नाम 'ज्ञान' है । ज्ञान द्वारा जीव जानता है।
लक्षण :- ज्ञान का लक्षण सामान्य की अपेक्षा से निर्विकल्प है । वही स्व-परप्रकाशक है। विशेष कथन इस प्रकार है कि यदि ज्ञान को केवल स्वसंवेदक ही माना जावे, तो महादूषण हो जावेगा। स्वपद की स्थापना पर को स्थापना से ही होती है, पर की स्थापना की अपेक्षा निषेध कर देने पर स्व की स्थापना भी सिद्ध नहीं हो सकती । अतः ज्ञान की स्व-परप्रकाशक शक्ति मानने से सब सिद्धि होती है । इसमें धोखा या सन्देह नहीं है।
शंका :- ज्ञान अनन्त मुरगों को जानता है, अत: एक 'दर्शन' को भी जानता है । अतएव दर्शनमात्र को
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३२ ]
[ चिद्विलास
जानने के कारण एकदेश ज्ञान है या सर्वदेश ज्ञान है ? यदि सर्वदेश कहा जाय तो वह (ज्ञान) दर्शन को ही न जाने और यदि सभी गुणों को जाने तो बह एकदेश ही न सम्भवे । तथा ज्ञान के एकदेश होने की कल्पना नहीं की जा सकती है, क्योंकि वह केवलज्ञान में सम्भव नहीं ।
समाधान :- दर्शन में सर्वदर्शी शक्ति है, उसको जानते ही सबको जाना गया - एक तो यह न्याय है । युगपत् (एक साथ) सब गुणों को जाने, उसमें दर्शन भी जाना गया । युगपत् के जानने में विकल्प नहीं । एक ही गुण को निरावरण जानने से सभी गुणों को निरावरण जाने। जैसे एक आत्मा के असंख्य प्रदेश, प्रत्येक प्रदेश में अनन्त गुण और प्रत्येक गुण में असंख्य प्रदेश – सो एक प्रदेश निरावरण होते ही सभी प्रदेश निरावरण हो जाते हैं ।
जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है -- ऐसा आगम में कहा गया है । निराबरण एक दर्शन के जानने में सर्वदेश ज्ञान सिद्ध होता है।
१. मूल भाषा में छपी प्रति में यहाँ एकदेश के स्थान पर सर्वदेश शब्द का
प्रयोग है, परन्तु अनुवादित प्रति में एफदेश शब्द का प्रयोग है और बही सही प्रतीत होता है।
- सम्पादक
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ज्ञान के सात भेद ]
शंका :- दर्शन निराकार है. उसके जानने से ज्ञान भी निराकार होगा?
समाधान :- दर्शन गुण का देखनामात्र लक्षण है और वह सर्वशित्व शक्ति सहित है - यही दर्शन की विशेषता है, जिसे ज्ञान जानता है।
दूसरी विशेषता यह है कि ज्ञान की सबंज्ञत्व शक्ति से सबको जानने में दर्शन भी आ जाता है । यहाँ बहुत से गुणों का जानपना मुख्य हुआ, जिनके अन्तर्गत दर्शन भी श्रा जाता है, परन्तु ज्ञान उसरूप नहीं हो जाता । युगपत् जानने की शक्ति ज्ञान की है, अतः उसे जुदा विशेषण समझना चाहिये ।
जैसे किसी पुरुष ने ऐसा रस चखा, जिसमें पांच रस मिले हुए हैं। तब यह नहीं कहा जा सकता कि उस पुरुष ने मधुर रस चखा है, वैसे ही यह समझना चाहिये कि 'दर्शन' अनन्त गुणों के अन्तर्गत प्रा जाता है। अकेले 'दर्शन' की कल्पना नहीं की जा सकती – ऐसा जानना चाहिये ।
ज्ञान अपनी सत्ता की अपेक्षा सत्तारूप है, अपने सूक्ष्मत्व की अपेक्षा सूक्ष्मरूप है, अपने वीर्य की अपेक्षा अनन्त बलरूप है, अपने प्रगुरुलघुत्व की अपेक्षा प्रगुरुलघुरूप है। इसीप्रकार अनन्त गुणों के लक्षण ज्ञान में घटित होते हैं। ज्ञान त्रिकालवर्ती सर्व को एक समय में युगपत् (एक साथ) जानता है !
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३४ ]
[ निद्विलास
Arun
शंका :-- प्रात्मा को उसके भविष्य काल के प्रत्येक समय में परिणामों द्वारा जो सुख होना है, वह तो ज्ञान में आकर पहले ही प्रतिभासित हो जाता है, परन्तु नवीननवीन, समय-समय का जो स्वसंवेदन परिणति का सुख कहा गया है, वह कैसा है ?
समाधान :- ज्ञानभाव में प्रतिभासित जो भविष्यकाल में होनेवाले परिणाम हैं, वे जब व्यक्त होंगे तब सुखरूप होंगे । यहाँ परिणाम व्यक्त हुअा, उससे सुख है। चूंकि परिणाम एक समय तक ही रहते हैं, अतः उनसे होनेवाला सुख भी समयमात्र का होता है। ज्ञान का सुख युगपत् होता है और परिणामों का सुख समयमात्र का है अर्थात् समय-समय के परिणाम जब आते है, तब सुख व्यक्त होता है । भविष्यकाल के परिणाम ज्ञान में आए, परन्तु व्यक्त हुए नहीं, अतः परिणाम का सुख क्रमवर्ती है और वह तो प्रत्येक समय में नवीन-नवीन होता है । ज्ञानोपयोग यगपत है, वह उपयोग अपने-अपने लक्षणसहित है । अतः परिणाम का सुख नवीन है और ज्ञान का सुख युगपत् है ।
ज्ञान को शक्ति अन्वय और युगपत है, उस पर्याय की व्यतिरेकशक्ति (व्यक्तता) व्यापकरूप होकर अन्वयरूप हो जाती है । ज्ञान की शक्ति अन्वय और युगपत् है, लेकिन जिस समय वह परिणामद्वार में आती है, उससमय उसे 'परिणमित हुआ ज्ञान' कहते हैं । अथवा जब ज्ञान ज्ञान
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ज्ञान के सात भेद ]
[ ३५ रूप परिणमन करता है, तब व्यतिरेकशक्तिरूप ज्ञान होता है । अन्वय और व्यतिरेक परस्पर अन्योन्यरूप होते हैं, अतः परमलक्षण वेदकता में है और वेदकता परिणाम से है । तथा द्रव्यत्वगण के प्रभाव से परिणाम द्रव्य-गुणाकार होता है और द्रव्य गुण-पर्यायाकार होता है।
इसप्रकार ज्ञान के बहुत भेद सिद्ध होते हैं । ज्ञान का लक्षण 'जानपना' है - यह निश्चित हुया । इसका विस्तार और भी अनेक प्रकार से किया गया है ।
(३) क्षेत्र :- भेदविवक्षा से ज्ञान के असंख्यात प्रदेश कहे गए हैं और अभेदविवक्षा से ज्ञानरूप वस्तु का सत्त्वक्षेत्र जाननेमात्र है ।
(४) काल :- ज्ञान की जितनी मर्यादा है, उतना ही ज्ञान का काल है।
(५) संख्या :- ज्ञानमात्र वस्तु सामान्य है, अतः एक है। पर्याय की अपेक्षा अनन्त है । शक्ति की अपेक्षा भी अनन्त है । भेदकल्पना में ज्ञान जब दर्शन को जानता है, तब वह दर्शन का ज्ञान - ऐसा नाम पाता है और जब वह सत्ता को जानता है, तब वह सत्ता का ज्ञान - ऐसा नाम पाता है। इसप्रकार कल्पना करने पर ज्ञान के भेदों की संख्या है । निर्विकल्प अवस्था में ज्ञान एक है । यदि संख्या
१. मन्वय व्यतिरेकरूप होता है और व्यतिरेक अन्ययरूप होता है ।
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३६ ]
[ चिविलास
का विचार प्रदेशों को अपेक्षा किया जाय तो ज्ञान के असंख्यात प्रदेश हैं।
(६) स्थानस्वरूप :- ज्ञानमात्र वस्तु का स्थानक ज्ञानमात्र वस्तु में है, अतः ज्ञानमात्र वस्तु ज्ञानस्वरूप अपने स्थानक में है - यही ज्ञान का स्थानस्वरूप कहा जाता है । ज्ञान जब दर्शन को जानता है, तब दर्शन के जानने का ख्यानस्वरूप दर्शन का ज्ञान है- यह भेदकल्पना उत्पन्न होती है, इसे ज्ञाता मात्र जानता है।
(७) फल :- ज्ञान का फल ज्ञान ही है, क्योंकि एक वस्तु का फल अन्य वस्तुरूप नहीं हो सकता; वस्तु अपने लक्षण को नहीं त्यागती और एक गण में दूसरा गुण प्रवेश नहीं करता । अतः निर्विकल्प निजलक्षण ज्ञान ही ज्ञान का फल है । चूंकि ज्ञान अपने को स्वयं संप्रदान करता है, अतः उसका फल स्वभावप्रकाश है।
दूसरी अपेक्षा से ज्ञान का फल सुख कहा जाता है। बारहवें गणस्थान में मोह चला जाता है, परन्तु अनन्तसुख नाम तो अनन्त ज्ञान (केवलज्ञान) होने पर तेरहवें गुणस्थान में ही प्राप्त होता है। अतः ज्ञान के साथ जो आनंद है, वही ज्ञान का फल है । 'नास्ति ज्ञानसमं सुखम्'- ऐसा भी कहा गया है।
उपरोक्त ये सात भेद 'दर्शन' में भी लगा सकते हैं, 'वीर्य' में भी घटित किए जा सकते हैं और इसीप्रकार
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दर्शनगुण ]
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अनन्त गुरणों में भी सातों भेद घटित किए जा सकते हैं । यहां सिर्फ ज्ञान के ही भेद संक्षेप से कहे गए हैं ।
दर्शनगुण
जो देखता है, वह 'दर्शन' है अथवा जिसके द्वारा जीव देखता है, वह 'दर्शन' है । दर्शनशक्ति निराकार उपयोगस्वरूप है । 'निराकारं दर्शनं साकारं ज्ञानम्' - ऐसा कथन जिनागम में श्राया है ।
यदि दर्शन न हो तो वस्तु अदृश्य हो जावेगी और तब किसी भी वस्तु का ज्ञान नहीं होगा, तब ज्ञेय का प्रभाव हो जायेगा, प्रतः दर्शनगुण प्रधान गुरण है । 'सामान्यं दर्शनं विशेषं ज्ञानम्' - ऐसा भी कथन हैं ।
कुछ वक्ताओं (वादियों) ने सिद्धस्तोत्र की टोका की है, उन्होंने तथा कुछ अन्य वक्ताओं ने यह कहा है कि 'सामान्य' शब्द का अर्थ 'आत्मा' है। आत्मा का अवलोकन करे, वह दर्शन है और स्वपर का अवलोकन करे, वह ज्ञान है - ऐसा कहने से एक हो गुण स्थापित होता है, क्योंकि जिस दर्शन ने श्रात्मा का अवलोकन किया, उसी दर्शन ने पर का अवलोकन किया। इसप्रकार यदि एक ही गुण सिद्ध होगा तो दो प्रावरण सिद्ध नहीं हो सकेंगे । ज्ञानावरण और दर्शनावरण- इन दो आवरणों के क्षय होने से
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नमल
३८ ]
[घि विश्वास
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दो हो गुण सिद्ध भगवान के प्रगट होते हैं । इस कथन में कोई सन्देह नहीं । तथा अात्मा का अवलोकन हो दर्शन यदि कहा आवे तो सर्वदर्शित्व शक्ति का प्रभाव हो जावेगा। "विश्वविश्वसामान्यभावपरिगतात्मदर्शनमयी सर्वशित्वशक्तिः"
सामान्यार्थ : - समस्त विश्व के सामान्यभाव को देखनेरूप से परिणमित -ऐसे आत्मदर्शनमयी सर्वशित्वसक्ति है।"
ऐसा सिद्धांत का वचन समयसार शास्त्र की आत्मख्याति टोका में ४७ शक्तियों के वर्णन में सर्वशित्व शक्ति के विषय में आया है।
शंका :-- दर्शन को निराकार तो कहा है, लेकिन सर्वदशित्व शक्ति से समस्त ज्ञेयों को देखने से वह निराकार नहीं रहा।
समाधान :- गोम्मटसार शास्त्र में कहा है :"भावारणं सामण्णविसेसयारणं सरूयमेत जं । वण्णराहीसगहरणं जीवेग य सणं होदि ॥४८३॥
सामान्यविशेषात्मकपदार्थानां यत् स्वरूपमा विकल्परहितं यथा भवति तथा जीवेन सह स्वपरावभासनं दर्शन भवति । दृश्यन्ते अनेन दर्शनमात्रं वा दर्शनम् ।"
सामान्य विशेषमय समस्त पदार्थों का स्वरूपमात्र विकल्परहित जीवसहित स्व-पर के प्रवभासन को दर्शन कहा गया है।
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वर्शनगुण ]
३६ ]
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इस कथन में दोनों सिद्ध हुए। विकल्परहित स्वरूपमात्र के ग्रहण में तो दर्शन 'निराकार' सिद्ध हुआ और समस्त पदार्थों के ग्रहण में 'सर्वदर्शी सिद्ध हुमा; अतः यह कथन प्रमाण है।
इस कथन में यह विवक्षा लेनी कि जो अपना स्वरूपमात्र है, वही स्व है, वही सामान्य हुआ, अत: उसी को ग्रहण करना तथा जो गुरण-पर्याय आदि भेद हैं, उनके दर्शन की अपेक्षा पर कहना, क्योंकि निविकल्प स्वरूप के अतिरिक्त जो भी दूसरा भेद होगा, वही पर है, वही विशेष हुमा । यह सामान्य विशेष सर्व पदार्थों में है। तदात्मक अर्थात् सामान्यविशेषात्मक वस्तु के निर्विकल्प स्वरूपमात्र .. का जो अवभासन है, उसी को दर्शन कहते हैं । दर्शन के सात भेद
दर्शन के भी सात भेद हैं, उनका कथन करते हैं : -
(१) दर्शन का नाम दर्शन इसलिए है, क्योंकि वह देखता है।
(२) दर्शन का लक्षण देखना मात्र है । (३) दर्शन का क्षेत्र असंख्यात प्रदेश है । (४) दर्शन की स्थिति को दर्शन का काल कहते हैं।
(५) वस्तु एक तथा शक्ति और पर्यायें अनेक हैं - यही दर्शन को संख्या है ।
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४० 1
[चिद्विलास (६) वस्तु अपने स्थान में अपने स्वरूप को धारण करती है - यही दर्शन का स्थानस्वरूप है ।
(७) दर्शन का फल प्रानन्द है तथा वस्तुभाव के द्वारा इस दर्शन का जो शुद्ध प्रकाश है, वही फल है ।
इस प्रकार अनेक विवक्षायें हैं और वे सभी विवक्षा से प्रमाण हैं । इसप्रकार दर्शन का संक्षेपमात्र कथन किया गया है ।
चारित्रगुरण चारित्र प्राचरण का नाम है । जो प्राचरण करे या जिसके द्वारा आवरण किया जावे, उसे चारित्र कहते हैं । चारित्ररूप परिणाम द्वारा वस्तु का आचरण किया जाता है, अतः वही आचरण चारित्र है अथवा चरणमात्र (पाचरणमात्र) का नाम ही चारित्र है। यह निर्विकल्प है, वह निजाचरण हो है । पर का त्याग भी चारित्र का भेद है ।
द्रव्य में स्थिरता, विथाम और आचरण 'द्रव्याचरण' कहलाता है । गुण में स्थिरता, विश्राम और प्राचरण 'गुणाचरण' कहलाता हैं - इस की विशेषता यह है कि सत्तागण में परिणाम की स्थिरता ही सत्ता का चारित्र (सत्ताचरण) है।
शंका :- स्थिर का अर्थ अविनाशी है तथा परिणामों
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पारित्रगुण ]
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की प्रवृत्ति जो स्वरूप में प्राती है, वह चारित्र है, लेकिन परिणाम समयस्थायी (अस्थिर) है, अतः उससे चारित्र कैसे सिद्ध होगा?
समाधान : - ज्ञान-दर्शनस्वरूप में जो स्थिररूप से स्थिति होती है, वही 'चारित्र' है । चारित्र परिणाम की प्रवृत्ति स्वरूप में होते ही ज्ञान और दर्शन की स्थिति भी स्वरूप में होती है, तब उसे स्वरूप का लाभ होता है, फिर वही परिणाम वस्तु में लीन हो जाता है, वही उत्तर परिणाम का कारण है । परिणाम वस्तु के द्रव्य और गुण का आस्वाद लेकर वस्तु में ही लीन हो जाता है पोर तब उससे ही वस्तु का सर्वस्व प्रकट होता है। व्यापकता के कारण वस्तु के सर्वस्व की मूलस्थिति का निवास वस्तु है, बह भो परिणाम की लीनता में जाना जाता है।
अतः ज्ञान और दर्शन की शुद्धता परिणामों की शुद्धता से है । जैसे अभव्य के दर्शन और ज्ञान निश्चयष्टि से सिद्ध के समान हैं, परन्तु उसके परिणाम कभी सुलटते नहीं हैं, अतः उसके दर्शन और ज्ञान सदा अशुद्ध रहे पाते हैं। भव्य के परिणाम शुद्ध हो सकते हैं, अतः उसके दर्शन और ज्ञान भी शुद्ध हो सकते हैं - इस न्याय से परिणामों को निजवृत्ति (स्वसन्मुखता) होने पर जो स्वभावगुणरूप वस्तु में उपयोग की स्थिरता होती है, उसी का नाम चारित्र है।
परिणाम द्रव्य को द्रवित करता है, क्योंकि परिणाम
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४२ ]
[पिदविलास
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में द्रवत्वशक्ति है, अतः वह द्रव्य को द्रवित करता है। द्रव्य में द्रव्यत्वशक्ति के कारण वह गुण-पर्याय को द्रवित करता है । गुण में द्रवत्वशक्ति है, जिससे वह द्रव्य-पर्याय को द्रवित करता है । यह द्रव्यत्वशक्ति द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों में है ।
जब परिणाम गण में द्रवित होकर व्याप्त होता है, तब गुण के द्वारा परिणति होती है, तब गुण के अपने लक्षण का प्रकाश होता है । जब द्रव्यरूप परिणति हुई, तब द्रव्यलक्षण प्रगट हुआ। अतः परिणामों के बिना द्रवता नहीं और द्रवित हुए बिना व्यापकता नहीं, इसलिए व्यापकता के बिना द्रव्य का प्रवेश गण-पर्यायों में नहीं होता; अतः अन्योन्य सिद्धि भी नहीं हो सकेगी। अन्योन्य सिद्धि के निमित्त (कारण) होने से परिणाम हो सर्वस्व हैं, क्योंकि प्रात्मा में ज्ञान-दर्शन की स्थिति परिणाम के कारण होती है। अतः परिणाम हो चारित्र है।।
विश्रामस्वरूप में जो वेदकता होती है, वह विश्रामरूप चारित्र' है । गुण वस्तु को प्राचरण (परिणमन) करके प्रगट करता है, अतः वह 'पाचरणरूप चारित्र' है । चारित्र द्रव्य का सर्वस्वगुण है । ___ सत्ता के अनन्त भेद हैं, अनन्त गुणों के अनन्त सत्त्व हुए । जैसे ज्ञानसत्त्व, दर्शनसत्त्व । इसप्रकार अनन्त गुणों
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चारित्रगुण ] के सत्त्व जानो। उन अनंत सत्त्वों का आचरण, विश्राम और स्थिरताभाव चारित्र ने किया । __ शंका :- ज्ञान का 'चारित्र' (पाचरण) एकदेश है या सर्वदेश ?
समाधान :- ज्ञान एक गुण है, परन्तु ज्ञान में समस्त गुण जाने जाते हैं । ज्ञान में सर्वज्ञ-ज्ञानशक्ति है, अतः ज्ञान के आचरण से सबका आचरण है । ज्ञान के वेदन में सभी गुणों का वेदन होता है, यह 'ज्ञान विश्राम' हुमा । ज्ञान की स्थिरता होने पर सब गणों की स्थिरता ज्ञान की स्थिरता में समाविष्ट हो जातो है, अतः ज्ञान का चारित्र सर्वदेश सिद्ध हुग्रा ।
इसोप्रकार दर्शन का चारित्र और ऐसे ही समस्त गुणों के चारित्र समझना चाहिए ।
हूँ चैतन हूँ ज्ञान हूँ दर्शन सुख भोगता । हूँ परहन्त सिद्ध महान् हूँ हूँही हूँ को पोषसा ॥
मैं चेतन हूँ, मैं ज्ञान हूँ, मैं दर्शन हूँ, मैं सुख का भोक्ता हूँ। मैं प्रहन्त - सिद्ध महान हूँ, मैं ही मैं का पोषक हूँ।
पण्डित दोपधन्द शाह : प्रात्मावलोकन, पृष्ठ १५२
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I
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3.
पर्याय
ज्ञान का लक्षण 'जानपना' है। ज्ञान जानपनेरूप परिणमन करता है ।
शंका :- ज्ञान की सिद्धि जानपने से है या परिणमन
से ?
समाधान :- जानपने के बिना तो ज्ञान का अभाव होता है । 'जानपना' गुण है और 'परिणमन' पर्याय है । पर्याय के बिना गुण नहीं होता और गुण के बिना पर्याय नहीं होती । पर्याय के कारण गुण है, पर्याय और गुण का प्रविनाभावी सम्बन्ध है ।
शंका :- पर्याय क्रमवर्ती है और गुण अतः क्रमवर्ती पर्याय से सहभावी गुण की सकती है ?
सहभावी हैं. सिद्धि कैसे हो
-
ही होती है गुण की सिद्धि
समाधान :- गुण की सिद्धि पर्याय से यही स्पष्ट करते हैं । जिसप्रकार अगुरुलघु पर्याय के बिना नहीं होती, उसोप्रकार में समझना चाहिए। अगुरुलघु गुण का विकार ( विशेष
सब गुणों के विषय
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पर्याय !
कार्य) षड्गुणी बृद्धि-हानि है, यदि षड्गुणी वृद्धि हानि न हो तो अगुरुलघु गुण भी नहीं होगा । सूक्ष्मगुण की पर्याय न हो तो सूक्ष्मगुण भी नहीं होगा । सूक्ष्मगुण की पर्याय ज्ञानसूक्ष्म और दर्शनसूक्ष्म हैं । अतः 'पर्याय' साधक (साधन) है और 'गण' सिद्धि (साध्य) है ।
शंका :- षड्गुणी बृद्धि हानि का स्वरूप क्या है ?
समाधान :- सिद्ध भगवान को दृष्टान्त बनाकर षड्गुणी वृद्धि-हानि का स्वरूप कहते हैं।
जैसे सिद्ध परमेश्वर अपने शुद्ध सत्तास्वरूप में परिपामन करते हैं - ऐसा कहा है। वहाँ अनन्त गुणों में एक 'सत्तागुण' भी है । इसप्रकार अनन्तगुणों का अनन्तवांभाग सत्तागुण हुमा, उसके परिणमन को वृद्धि 'अनन्तभागवृद्धि' है । भगवान में असंख्य गुण की विवक्षा से जब यह कहा जाता है कि भगवान द्रव्यत्व गुणरूप परिणमन करते हैं, वहाँ द्रव्यत्वगुण असंख्य गुणों में से एक गुण होने के कारण असंख्यातवाँ भाग हुआ, उस परिणमन की वृद्धि 'प्रसंख्यातभागवृद्धि' है । सिद्ध के आठ गुण की विवक्षा से जब यह कहा जाता है कि सिद्ध सम्यक्त्वरूप परिणमन करते हैं, तब आठ गुणों में से एक गण होने के कारण संख्यातवां (पाठवाँ) भाग हुआ, उस परिणमन की वृद्धि 'संख्यातभागवृद्धि' है।
सिद्ध आठों गुणरूप परिणमन करते हैं, तब आठ गुणों
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[ चिविलास
के परिणमन की वृद्धि 'संख्यातगणीवृद्धि' है । सिद्ध असंख्य गुणरूप परिणमन करते हैं, तब असंख्यात गुणों के परिण मन की वृद्धि 'असंख्यातगुणीवृद्धि है। सिद्ध अनन्तगुणरूप परिणमन करते हैं, तब अनन्तगुणों के परिण मन की वृद्धि 'अनन्तगुणीवृद्धि' है।
इसप्रकार जब इस छह प्रकार की वृद्धि के कारण परिणाम वस्तु में लीन हो जाते हैं, तब छह प्रकार की 'हानि' कहलाती है और जब यह वृद्धि-हानि होती है, तभी अगुरुलघु गुण रहता है । इस अगुरुलघु गुण से वस्तु की सिद्धि होती है।
इसलिए 'गुण' की सिद्धि 'गुणपर्याय' से होती है 'द्रव्य' की सिद्धि 'द्रव्यपर्याय' से होती है और 'पर्याय' की सिद्धि 'द्रव्य और गुसरा' से होती है। 'द्रव्यपर्याय' की सिद्धि 'द्रव्य' से होतो हैं और 'गुणपर्याय' की सिद्धि गुण से होती है । द्रव्य से ही पर्याय उत्पन्न होती है, द्रव्य न हो तो परिणाम उत्पन्न न हो, क्योंकि द्रव्य परिणमन किये बिना द्रव्यरूप कसे हो सकता है ? अतः द्रव्य से 'पर्याय' को सिद्धि होती है।
ज्ञान गुण न हो तो जानपने रूप परिणमन कैसे हो सकता है ? गुण के द्वार से परिणति होती है । जैसे द्वार न हो तो द्वार में प्रवेश कैसे हो सकता है ? इसीप्रकार यदि 'गुण' न हो तो 'गुणपरिणमन' भी नहीं हो सकता । सूक्ष्मगुण न हो तो सूक्ष्मगुण की पर्याय कहां से हो सकती
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पर्याय ]
[ ४७
है ? इसीप्रकार सभी गुणों के विषय में जानना चाहिए । 'गुणपरिणति' गुणमय होती है ।
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शंका परिणति के गुण के द्वारा उत्पन्न होती है, यह गुण की है या द्रव्य की ? यदि गुण की है तो गुण अनन्त हैं, अतः परिणति भी अनन्त होनी चाहिए और यदि द्रव्य की है तो उसे 'गुणपरिणति' क्यों कहते हैं ?
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समाधान:- परिणमनशक्ति द्रव्य में है और द्रव्य गुण का पुञ्ज है, वह अपने गुणरूप स्वयमेव परिणमन करता है, अतः गुणमय परिणमते हुए द्रव्य को 'गुण-पर्याय' कहते हैं, इसलिये यह तो कहा जा सकता है कि जो द्रव्य की परिणति है, वही गुण की भी परिणति है, परन्तु यह परि
मनशक्ति द्रव्य से उत्पन्न होती है, गुण से नहीं । इसका प्रमाण तत्त्वार्थ सूत्र में दिया है - " द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा: " द्रव्य के आश्रय से गुण हैं, गुण के श्राश्रय से गुण नहीं । गुणपर्ययवद् द्रव्यम् " - यह भी कहा है तथा पर्यायवन्त द्रव्य को ही कहा है गुण को नहीं ।
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शंका :- यहाँ कोई प्रश्न करता है कि सूक्ष्मगुण की पर्याय ज्ञानसूक्ष्म है; इसीप्रकार सभी गुणसूक्ष्म हैं, परन्तु गुणों में यह सूक्ष्मता सूक्ष्मगुण की है अथवा द्रव्य की है ? यदि द्रव्य की है तो सूक्ष्मगुण की अनन्त पर्यायें क्यों कही
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४८ ]
[चिद्विलास गई है ? और यदि मूक्ष्मण को हैं तो उसे द्रव्य को परिणति क्यों कहा है ?
समाधान :- सूक्ष्मगुण के कारण द्रव्य सूक्ष्म है तथा द्रव्य अनन्त गुणों का पुञ्ज है, अतः द्रव्य सूक्ष्म होने से सभी गुण सूक्ष्म सिद्ध होते हैं। परन्तु यह जो परिणमनशक्ति है, वह द्रव्य में है, जिससे द्रव्य गुणलक्षणरूप परिणमन करता है।
शंका :- यहाँ पुनः प्रश्न है कि द्रव्य का स्वभाव क्रमाक्रमरूप कैसे कहा गया है ?
समाधान :- क्रम के दो भेद किये गये हैं :-- (१) प्रवाहम और (२) विष्कम्भकम ।
जैसे अनादि से काल का समयप्रवाह चला आ रहा है, वैसे ही द्रव्य में समय-समय उत्पन्न होने वाले परिणामों का प्रवाह चला आ रहा है - इसी को 'प्रवाहक्रम' कहते हैं । यह 'प्रबाहक्रम' द्रव्य के परिणाम में है – ऐसा सिद्धान्त प्रवचनसार से जानना चाहिये । .. 'विष्कम्भक्रम' गुण का है, गुणा चौड़ाई रूप हैं और प्रदेश भो चौड़ाई रूप हैं । प्रदेशों को क्रमशः गिनने पर वे असंख्य हैं। प्रदेशो का यह विस्तार क्रम गुण में है, अतः इसी को 'विष्कम्भकम' कहते हैं । अथवा गुणों को कम से कहा जावे
१. प्रवचनसार गाथा १६ की प्रमतचन्द्राचार्य कृत टीका
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गर्याय ]
तो दर्शन, ज्ञान इत्यादि विस्तार को धारण करते हैं; अतः इसकारणा भी 'विष्कम्भक्रम' कहते हैं ।
यहाँ प्रवाहक्रम द्रव्य के परिणाम में है, वह ( प्रवाह क्रम ) गुरण में नहीं; अतएव वह गुणपरिणति का प्रवाह नहीं है। गुण से तो विस्तारक्रम ही कहा गया है ।
द्रव्य की जो परिणति है, वह सब गुरण में हैं । आत्मा ज्ञानरूप परिणमन करता है और ज्ञान जाननेरूप परिणमन करता है - इसप्रकार लक्ष्य - लक्षण के भेद से परिणामभेद है । परन्तु यह तो नहीं माना जा सकता । किज्ञान की परिणति पृथक् है, और श्रात्मा की परिणति पृथक् है, क्योंकि ऐसा मानने से तो सत्त्व पृथक् हो जावेगा । सत्त्व के पृथक् हो जाने से वस्तु पृथक-पृथक् अनेक अवस्था धारण करके प्रवर्तन करने लगेंगो; जिससे विपर्यय होगा, वस्तु का अभाव हो जावेगा ।
शंका :- द्रव्य और गुरण की परिणति पृथक्-पृथक् मानने में क्या दोष हैं ? आत्मा और गुण की अभेदपरिणति है - ऐसा मानने पर यह कहना व्यर्थ होगा कि 'ज्ञान' जाननेरूप परिणमन करता है और 'दर्शन' देखनेरूप परिणमन करता है, क्योंकि प्रभेद में भेद उत्पन्न नहीं होता ?
[
と
समाधान :- द्रव्य में परिणामों की वृत्ति उत्पन्न होती है । द्रव्य अनन्त गुणों का पुञ्ज है । अतः यह
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५० ]
[ चिविलास
कह सकते हैं कि परिणामों को वृत्ति गुण से भी उत्पन्न होती है, क्योंकि द्रव्य और गुण के सत्त्व पृथक्-पृथक नहीं, बल्कि एक हैं ! गुण द्रव्यमय परिगमित होने से गुणमय परिणाम है । इसप्रकार वस्तु का परिणाम निर्विकल्प है। आत्मा ज्ञानरूप परिणमन करता है तो परिणाम जानने रूप होता है, अतः ऐसी विवक्षा जाननी चाहिये कि ज्ञान जाननेरूप परिणमन करता है। __शंका :- 'परिणाम' को वस्तु का सर्वस्व क्यों कहा गया है ?
समाधान :- परिणाम से वस्तु का अन्वय स्वभाव पाया जाता है । यदि न हो तो द्रव्य अन्वयी न हो । अनन्त गुणों के परिणमन बिना द्रव्य नहीं हो सकता । इसलिए वस्तु का सर्वस्वरूप जो परिणाम है, उससे वस्तु का वेदन करना वेदकता है ।
गण के परिणाम से गुरण के अस्वाद का लाभ होता है। द्रव्य के परिणाम से द्रव्य के आस्वाद का लाभ होता है ।
शंका :- पहले जो लक्ष्य और लक्षण का भेद बताया गया है, उसका कारण क्या है ?
१ वह वाक्य मूलमन्थ में इसप्रकार है - 'यात बस्तुवेदक में सर्वस्व
परिणाम सो वेदकता है।'
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कारण-कार्य सम्बन्ध ]
समाधान :-'लक्षण' के बिना 'लक्ष्य', यह नाम प्राप्त नहीं होता - ऐसा तो है; परन्तु परमार्थ से अभेदनिश्चय में - निर्विकल्प वस्तु में द्वैत की कल्पना का विकल्प कैसे संभव हैं ? एक अभेदवस्तु में सब (गुरगों) की सिद्धि है । जैसे चन्द्र और चन्द्रिका (प्रकाश) एक ही हैं। सामान्यरूप से वस्तु निर्विकल्प है, विशेषरूप से जब शिष्य को समझाते हैं, तब ज्यों-ज्यों शिष्य गुरु द्वारा समझाये जाने पर गुरण का स्वरूप जान-जानकर विशेषभेदी (भेदविज्ञानी) होता जाता है, त्यों-त्यों उस शिष्य को प्रानन्द की तरंगें उठती हैं और वह उसीसमय वस्तु का निर्विकल्प प्रास्वाद करता है । इसकारण से गुण-गुणी का विचार करना योग्य है ।
इसप्रकार गुरग का विशेष कथन किया - इस गुण के परिणामरूप उत्पाद-व्यय के द्वारा ही वस्तु की सिद्धि होती है।
कारण-कार्य सम्बन्ध
प्रथम ही सब सिद्धान्तों का मूल यही है कि वस्तु का कारण-कार्य जान लिया जाय । जितने भी जीव संसार से पार हुए हैं, वे सभी परमात्मा का कारण कार्य जानजानकर हो पार हुए हैं ।
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चिदविलास ]
तीनों कालों में जीव जिस परमात्मा का ध्यान करके मुक्त हुए हैं, उस परमात्मदशा का कारण-कार्य जिस जीव ने नहीं जाना तो उसने क्या जाना ? अर्थात् कुछ नहीं जाना, अतः कारण कार्य जानना ही चाहिए ।
कारण कार्य का स्वरूप क्या है, वह कहते हैं :"पुवपरिखामजुत कारणभाषेण घट्टदे दध्वं । उसरपरिणाम जुदं तं घिय फज्जं वयं हवेरिणयमा ॥"१
इस गाथा में यह बताया गया है कि 'पूर्वपरिणामयुक्त द्रव्य' कारण भावरूप परिणमित हुआ है और 'उत्तरपरिरणामयुक्त द्रव्य' कार्यभावरूप परिणमित हुआ है, क्योंकि उत्तर-परिणाम का कारण पूर्व-परिणाम है अर्थात पूर्वपरिणाम का व्यय उत्तर-परिणाम के उत्पाद का कारण है । जैसे मिट्टी के पिण्ड का व्यय घटरूप कार्य का कारण
शंका :- उत्तरपरिणाम के उत्पाद में क्या कार्य होता है ?
समाधान :- स्वरूपलाभ लक्षणसहित उत्पाद है, स्वभावप्रच्यवन लक्षएसहित व्यय है; अतः यह निःसंदेह जानो कि स्वरूपलाभरूप कार्य है। यह स्वरूपलामरूप कार्य प्रत्येक समय परमात्मा में हो रहा है, अतः सन्त
१ कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २२२ एवं २३०
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कारण-कार्य सम्बन्ध ]
[ ५३
पुरुष ऐसे कारण कार्य को परिणाम के द्वारा जानें; क्योंकि कारण-कार्य 'परिणाम' से ही होते हैं ।
वस्तु के उपादान के दो भेद हैं, अष्टसहस्री में भी कहा है :
"त्यतात्यक्तात्मरूपं यत् पूर्वापूर्वेण वर्तते । । कालत्रयेपि तद्रव्यमुपादानमिति स्मृतम् ॥१॥ यत्स्वरूपं त्यजस्येव यन्न त्यजति सर्दया । तन्नोपादानमर्थस्य क्षणिक शाश्वतं यथा ॥२॥"
अर्थ :- द्रव्य का जो त्यक्तस्वभाव (पर्याय रूप) है, वह परिणामरूप हैं और वह व्यतिरेकस्वभाव है; तथा जो प्रत्यक्तस्वभाव है, वह गुण रूप है और वह अन्वयस्वभाव है। द्रव्य में गुण तो पहले से ही विद्यमान हैं, वे ही कायम रहते हैं और परिणाम अपूर्व-अपूर्व होते रहते हैं। ये गरण और परिणाम द्रव्य के उपादान हैं।
द्रव्य परिणाम को त्यागता है, परन्तु गुण को सर्वथा नहीं त्यागता । अतः परिणाम 'क्षणिक-उपादान' है और गुण 'शाश्वत उपादान' है। इसप्रकार वस्तु उपादान से सिद्ध है।
शंका :- उत्पाद आदि जीवादि द्रव्यों से भेदस्वरूप सिद्ध होते हैं या अभेदस्वरूप ? यदि अभेदस्वरूप सिद्ध
१ अष्टसहस्री श्लोक ५८ की टीका
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५४ ]
[ चिबिकास
होते हैं तो जीवादि को त्रिलक्षणपना (उत्पाद व्यय-ध्रौव्यपना) न बन सकेगा और यदि भेदस्वरूप सिद्ध होते हैं तो सत्ताभेद होने से अनेक सत्ताओं का प्रसंग प्राप्त होगा, तब विपरीतता होगी?
समाधान :- लक्षण की अपेक्षा से तो उत्पाद आदि और जीवादि द्रव्यों में भेद है, परन्तु सत्ता की अपेक्षा भेद नहीं; अतः सत्ता से 'अभेद' और संज्ञा आदि की अपेक्षा 'भेद' समझना चाहिये।
वस्तु की सिद्धि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य - इन तीनों से होती हैं। प्राप्तमीमांसा में भी कहा है : --
घटमौलि सुवर्णार्थो नाशोत्पादस्थितिध्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ॥५६॥ पयोव्रतो न दयत्ति न पयोऽत्ति दधिवतः । अगोरसवतो नोभे तस्मात् तत्त्वं त्रयात्मकम् ।।६०॥
सामान्यार्थ :-- सोने के घट, सोने के मुकुट और केवल' सोने का इच्छुक मनुष्य क्रमशः घट के नाश होने पर शोक को, मुकुट के उत्पाद होने पर हर्ष को तथा दोनों अवस्थाओं में सोने की स्थिति बराबर बनी रहने से माध्यस्थ्यभाव को प्राप्त होते हैं तथा यह सब सहेतुक है। __ जैसे किसी पुरुष ने दूध का व्रत लिया हो कि 'मैं दूध ही पिऊँगा', वह दही का भोजन नहीं करता। जिसनेदही
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!
कारण-कार्य सम्बन्ध ]
[ ५५
का व्रत लिया हो कि में दही का भोजन ही करूंगा, वह दूध का भोजन नहीं करता और जिसने प्रगोरस का व्रत लिया हो कि 'मैं गोरस नहीं लूंगा', वह गोरस (दूध, दही प्रादि) का भोजन नहीं करता है । इसप्रकार तत्त्व तीनों को धारण किये हैं ।
दूध गोरस की पर्याय है और दही भी उसी की पर्याय है । एक पर्यायमात्र के ग्रहण करने से ही गोरस की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें सभी गोरस का ग्रहण नहीं हो सकता । वैसे ही केवल 'उत्पाद' से अथवा केवल 'व्यय' से अथवा केवल 'ध्रौव्य' से वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती, उसकी सिद्धि तो तीनों से ही होती है ।
जैसे कोई पाँच वर्णों वाला चित्र है, उसके एक ही वर के ग्रहण (जान) से समूचे चित्र का ग्रहण नहीं हो सकता । वैसे ही वस्तु तीनों (उत्पाद, व्यय और धौव्य ) भयो है, उनमें से किसी एक के ही ग्रहण से वस्तु का ग्रहण नहीं हो सकता ।
यदि वस्तु को केवल ध्रुव ही माना जावे तो दो दोष आते हैं । एक दोष यह है कि घ्रौव्य का ही नाश हो जावेगा । तथा उत्पाद और व्यय के बिना वह अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकेगा और अर्थक्रिया के बिना वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकेगी तथा षड्गुणी वृद्धि हानि नहीं हो
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५६
[ चिदविलास सकेगी और वस्तु अगुरुलघुरूप न हो सकेगी । अतः वस्तु कभी हल्की होने लगेगी और कभी भारी, तब वह जड़ हो जावेगी । अतः उसमें (जीवद्रव्य या वस्तु में) चिद्मवता नहीं रह सकेगी । तथा दूसरा दोष यह है कि पर्याय क्षणवर्ती होकर भो नित्य होने लगेगी, तब अध्र व पर्याय भी ध्रुव होगी।
यदि वस्तु में केवल उत्पाद ही माना जावे तो भी दो दोष लग गे । एक दोष तो यह है कि उत्पाद के कारणरूप व्यय का अभाव हो जावेगा एवं व्यय का अभाव होने से उत्पाद का भी अभाव हो जावेगा। तथा दूसरा दोष यह है कि असत् का भो उत्पाद होने लगेगा, तब आकाश के फूल को भी उत्पत्ति देखी जायगी; परन्तु यह कल्पना झूठी है।
इसीतरह वस्तु में केवल व्यय ही माना जावे तो भी दो दोष होंगे । एक तो यह है कि विनाश (व्यय) जिसका कारण है - ऐसे उत्पाद का भी प्रभाव हो जावेगा, तब उत्पाद का अभाव होने से विनाश भी नहीं हो सकेगा; क्योंकि कारण बिना कार्य नहीं हो सकता । तथा दुसरा दोष यह है कि सत् का उच्छेद (विनाश) हो जायगा । तब सत् का उच्छेद होने से ज्ञान आदि चेतना का भी नाश हो जायगा । अतः यह सिद्ध हुप्रा कि वस्तु विलक्षण ही है।
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सत्-उत्पाद और प्रसत्-उत्पाद ]
[ ५७ 'सत्-उत्पाद' और 'असत्-उत्पाद'
अब द्रव्य के 'सत्-उत्पाद' और 'असत्-उत्पाद' को :िखाते हैं :--
द्रव्य का यह सत्स्वभाव अनादिनिधन है । द्रब्य और गुण अन्वयशक्ति सहित हैं, अतः वे क्रमवर्ती पर्याय में व्याप्त होकर भी द्रव्याथिकनय से अपने वस्तु के सत्पने से जैसे हैं, वैसे ही उत्पन्न होते हैं । पर्याय की अपेक्षा से नया उत्पन्न होने का विधान है, परन्तु अन्वयशक्ति में (द्रव्य ) जैसा है, वैसे ही रहता है, तो भी दो नयों के द्वारा दो प्रकार के उत्पाद का कथन किया है।
पर्यायशक्ति में 'असत्-उत्पाद' बताया है, क्योंकि पर्याय नयी-नयी उत्पन्न होती रहती हैं, इसलिए अन्वय शक्ति से व्याप्त होने पर भी पर्यायाथिकनय से पर्याय में 'असत् उत्पाद' बताया है।
शंका :- क्या ज्ञेय का ज्ञान में बिनाश या उत्पाद होता है ? यदि उत्पाद होता है तो वह 'असत्-उत्पाद' है, क्योंकि पहले ज्ञय ज्ञान में नहीं पाया था । अतः ज्ञय के ज्ञान में उत्पन्न होने से उत्पाद कहा गया है या नयी ज्ञानपर्याय की अपेक्षा उत्पाद कहा गया है ?
समाधान :- द्रव्य की अपेक्षा से 'सत्-उत्पाद' है और पर्याय की अपेक्षा 'असत्-उत्पाद' है । ज्ञ य-ज्ञायक सम्बन्ध
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५८ ]
[ चिदविलास
उपचार से है, उपचार से जय ज्ञान में और ज्ञानज्ञेय में है । अतः वस्तुत्व (द्रन्य) की दृष्टि से 'सत्-उत्पाद' है और पर्याय की दृष्टि से 'असत्-उत्पाद है।
शंका :- पर्याय के बिना द्रव्य नहीं, अतः पर्याय से द्रव्य की सिद्धि होती है । जबकि पर्याय से 'असत्-उत्पाद' है, इसलिए 'असल-उत्पाद' से 'सत-उत्पाद' सिद्ध हुया । तथा चूंकि द्रव्य से पर्याय (उत्पन्न) होतो है, अतः 'सत् उत्पाद से 'असत्-उत्पाद' हुमा । फिर यह क्यों कहा जाता है कि पर्याय की अपेक्षा 'असत-उत्पाद' और द्रव्य की अपेक्षा 'सत्-उत्पाद' होता है ?
समाधान :-- पर्याय द्रव्य की कारण है और द्रव्य पर्याय का कारण है - यह तो कारण की बात हुई; परन्तु पर्याय का कार्य पर्याय से ही होता है और द्रव्य का कार्य द्रव्य से ही होता है । अतः पर्याय की अपेक्षा 'असत् उत्पाद' कार्य होता और द्रव्य की अपेक्षा 'सत्-उत्पाद' कार्य होता है । यह जो कारण-कार्य का भेद है, उसे विवेकी ही जानता है ।
जब पर्यायरूपी तरंग द्रव्यरूपी समुद्र से उठती है, तब विवे को जीव अानन्द की केलि (क्रीड़ा) में मग्न हुमा वर्तता है । परिणाम को प्रवृत्ति से ही द्रव्य-गुण की प्रवृत्ति
१ प्रवचनसार गाथा १११
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सत्-उत्पाद और प्रसत्-उत्पाद ]
है, वस्तु की स्थिरता है, विश्राम है, पाचरण है, वेदकता है, सुख का पास्वाद है, उत्पाद-व्यय हैं और षड्गणी वृद्धि हानि है । बस्तु के गुणों का प्रकाश प्रगट परिणाम ही करता है। विवेकी जीव को गुण-गुणी का विलास-रस निर्विकल्पदशा में आया है ।
प्रत्येक वस्तु अनन्त गुण का पुञ्ज है, बस्तु में गुण रहते हैं; अतः जब परिणाम निजवस्तु का बेदन करता है, तब वस्तु के अनन्त गुणों का भी वेदन होता है। इस प्रकार वह गुण और गुणी दोनों का वेदन करता है ।
जीववस्तु कसी है ? ___ जीववस्तु की 'चेतनाभावपुञ्ज'- इतनो ही सिद्धि है। है है तथा यदि कोई अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति, शुभ, अशुभ. भोग,
राग, द्वेष, मोह आदि चिद्विकार वो ही जीववस्तुरूप प्रतीति है करेगा तो विकार से जीव वस्तु की सिद्ध नहीं है; वह तो चेतन है का कलंकभाव है।
जीव वस्तु की 'मूल चेतनामात्र -- इतनी ही सिद्धि है। तथा सम्यक्त्व होना, एकाग्रता होना, यथाख्यात होना, अन्तरात्मा होना,सिद्ध भाव होना, केवलज्ञान होना, केवलदर्शन होना इत्यादि भावों के होने को कोई जीववस्तु जानेगा तो अरे ! वे प्रगट होने के भाव तो सर्व चेतना की अवस्था है।
-पंडित श्री दोपचन्द शाह : आत्मावलोकन, पृष्ठ ६६
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ક
सामान्य विशेषात्मक वस्तु और स्याद्वाद
व सामान्य विशेष का स्वरूप लिखते हैं :सामान्य में विशेष है और विशेष में सामान्य है । कहा भी है :
"निविशेषं हि सामान्यं भवेत् खरविषायवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषं तद्वदेव हि ॥ सामान्यार्थ :- वास्तव में विशेष रहित सामान्य और सामान्य रहित विशेष गधे के सींग के समान है ।
'वस्तु' - ऐसा कहना वस्तु का सामान्यकथन है और 'सामान्यविशेषात्मकं वस्तु' - यह वस्तु का विशेषकथन है । 'अस्ति इति सत्' - यह सामान्यसत् का कथन है, और नास्ति इति असत्' अर्थात् पर की अपेक्षा प्रभावरूप सत् - यह विशेषसत् है ।
देखनेमात्र दर्शन है - यह 'सामान्यदर्शन' है और जो स्व-पर सकल ज्ञेय को देखे - वह 'विशेषदर्शन' है । जाननेमात्र ज्ञान है - यह 'सामान्यज्ञान' है और जो स्व-पर
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सामान्य-विशेषात्मक वस्तु भौर स्याद्वाद!
सकलज्ञय को जाने - वह 'विशेषज्ञान' है । इसीप्रकार सभी गुणों में सामान्य और विशेष हैं ।
सामान्य और विशेष के द्वारा वस्तु प्रगट होती है। वही कहते हैं :- यदि वस्तु में सिर्फ सामान्य ही कहा जावे तो विशेष के बिना वस्तु का गुण नहीं जाना जा सकता और गुरण के बिना वस्तु नहीं जानी जा सकती। अतः सामान्य को विशेष प्रकट करता है और यदि सामान्य न हो तो विशेष कैसे उत्पन्न हो ? अतः विशेष को सामान्य प्रकट करता है । इसप्रकार वस्तु सामान्य-विशेषमय सिद्ध होती है।
शंका :- सामान्य अन्वयशक्ति को कहते हैं और विशेष व्यतिरेक शक्ति को कहते है - यह कैसे सिद्ध होता है ।
समाधान :- अन्वयशक्ति युगपत् सदा अपने स्वभावरूप रहती है, इसमें कोई विशेष नहीं । अपने स्वभाव के भाव में जो दशा है; वह वही है, निर्विकल्प है, अबाधित है । व्यतिरेक पर्याय नये-नये रूप धारण करती है, अतः वह विशेष है ।
इसप्रकार ये वस्तु की लक्षशणक्ति के 'सामान्य-विशेष हैं । सभी गणों के सामान्य और विशेष इसमें अन्तर्गभित होते हैं, यहो वस्तु का सर्वस्व है। सज्ञा प्रादि के भेद से इसके बहुत भेद हैं।
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• ६२ ]
[ चिदविलास
इसप्रकार अर्थ का विचार करने पर अन्वय-व्यतिरेक में सब आ जाते हैं । अनन्त गरा और द्रव्य 'अन्वय' में प्रा जाते हैं और पर्यायें 'व्यतिरेक' में आ जाती हैं । इसप्रकार अन्वय और व्यतिरेक में जब द्रव्य, गुण और पर्याय प्रा जाते हैं, तो उसमें सब आ जाते हैं।
अतः स्याद्वाद की सिद्धि सामान्य-विशेष के बिना नहीं हो सकती है।
यदि वस्तु को अभेदस्वरूप हो माना जावे तो भेद के बिना गुण की सिद्धि नहीं हो सकेगी और गुण के बिना गुणी की सिद्धि कौन कर सकता है अर्थात् कोई नहीं कर सकता; अतएव भेद और अभेद दोनों को मानने से ही वस्तु की सिद्धि होती है।
वस्तु की 'प्रवक्तव्यता' में उसका कुछ भी कथन किया नहीं जा सकता, वह वचन से अगोचर है। वह ज्ञानगम्य होकर प्रकट होती है। ऐसी सामान्य विशेषरूप वस्तु में अनन्त नय सिद्ध होते हैं ।
नयविवरण यहाँ अनन्तनयों का संक्षेप में वर्णन करते है :--
ज्ञानसामान्य के ग्राहक नय से ज्ञान को सामान्यरूप कहा जाता है और ज्ञानविशेष के ग्राहक नय से ज्ञान को
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संग्रहनय एवं नगमनय ]
विशेषरूप कहा जाता है । इसीप्रकार अनन्तगुरणों में अनन्त सामान्य-विशेष नयों के द्वारा भी सामान्य और विशेष दोनों भेद सिद्ध करना चाहिए । पर्यायसामान्य के ग्राहक नय से गुरणपर्याय, द्रव्यपर्याय, अर्थपर्याय, व्यञ्जनपर्याय, तथा एक गुण की अनंत विशेषपर्याों सभी को ग्रहण करना चाहिये । संग्रहनय
सामान्य संग्रहनय से सब द्रव्य परस्पर अविरुद्ध कहे जाते हैं और विशेष संग्रहनय से सब जीवद्रव्य परस्पर अविरुद्ध कहे जाते हैं। नैगमनय
नैगमनय तीन प्रकार का है :- भूतनगम, भाविनैगम, और वर्तमाननगम । आज दोपमालिका के दिन भगवान महावीर का मोक्ष हुमा - यह भूतनगम का उदाहरण है भावि तीर्थंकर को वर्तमान के रूप में मानना । भाविनेगम का उदाहरण है । तथा 'प्रोदनं पच्यते' अर्थात् भात पक रहा है – ऐसा कहना वर्तमाननैगम का उदाहरण है ।
नैगमनय दो प्रकार का भी होता है :- द्रव्यनगम और पर्यायनगम ।
द्रव्यनगम के दो भेद हैं :- शुद्धद्रव्यनगम और अशुद्ध द्रव्यनगम ।
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६४ ]
[ चिविलास
शुद्ध द्रव्यनेगम के चार भेद हैं :- शुद्ध द्रव्यऋजुसूत्र, शुद्धद्रव्यशब्द, शुद्धद्रव्यसमभिरूढ़ और शुद्धद्रव्य-एवंभूत । तथा अशुद्धद्रव्यनगम के भी चार भेद हैं :-- अशुद्धद्रव्यऋजुरूत्र, अशुद्धद्रव्यशब्द, अशुद्धद्रव्यसमभिरूढ़ और अशुद्धद्रव्यएवंभूत । इसप्रकार द्रव्यनगम के आठ भेद है।
पर्यायनगम के तीन भेद हैं:-- अर्थपर्यायनैगम, व्यञ्जनपर्यायनैगम और अर्थव्यञ्जनपर्यायनंगम ।
अर्थपर्यायनगम के तीन भेद हैं :- ज्ञानार्थपर्यायनगम, ज्ञयार्थपर्यायनैगम और ज्ञानज्ञ यार्थपर्यायनंगम । व्यञ्जनपर्यायनैगम के छह भेद हैं :- शब्द्रव्यञ्जनपर्यायनंगम, समभिरूढव्यञ्जनपर्यायनगम, एवंभूतव्यञ्जनपर्यायनेगम, शब्द-समभिरूढ़व्यञ्जनपर्यायनगम, शब्द-एवंभूतव्यजनपर्यायनैगम और समभिरूढ़-एवंभूतव्यञ्जनपर्यायनैगम । अर्थ-व्यञ्जनपर्यायनंगम तीन प्रकार का है :- शब्द-अर्थव्य जमपर्यायनैगम, समभिरूढ़-अर्थव्यञ्जनपर्यायनैगम और एवंभूत-अर्थव्यम्जनपर्यायनंगम । द्रव्याथिक नय
१. द्वयणुक आदि निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय से पुद्गल
१. यहाँ द्रव्याथिकनय को पुद्गलद्रव्य पर घटित किया है, जबकि अन्यत्र
शास्त्रों में जीव पर घटाया गया है ।
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द्रव्याथिकनय ]
[ ६५ के एक स्कंधमें जितने भी परमाणु हैं, वे सभी अविभागी परमाणु की भांति शुद्ध हैं।
२. उत्पाद-व्यय को गौणता करके सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्याथिकनय से स्कंध में जितने भी परमाणु हैं, सभी नित्य हैं।
३. भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय से स्कंध के सभी परमाणु अपने-अपने गुण-पर्याय से प्रभेद हैं । ___४. द्वयक प्रादि सापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय से स्कंध पादि को अशुद्धपुद्गलद्रव्य कहते हैं।
५. सत्ता को गौरण करके उत्पाद-व्ययग्राहक अशुद्धद्रव्याथिकनय से स्कंध के सभी परमाणु अनित्य हैं।
६. भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय से गुणी से गुण का भेद करते हैं।
७. स्वद्रव्यादिचतुष्टयग्राहक द्रव्याथिकनय से पुद्गलद्रव्य अस्तिरूप है।
८. परद्रव्यादिचतुष्टयग्राहक द्रव्याधिकनय से पुद्गलद्रव्य नास्तिरूप है।
६. अन्वयद्रव्याथिकनय से पुद्गल द्रव्य गुरण-पर्यायस्वभावसहित है।
१०. परमभावग्राहक द्रव्याथिकनय से पुद्गलद्रव्य मूत्तिक एवं जड़स्वभाववाला है।
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६६ ]
[ चिविलास
व्यवहारनय'
पर्यायार्थिकनय के अनेक भेदों तथा गुण के भेदों से व्यवहारनय का वर्णन करते हैं :
सामान्यसंग्रहभेदक व्यवहारनय से द्रव्य के जीव और जीव भेद किये जाते हैं । विशेषसंग्रहभेदक व्यवहारनय से जीव (द्रव्य) के संसारी श्रौर मुक्त ऐसे भेद होते हैं । शुद्धसंद्भूत व्यवहारनय से शुद्धगुण और शुद्धगुरणी का भेद किया जाता है और अशुद्धसद्भूत व्यवहारनय से मति श्रादि गुणों को जीव का कहा जाता है। इसप्रकार व्यवहार के अनेक भेद हैं 1
-
व्यवहार के द्वारा परररितिरूप जो राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि सब अवलम्बन है; वे सभी
१. आत्मावलोकन में भी इसका वर्णन किया गया है, उसमें निम्न गाथा से इसका प्रारंभ किया गया है.
--
जाय भावना सब्वे, सब्वे भेय कररणा च जोग खिराहि । सहाव वोकवणा व्यवहारं जिलभरि ॥१०॥
तं
नाम पाते हैं ।
जितने भी पर्याय के भाव होते हैं. वे सर्व व्यवहार नाम पाते हैं । जितने भी एक के अनेक भेद किये जाते है, वे सर्व व्यवहार बंध और मोक्ष भी व्यवहार नाम पाता है। संक्षेप में जितने भी स्वभाव से अन्य भाव हैं, वे सर्व व्यवहार नाम पाते हैं - ऐसा व्यवहार का कथन जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।
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व्यवहारनय ] हेय अर्थात त्यागने योग्य हैं । संसारी जीवों को एक चैतन्य आत्मस्वरूप में अवलम्बन करना चाहिये । स्वरूप सर्वथा उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य है । तथा वैराग्यतारूप संवर एकदेश उपादेय है । इसप्रकार जो उपदेश व्यवहार हैं; उसे हेय-उपादेयरूप जानना चाहिये ।
पर्यायभेद करने को व्यवहार कहते हैं । स्व (अपने) में स्वभाव-स्वभावो भेद कहना शुद्धब्यबहार है और स्वभाव से अन्यथा कहना प्रशद्धव्यवहार है । व्यवहारनय के सूचक कुछ उदाहरण
आकाश में समस्त द्रव्य रहते हैं । जीव और पुद्गल की गति में धर्मास्तिकाय का सहकार होता है और स्थिति में अधर्मास्तिकाय का सहकार होता है। सभी द्रव्यों के परिणामों के परिणमन में काल की वर्तना का सहकार होता है । पुद्गलादि की गति के द्वारा कालद्रव्य का परिमाण उत्पन्न होता है ।
ज्ञान में ज्ञय और ज्ञ य में ज्ञान होता है । ज्ञान-दर्शन की एक-एक शक्ति एक-एक स्व-पर ज्ञयभेद को जानती है । इसीप्रकार सम्पूर्ण भावों और द्रव्यों का परस्पर मिलाप होता है।
इसीप्रकार पर्याय के भाव और विकार उत्पन्न हुए, स्वभाव का नाश हुमा । पुनः स्वभाव उत्पन्न होकर विकार
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६८ ]
[ चिदविलास
नष्ट हुआ | जीव उत्पन्न हुआ, जीव मरा । पुद्गल स्कंधरूप हुआ या कर्मरूप हुन या अविभागी परमाणु हुआ । संसारपरिणति नष्ट हुई, सिद्धपरिणति उत्पन्न हुई । श्रावरण (ज्ञानावरणी और दर्शनावरणी) मोह ( मोहनीय ) और अन्तराय कर्म ही की रुकावट नष्ट हुई तथा प्रनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त वीर्य प्रगट हुआ ।
मिथ्यात्व गया और सम्यक्त्व हुआ । अशुद्धता गई, शुद्धता हुई । पुद्गल के द्वारा जीव बँधा, जीव का निमित्त पाकर पुद्गल कर्मरूप हुए । जीव ने कर्मों का नाश किया।
यह विनष्ट हुआ, यह उत्पन्न हुआ - इस प्रकार उत्पन्न होनेवाले और विनष्ट होने वाले भाव पर्याय ही के होने से सभी व्यवहार नाम पाते हैं ।
एक आकाश के लोक और अलोक - ऐसे भेद करना । काल की वर्तना के अतीत, अनागत और वर्तमान एवं अन्य भेद करना । एक ही वस्तु के द्रव्य, गुण और पर्याय के द्वारा भेद करना एक जीववस्तु के बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा - ऐसे भेद करना । एक द्रव्यसमूह को श्रसंख्यात भेदों के द्वारा तथा अनन्त प्रदेशों के द्वारा भेद करना । एक द्रव्य की एक पर्याय को अनन्त परिणामों की अपेक्षा से भेद करना । एक द्रव्यसमूह को प्रसंख्यातवें भाग
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व्यवहारनय के सूचक कुछ उदाहरण ]
[ ६६ अनन्य-प्रदेशों के द्वारा ही भेद करना । एक द्रव्य या एक वस्तु की विधि की अपेक्षा अस्ति तथा प्रविधि की अपेक्षा नास्ति करना।
एक ही वस्तु के द्रव्य, सत्त्व, पर्यायो, अन्वयी, अर्थ, नित्य इत्यादि नाम भेद करना । एक ही जीव के प्रात्मा, परमात्मा, ज्ञानी, सम्यक्त्वी, चारित्री, सुख, वीर्यधारी, दर्शनी, चिदानन्द, चैतन्य, सिद्ध, चित्, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, मतिज्ञानी और श्र तज्ञानी आदि के द्वारा भेद करना।
ज्ञान के जोधक ज्ञप्ति प्रादि नामभेद करना । सम्यक्त्व के आस्तिक्य, श्रद्धान, नियत, प्रतीति, तत्, एतत् आदि नामभेद करना । चारित्र के प्राचरण, विश्राम, समाधि, संयम, समय, एकान्तमग्न, स्थगित, अनुभवन, प्रवर्तन आदि नामभेद करना । सुख के आनन्द, रसस्वाद, भोगतृप्ति, संतोष आदि नामभेद करना । वोर्य के बल, शक्ति, उपादान, तेज और प्रोज आदि नामभेद करना । अशुद्ध के विकार, विभाव, प्रशुद्ध, समल, परभाव, संसार, आस्रव, रंजकभाव, क्षणभंग और भ्रम आदि नामभेद करना । इसीप्रकार अन्य एक-एक के नाममात्र से भेद करना ।
एक ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान पर्याय के द्वारा भेद करना। इसीतरह ज्ञान,
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७० ]
[ चिदविलास
दर्शन, चारित्र आदि प्रत्येक के कुछ जघन्य - उत्कृष्ट परिणति के द्वारा भेद करना । एक ही वस्तु के निश्चय और व्यवहार की परिणति से भेद करना । ये सभी भेदभावों से व्यवहार परिणति भेद करना ।
इसीप्रकार प्रत्येक के भी भेद किये जा सकते है और ये सभी भेदभाव व्यवहारनाम पाते हैं ।
+
गुण बँधा, गुणमोक्ष हुप्रा, द्रव्य बँधा, द्रव्यमोक्ष हुआ इसप्रकार सम्पूर्ण भावों को भी व्यवहार कहा जाता है । चिरकालीन विभावों के वश स्वभाव को छोड़ कर द्रव्य, गुण और पर्याय सभी को अन्यभावरूप कहना । जैसे ज्ञानो को प्रज्ञानो, सम्यक्त्वो को मिथ्यात्वी स्वसमयो को परसमयी और सुखी को दुःखी कहना । इसीप्रकार अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख और वीर्य को भी अन्य भावरूप कहा जा सकता है। ज्ञान को प्रज्ञान, सम्यक्त्व को मिध्यात्व, स्थिर को चपल, सुख को दुःख, उपादेय को हेय, अमूत्तिकको मूर्तिक, परमशुद्ध को अशुद्ध, एकप्रदेशी पुद्गल को बहुप्रदेशी, पुद्गल को कर्मत्व, एक चेतनरूप जीव को मार्गणा और गणस्थान आदि जितनी भी परिणतियाँ हैं, उन सबके द्वारा निरूपित करना व्यवहार है ।
तथा एक ही जीव को पुण्य, पाप, आस्रव, संवर,
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निश्चयनप ]
[ ७१
निर्जरा, बंध और मोक्ष की परिणतियों के द्वारा निरूपित करना व्यवहार है।
जितने भी वचनपिंड द्वारा कथन हैं, वे सब व्यवहार नाम को प्राप्त होते हैं। ऐसे-ऐसे आत्मा से जो अन्य हैं, वे सर्व व्यवहार नाम को प्राप्त होते हैं । एक सामान्य से - संक्षेप में व्यवहार का इतना अर्थ जानना । ___इतना ही व्यवहार जानना कि जिस भाव का वस्तु से अव्यापकरूप सम्बन्ध है, वस्तु के साथ व्याप्य-व्यापक एकमेक सम्बन्ध नहीं है; वह व्यवहारनाम को प्राप्त होता है - ऐसा व्यवहारभाव का कथन द्वादशांग में प्रचलित है, अतः जानना चाहिये।
इसप्रकार व्यवहार का स्वरूप कहा । निश्चयनय
"जेसिं गुणाग पचयं रिणयसहायं च प्रमेयभावं च । बच्चपरिणमणाधोरणं, तं पिच्छयं भरिणयं ववहारेण ।। येषां गुणानां प्रचर्म, निजपावं च प्रभेदभावं च । द्रव्यपरिणमनायोनं' तन्निश्चयं भगितं व्यवहारेण ॥
येषां गुणानां प्रचयम् एकसमूहं तं निश्चयम् । पुनः येषां द्रव्य-गण-
पर्यायाणां निजस्वभावं निजजातिस्वरूपं तं निश्चयम् । पुनः येषां द्रव्यगुणानां मुरगशक्तिपर्यायाणां यं अभेदभाव एकप्रकाशं तन्निश्चयम् । पुनः येषां द्रव्यारणां,
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७२ ]
[ चिद्विलास
ये द्रव्यपरिणामाधीनं तस्य द्रव्यस्य परिणाम प्राश्रयं भावं, तं निश्चयम् । एतादृशा निश्चयं व्यवहारेण वचनद्वारेण भणितं वर्णितम् ।"
जिन निज अनन्त गणों का जो परस्पर एक ही समहपुञ्ज है, उसे निश्चय का स्वरूप जानना चाहिये । एक निजद्रव्य के अनन्त गुण-पर्याय हो का जो केवल निजजातिस्वरूप है, उसे भो निश्चय का रूप जानना चाहिये । एक निजद्रव्य के अनन्त गुणों को ही एक कहना । गुणों की अनन्त शक्ति-पर्यायों का एक ही स्वरूप के द्वारा जो भाव प्रगट होता है, उसे भी निश्चय जानना चाहिये । और जिस द्रव्य के परिणामों के परिणमन के आधीन द्रव्य के भाव का उस हो द्रव्य के परिणामरूप परिणमना अन्य परिणाम रूप न परिणमना, उसे भी निश्चय जानना चाहिये । इस प्रकार ऐसे-ऐसे भावों को वचनों के द्वारा व्यवहार से निश्चयसंज्ञा कही है ।
भावार्थ :- (१) हे संत ! वह जो निज-निज अनन्त गुणों के मिलने से एक पिण्डभाव है, एक सम्बन्ध है, उसे ही गुणों का पुञ्ज कहते है, उसी गूणपुञ्ज को 'वस्तु' ऐसा नाम कहा है । यह जो वस्तुत्व है. वह गुणों के पुडज के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? अर्थात् इस गुणपुज को हो वस्तु कहते हैं। अत: इस वस्तु को निश्चयसंज्ञा जाननी चाहिये।
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निश्चय नय ]
(२) जिस-जिस स्वरूप को धारण उत्पन्न हुए हैं, वे सब अपने-अपने रूप को .. गुण का अन्य गुरग से जुदा रूप अपने में अनाद... रहता है। ऐसे पृथकरूप को ही 'निजजाति' कहत हैं । जो स्वयमेव अनादिनिधन है, वह रूप किसी अन्यरूप से नहीं मिलता और जो रूप है, वही गुण है और जो गुण है, वही स्वरूप है – ऐसा तादात्म्यलक्षण सम्बन्ध है । यदि कोई उस रूप को नास्ति (निषेध) का चिन्तवन करे तो गुण की ही नास्ति का चिन्तवन करेगा। अतः जो आप ही प्रापरूप है, उस रूप को निजजाति स्वभावरूप कहते हैं, इसप्रकार निजरूप की निश्चयसंज्ञा कही है।
(३) पुनः अनन्त-गुणों का एक पुरजभाव देखना चाहिये और पृथक्-पृथक नहीं देखना चाहिये । पुनः अनन्त शक्तिवान जो एक गुण है, उस एक गुण को ही देखना चाहिये, उन पृथक-पृथक् शक्तियों को नहीं देखना चाहिये, जघन्य-उत्कृष्ट भेदों को भी नहीं देखना चाहिये । उस एक शक्ति को हो देखना चाहिये - ऐसा जो अभेददर्शन या एक ही रूप का दर्शन है, उस अभेददर्शन को भी निश्चयसंज्ञा है।
(४) हे सन्त ! गुणों के पुञ्ज में कोई गुण तो नहीं है - यह तो निःसन्देह इसोप्रकार है, परन्तु उस भाव के
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10.-..--
७४ ]
[चिद्विलास
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तीन गुण (अंश)हैं - द्रव्य, गुण, और पर्याय । वह भाव गुणों का परिणाम धारण कर परिणमता है. वह भाव इन गुण के परिणाम से पृथक् नहीं है । वह उसो भावरूप परिणमन करता है, अतः अन्यत्र वह कहां प्राप्त होगा ?
जैसे पुद्गल वस्तु में स्कंध-कर्म-विकार किसी गुण से तो नहीं हैं, परन्तु उस पुद्गल वस्तु के परिणाम उस स्कंध-कर्म-विकार भाव के रूप में परिणमन करते हैं । अन्य द्रव्य के परिणाम इस कर्म-विकार भाव को धारण करके परिणमन नहीं करते । एक पुद्गल ही स्वांग धारण करके प्रवर्तन करता है, इसमें सन्देह नहीं ।
पुनः इस जीववस्तु के रंजक परिणाम संकोच, विस्तार, अज्ञान, मिथ्यादर्शन, अविरति आदि चेतनविकाररूप होकर परिणमन करते हैं।
इसप्रकार यह चेतन का विकारभाव उस चेतनद्रव्य के रिणाम ही में प्राप्त होता है, कभी अचेतन द्रव्य के के परिणाम में दिखाई नहीं देता, यह निःसंदेह है ।
अतः विकारभाव अपने-अपने ही द्रव्य के परिणाम में होता है, अपने-अपने द्रव्य के परिणाम के आश्रय से ही वह विकार पाया जाता है; अत: इसे भी निश्चय नाम प्राप्त होता है।
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निश्चयनय ]
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मूल गाथा में पाये 'च' शब्द से दूसरे भी निश्चयभाव जानने चाहिये :
(५) जितनी निजवस्तु की परिमिति (क्षेत्र को मर्यादा) होती है, उतनी परिमिति में ही द्रव्य, गुण और पर्याय व्याप्य-व्यापक होकर अपनी-अपनी सत्ता में अनादिअनन्त ही रहते हैं - यह भी निश्चय कहा जाता है।
(६) जो भाव जिस भाव का प्रतिपक्षी या बैरी है, वह उसी से बैर करता है, अन्यभाव से नहीं करता - यह भी निश्चय है।
(७) जिस काल में जैसो होनहार होती है, उस काल में वैसा ही होता है - यह भी निश्चय है।
(८) जिस-जिस भाव की जैसी-जैसी रीति के द्वारा प्रवर्तना होनेवाली हो, वे वैसी-वैसी रीति प्राप्त करके ही परिणमते हैं - यह भो निश्चय है ।
(8) एकमात्र स्वयं का जो स्वद्रव्य है, उ का नाम भी निश्चय है।
(१०) जो एक होने से एक है । जब एकरूप गुण को मुख्यता होती है, तब अन्य सभी जो अनन्त निजगुणरूप है, वे सब एक गुणरूप के भाव होते हैं। भावार्थ इस प्रकार है कि वर्णन करने के लिए तो एक पृथक गुणरूप लेकर कथन करते हैं; परन्तु वह एक गुणरूप हो सब का
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७६ ]
[ चिद्विभास रस है । जो यह मानते हैं कि वह एकरूप ही है, अन्यरूप नहीं तो अनर्थ उत्पन्न होगा।
जैसे एक ज्ञानगुण है, उस ज्ञान में अन्य गुण नहीं - ऐसा जिस पुरुष ने माना, उसने ज्ञान को चेतन रहित एवं अस्तित्व, वस्तुत्व, जीवत्व और अमूर्तत्व प्रादि सब गुणों से रहित माना, यह तो माना ही; परन्तु ऐसी हालत में वह ज्ञानगुण भी कैसे रहेगा, क्यों कर रहेगा ? अर्थात् वह ज्ञानरूप भी नहीं रह सकता । इससे यहां यह बात सिद्ध हुई कि जो एक-एक गुण का रूप है, वह सर्वस्वरस है। इसप्रकार सर्वस्वरस को भी निश्चय कहा जाता है।
(११) कोई द्रव्य किसी द्रव्य से नहीं मिलता, कोई गुरण किसी गुरग से नहीं मिलता, कोई पर्यायशक्ति किसी पर्यायशक्ति से नहीं मिलती - ऐसे जो अमिलभाव है, उसे भी निश्चय कहा जाता है ।
निश्चय का सामान्य अर्थ संक्षेप में इतना ही जानना चाहिए कि निज वस्तु का जो भाव व्याप्य-व्यापक एकमेक सम्बन्धरूप होता है, वही निश्चय है।
(१२) कर्ता भेद, कर्मभेद और क्रियाभेद - इन तीन भेदों में एक ही स्वभाव देखने में आता है। ये तीनों भेद एक हो भाव से उत्पन्न हुए हैं, अतः ऐसा एक भाव भी निश्चय कहा जाता है ।
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नयविवरण ]
[७७ (१३) स्वभाव गुप्त है तथा प्रगद परिणमन करता है, उसकी नास्ति नहीं है -- ऐसा जो अस्तित्वभाव है, वह भी निश्चय है।
इसप्रकार ऐसे-ऐसे भावों को ही निश्चयसंज्ञा जाननी चाहिए - ऐसा जिनागम में कहा गया है । ऋजुसूत्रनय
प्रत्येक समय में जो परिणति हो रही है, उसे 'सूक्ष्म ऋजुसूत्र' कहते हैं । तथा जो बहुत काल को मर्यादा सहित परिणति होती है अर्थात् जो स्थूल पर्याय है, उसे 'स्थूलऋजुसूत्र' कहते हैं । शब्दनय
जो दोष रहित शब्द का शुद्ध कथन किया जाता है, उसे 'शब्दन य' कहते हैं । जितने शब्द हैं, उतने ही नय हैं । समभिरहनय
अनेक अर्थों में जो एक अर्थ मुख्यता को प्राप्त होता है, उसे 'समभिरूड़' कहते हैं । जैसे 'गो' शब्द के अनेक अर्थ हैं, फिर भी वह 'गाय' के अर्थ में ही समभिरूढ़ है ।
१. मैया भगवतीदास कृत 'अनेकार्थं नाममाला' में निम्न दोहे द्वारा मो शब्द के अनेक अर्थ बताये हैं :
गो पर गो तर गो विसा, गो फिरना प्राकास । गो इन्द्री जल छन्द पुनि, गो ठानी जन भास ॥५॥
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७८ ]
[चिदविलास
उस सममिरूढ़ के अनेक भेद हैं। जैसे सादिरूढ़, अनादिरूढ़, सार्थिकरूढ़, प्रार्थिक रूड़, भेदरूढ़, अभेदरूढ़,' विधिरूढ, प्रतिषेधरूढ इत्यादि । एवंभूतनय ___ जैसा पदार्थ हो, वैसा ही उसका निरूपण करना 'एवंभूतनय' है । जैसे – इन्दतीति इन्द्रः, न शक्रः । (अर्थात् देवराज जब परमैश्वर्य में मग्न होगा, तब उसे इन्द्र ही कहा जावेगा, शक्र नहीं।) पर्यायाथिकनय
१. अनादिनित्यपर्यायाथिक, जैसे नित्य मेरु आदि । २. सादिनित्यपर्यायाथिक, जैसे सिद्धपर्याय ।।
३ सत्ता को गौण करके उत्पाद और व्यय को ग्रहण करनेवाले स्वभाव से उत्पन्न होनेवाला शुद्धपर्यायार्थिक, जैसे प्रत्येक समय में पर्याय विनष्ट होती हैं।
४. सत्तासापेक्ष स्वभाव अनित्य प्रशुद्धपर्यायाथिक, जैसे एक ही समय में पर्याय त्रयात्मक है।
५. कर्मों की उपाधि से निरपेक्ष स्वभाववाला नित्यशुद्धद्रव्य-पर्यायाथिक, जैसे सिद्धों की पर्यायों के समान संसारियों की पर्याय भी शुद्ध हैं ।
६. कर्मों की उपाधि से सापेक्ष हैं स्वभाव जिसका ऐसा
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नश्विरण का उपसंहार ]
[ ७६
नित्य प्रशद्ध पर्यायाथिक, जैसे संसारियों की उत्पत्ति और मरण होते हैं ।
इसप्रकार पर्यायाथिक के ६ भेद हैं। उपसंहार
ये नय पूर्व-पूर्व, विरुद्ध, महाविषयवाले और उत्तरउत्तर सूक्ष्म, अल्प, अनुकूल विषयवाले होते हैं ।
तेईज्ञानयन्त जीव
(सर्वया) करम के उदै केउ देव परजाय पावें,
भोग के विलास जहां करत अनूप हैं । महा पुण्य उदै केउ नर परजाय लहैं,
अति परधान बड़े होइ जग भूप हैं ।। केउ गति हीन पाय दुखी भये डोलत हैं,
राग-दोष धारि पदें भवकूप हैं। पुण्य-पाप भाव यह हेय करि जानत हैं. तेई ज्ञानवन्त जीव पावै निजरूप हैं ॥४।।
(दोहा) प्रतुल अविद्या वसि परै, धरै न प्रातमज्ञान । परपरणति में पगि रहै, कैसे ह निरवान ।।५।। - पंडित श्री दीपचन्द शाह : उपदेशसिद्धान्त रत्न
छन्द ४ व ५
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प्रात्मा की अनन्त शक्तियाँ नयों और प्रमाणों के द्वारा युक्तिपूर्वक मोक्ष का साधन होता है। जिससे अनन्त गुण शुद्ध होते हैं । सुख या मानन्द
अनन्त गुणों की उस शुद्धता का फल सुख है । जिसका वर्णन करते हैं :
बस्तु के देखने-जाननेरूप परिणमन से जो सुख या आनन्द होता है। वह अनुपम, अबाधित, अखण्डित, अनाकुल और स्वाधीन होता है । यह द्रव्य-गुण-पर्याय सभी का सर्वस्व है । जैसे सब उद्यम फल के बिना व्यर्थ होता है और फल के साथ कार्यकारी होता है, वैसे हो सुख कार्यकारी वस्तु है ।
इसप्रकार सुख का वर्णन पूर्ण हुआ।
१. समयसार के परिशिष्ट में प्राचार्य अमृतचन्द्रदेव ने ४७ शक्तियों का
निरूपण किया है । यहीं उनके आधार पर समी का तो नहीं, लेकिन कुछ शक्तियों का विस्तार से निरूपण किया गया है । प्राध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी ने उन ४७ गाक्तियों पर अध्यात्म रस से प्रोतप्रोत प्रवचन भी किये हैं, जो टेप प्रवचनों में उपलब्ध हैं । तथा उन टेप प्रवचनों के आधार पर लिखित 'प्रवचन रत्नाकर' के नाम से प्रकाशित ललानों में भी शीघ्र ही उपलब्ध हो सकेंगे। -सम्पावक
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जीवनशक्ति या जीवश्वशक्ति ]
जीवनशक्ति या जीवत्वशक्ति
यह श्रात्मा अनादिनिधन है और अनन्त गुण युक्त है, उसके एक-एक गुण में अनन्त शक्ति है ।
प्रथम जीवनशक्ति है । आत्मा को कारणभूत चैतन्यमात्र भाव को धारण करनेवाली जीवनशक्ति है । उस जीवनशक्ति के द्वारा जो जीवित रहता आया हैं, जीवित रह रहा है और जीवित रहेगा - उसे जीव कहते हैं । यह जीवनशक्ति चित्प्रकाशमण्डित द्रव्य में है, गुग में है और पर्याय में भी है; इसीकारण ये सब जीव हैं, फिर भी जीव एक है । यदि जीव तीन भेदों में रहने लगे तो वह तीन प्रकार का हो जायेगा, लेकिन ऐसा है नहीं ।
द्रव्य, गुण और पर्याय - जीव की अवस्थाएँ हैं और जीव तीनों रूप एक वस्तु है । जैसे गुण में अनन्त भेद हैं, वैसे जीव में नहीं हैं, जीव का स्वरूप प्रभेद है ।
[ -१
शंका :- यदि जीव प्रभेद रूप है तो भेद के बिना अभेद कैसे हुआ ? अनन्त गुण नहीं होते तो द्रव्य भी नहीं होता । इसीप्रकार पर्याय नहीं होती तो जीववस्तु भी नहीं होती । अतः द्रव्य, गुण और पर्याय का भेद कहने पर अभेद सिद्ध होता है ।
समाधान :- हे शिष्य ! भेद के बिना अभेद तो नहीं होता, परन्तु भेद वस्तु का भङ्ग है । अनेक प्रङ्गों से बनी हुई एक वस्तु होती है ।
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८३ ]
[पिविलास
जैसे एक नगर है, उसमें बहुत से मोहल्ले हैं और प्रत्येक मोहल्ले में बहुत से घर हैं, अत: पृथक-पृथक् अङ्गों द्वारा नगर नहीं हो सकता, सबकी एकतारूप ही नगर है । जैसे एक मनुष्य के अनेक अंग होते हैं, एक अंगरूप मनुष्य नहीं होता, सब अंगरूप मनुष्य होता है।
उसीप्रकार केवल द्रव्यरूप या केवल गणरूप या केवल पर्यायरूप ही जीव नहीं है, जीवबस्तु तो द्रव्य-गुण-पर्याय का एकत्व है । यदि एक ही अंग में जीव होने लगे तो ज्ञानजीव, दर्शनजीव - इसप्रकार अनन्त गुणों में अनन्त जीव होने लगेंगे । अतः अनन्त गुणों की पुञ्जरूप जीववस्तु है ।
शंका :- जब यहाँ चेतनाभाव कों जीव का लक्षण कहा है, फिर चैतन्यशक्ति (चितिशक्ति) का कथन पृथक् क्यों किया गया है ??
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१. समयसार परिशिष्ट की ४७ शक्तियों में पहली जीवनशक्ति और दूसरी
चितिशक्ति है । जीवत्वशक्ति के स्वरूप में 'चंतन्यमानभाव का घारण करना जिसका लक्षण है' - ऐसा कहा है । अर्थात् चितिशक्ति का अन्तर्भाव जोवत्वशक्ति में ही हो जाता है, फिर भी चितिशक्ति का पृषक कथन किया गया है - इस सन्दर्भ में ही यहां शंकाकार की शंका है । पण्डित दीपचन्दजी ने भी इसका समाधान प्राचार्य अमृतचन्द्र के द्वारा लिखित उन शक्तियों के विवेचन के माध्यम से बड़े ही सुन्दर ढंग से दिया है।
- सम्पादक
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जीवनशक्ति या जीवत्वशक्ति ]
समाधान :- जो चैतन्य शक्ति (चितिशक्ति) है, वह जड़ के प्रभाव स्वरूप है और ज्ञानचेतना प्रादि अनन्त चेतनामों को धारण किये है, अतः यदि अनन्त चेतनाओं की प्रकाशरूप चित्शक्ति होवे तो जीवनशक्ति रहती है । चेतना के प्रभाव में जीव का अभाव है। चेतना प्रकाशरूप है । अनन्त गुण-पर्यायरूप चतन्यप्राणों को धारण करके जीवनशक्ति सद जीवित रहती है । विशेषतः गुणतत्त्व, पर्यायतत्त्व और द्रव्यतत्त्व - इन तीनोंमय जीवतत्त्व को जीवनशक्ति प्रकाशित करती है, अतः जब चेतनालक्षण का प्रकाश सदा प्रकाशित रहता है, तब जीवत्व नाम प्राप्त होता है, क्योंकि जीववस्तु का लक्षण चेतना है ।
तथा चितिशक्ति को पृथक् कहने का कारण यह है कि चेतनशक्ति अपनी अनन्त प्रकाशरूप महिमा को धारण करती है - यही दिखाने के लिए उसे पृथक् कहा है । वास्तव में देखा जाये तो यह लक्षण जीवनशक्ति का ही है । जैसे सामान्यचेतना चेतनाओं की पुञ्जरूप है और विशेषचेतना ज्ञानचेतना, दर्शनचेतना आदि अनन्त रूप है । सामान्य चेतना से विशेषचेतना पृयक नहीं है। विशेष चेतना के बिना चेतना का स्वरूप जाना नहीं जा सकता । इसीप्रकार जीवन शक्ति से चेतनाभाव पृथक् नहीं है, परन्तु चेतनाभाव का विशेष कथन किए बिना जीवनशक्ति का स्वरूप जाना नहीं जा सकता ।
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[ चिपिलास
यह जीवनशक्ति अनादिनिधन अनन्त महिमा को धारण करती है, सब शक्तियों में सार है और सबका जीव (बीजरूप) है। ऐसी जीवनशक्ति को जानने से यह जीव जगत-पूज्य पद को प्राप्त करता है, अतः जीवन शक्ति को अवश्य जानना चाहिए। प्रभुत्वशक्ति
जो अखण्डित प्रतापवाली और स्वतंत्रता से शोभित है, उसे प्रभुत्वशक्ति कहते हैं । सामान्यदृष्टि से एकरूप वस्तु का प्रभुत्व शोभित होता है और विशेषदृष्टि से द्रव्य का प्रभुत्व पृथक् है, गुरण का प्रभुत्व पृथक् है और पर्याय का प्रभुत्व पृथक् है ।
शंका:- द्रव्य के प्रभुत्व से गुण और पर्याय का प्रभुत्व है तथा गुण और पर्याय के प्रभुत्व से द्रब्ध का प्रभुत्व है - ऐसा क्यों है?
समाधान :- द्रव्य से गुण और पर्याय हैं तथा गुण और पर्याय से द्रव्य है । द्रव्य, गुणो है और गुण, गुण है । गुणी से गुण की सिद्धि है और गुण से गुरणी की सिद्धि है।
अब विशेष प्रभुत्व का कथन करते हैं :द्रव्य का प्रभुत्व
द्रव्य में जो प्रभुत्व है, वह गुण और पर्याय के अनन्त प्रभुत्व सहित है, अखण्डित प्रताप सहित है । वह गुण और
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प्रभुत्वशक्ति ]
[८५ पर्याय को द्रवित करता है, अतः गुण और पर्याय के स्वभाव को धारण करके द्रव्य की अनन्त महिमारूप प्रभुत्व उसमें प्रकट करता है । अतः एक अचल द्रव्य का प्रभुत्व अनेक स्वभाववाले प्रभुत्व का कर्ता बनता है । इसप्रकार सब प्रभुत्वों का पुज द्रव्यप्रभुत्व है। गुरण का प्रभुत्व ___ यहाँ गुण के प्रभुत्व का कथन सत्तागुण के प्रभुत्व द्वारा करते हैं ।
द्रव्य का लक्षण सत्ता है । यह सत्तारूप लक्षण प्रखण्डित प्रतापवाला है और स्वतंत्रता से शोभित है । वह सामान्य-विशेष प्रभुत्व को धारण करता है। वहां सत्ता का सामान्यप्रभुत्व कहते हैं। सत्ता प्रखण्डित प्रताप को धारण करती है, स्वतंत्र शोभा को धारण करती है, स्वरूपरूप विराजमान रहती है । इसमें द्रव्यसत्त्व, गुणसत्त्व और पर्याय सत्त्व का विशेष कथन नहीं किया जाता । यही सत्ता का सामान्य प्रभुत्व है।
द्रव्यसत्त्व का प्रभुत्व :- द्रव्यसत्त्व के प्रभुत्व को ऊपर विशेष प्रभुत्व के अन्तर्गत द्रव्य का प्रभुत्व कहते समय कहा जा चुका है, वहीं से जान लेना चाहिये ।
सर्व गुणसत्त्व का प्रभुत्व :-- गुण अनन्त हैं, उनमें एक प्रदेश-त्वगुण है, उसका जो सत्त्व है, उसे 'प्रवेशसत्त्व' कहते
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८६ ]
[ घिहिलास अनन्त गुण अपनी महिमा को धारण करके विराजमान हैं और प्रत्येक गुण में अनन्त शक्ति-प्रतिशक्ति हैं । अनन्त महिमा को धारण करनेवाली प्रत्येक शक्ति की अनन्त पर्यायें हैं और वे सब प्रत्येक प्रदेश में हैं और ऐसे असंख्यात प्रदेश अपने अखण्डित प्रभुत्व को धारण करके अपनी प्रदेशसत्ता के आधार से हैं । अतः प्रदेशसत्त्व का प्रभुत्व सभी गुणों के प्रभुत्व का कारण है।
सूक्ष्मसत्ता का प्रभुत्व भी अनन्त गुणों के प्रभुत्व का कारण है । यदि सूक्ष्मगण न हो तो सभी द्रव्य स्थूल होकर इंद्रियग्राह्य हो जावेंगे और तब वे अपनी अनन्त महिमा को धारण न कर सकेंगे, अतः सब गुरणे अपनी महिमा सहित सूक्ष्म सत्ता के प्रभुत्व से हैं । ज्ञान का सत् सूक्ष्म है, अत: इन्द्रियग्नाह्य नहीं है - ऐसे ही अनन्त गुणों का सत् सूक्ष्म है । अत. अनन्त महिमा को धारण किये हैं। क्योंकि अनन्त गुणों की सत्ता का प्रभुत्व एक सूक्ष्मसत्ता की प्रभुता से है।
इसीप्रकार सभी गुणों का प्रभुत्व पृथक्-पृथक् जानना चाहिये । बहुत विस्तार के भय से वहाँ नहीं लिखा है। पर्याय का प्रभुत्व
पर्याय के परिणमनरूप वेदकभाव के द्वारा स्वरूपलाभ, विश्राम या स्थिरता होती है, वह वस्तु के सर्वस्व को वेदन
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वीर्यशक्ति ]
करके प्रकट करती है । ऐसे अखण्डित प्रभुत्व को जो धारण करता है, उसे पर्याय का प्रभुत्व कहते हैं।
इसप्रकार प्रभुत्वशक्ति को जानकर जीव अपने अनन्त प्रभुत्व को प्राप्त करता है । वीर्यशक्ति
अपने स्वरूप को निष्पन्न करने वाली सामथ्र्य रूप वीर्यशक्ति है । उसके सामान्य और विशेष के भेद से दो भेद हैं। वस्तु के स्वरूप को निष्पन्न रखने की सामर्थ्य 'सामान्यवीर्यशक्ति' है।
__ "विशेषवीर्यशक्ति' के सामान्य रूप से तीन भेद है :१. द्रव्यवीर्यशक्ति, २. गुणवोर्य शक्ति, ३. पर्यायवीर्य शक्ति । विशेष रूप से ४. क्षेत्रवीर्यशक्ति, ५. कालवोर्यशक्ति, ६. तपवीय शक्ति, ७. भाववीर्य शक्ति प्रादि हैं । १. द्रव्यवीर्यशक्ति
द्रव्यवीर्य गुण-पर्यायवीयं का समुदाय है ।
शंका :- जो गुण-पर्याय को द्रवित करे अर्थात् उनमें व्यापक हो, वह द्रव्य है और गुण पर्याय का समुदाय भी द्रव्य है । यहाँ गुरण-पर्याय का समुदाय और गुण-पर्याय में व्यापक - क्या इनमें विशेष अन्तर है और क्या द्रव्य में भी अन्तर है ?
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१८ ]
[ चिविलास
समाधान :- व्यापकभाव के दो भेद हैं - १. भिन्नव्यापक और २. अभिन्नव्यापक ।
भिन्न व्यापक के भी दो भेद हैं :- १ बन्धव्यापक और २. प्रबन्धव्यापक । जैसे तिल में तेल बन्धव्यापक है, वैसे ही देह में प्रात्मा बन्धव्यापक है और धन आदि में अबन्धव्यापक है ।
__ शुद्ध या अशुद्ध अवस्था में अभिन्न व्यापक है । गुण व पर्याय की अपेक्षा से अभिन्न व्यापक के दो भेद हैं :- १. युगपत् सर्वदेशब्यापक और २. क्रमवर्ती एकदेशच्यापक । द्रव्य-गुण युगपत् सर्वदेशव्यापक हैं और पर्याय मवर्ती एकदेशव्यापक, क्योंकि सब गुण-पर्याय से एक द्रव्य उत्पन्न हुआ है, अतः युगपत् सर्वदेशव्यापक अभिन्नता तथा क्रमवर्ती एकदेशव्यापक अभिन्नता गुण-पर्याय से हुई । इसप्रकार व्यापकता में गुण-पर्याय का समुदाय प्रकट हुना, अतः 'गुण-पर्याय में व्यापकता' - ऐसा कहने में कथन मात्र का भेद है । वस्तु का स्वभाव अन्य-अन्य भेदों से और अभेद सत्ता से सिद्ध है । द्रव्य का विशेष स्वरूप पहिले कहा जा चुका है, उसके रखने की सामर्थ्य 'द्रव्यवीर्यशक्ति' है । __ शंका : - यह द्रव्यवीर्य भेद है या अभेद ? अस्ति है या नास्ति ? नित्य है या अनित्य ? एक है या अनेक ? कारण है या कार्य ? सामान्य है या विशेष ?
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अव्यवीर्यशक्ति ]
[ ८६
समाधान :- द्रव्यवीर्य का सामान्यदृष्टि से कथन किया जावे, तब अभेद है और जब गुणसमुदाय की विवक्षा से कथन किया जाये, तब भेद है । यहां गुण का भेद अलग है, अतः इस विवक्षा में भेद आया, परन्तु अभेद को सिद्ध करने के लिए यह भेद है, भेद के बिना अभेद नहीं होता; अतः 'भेदाभेद' - ऐसा कहा जाता है ।
द्रव्यवीर्य अपने चतुष्टय को अपेक्षा अस्ति हैं और परचतुष्टय की अपेक्षा नास्ति है ।
द्रव्यवीर्य अपनी अपेक्षा नित्य है और पर्यायवीर्य भी इस द्रव्यवीर्य में अन्तभित होता है; अतः उसकी अपेक्षा अनित्य है । द्रव्यवीर्य नित्य है, उसे पर्यायवीर्य भी सिद्ध करता है, अतः नित्य का साधन प्रनित्य है । द्रव्य का स्वभाव नित्यानित्यात्मक है, मनेक धर्मात्मक है।
नयचक (पालापपद्धति) में कहा भी है :-- नानास्वमावसंयुक्त ध्यं ज्ञात्वा प्रपाणतः ११
सामान्यार्थ :-प्रमाण की अपेक्षा द्रव्य को नानास्वभाब से युक्त जानना चाहिये।
शंका :- यदि पर्याय स्वभाव से अनित्य है तो पर्याय को अनित्य कहो, द्रव्य को अनित्य क्यों कहते हो ? १. यह पंक्ति मालापपद्धति के श्लोक क्रमांक ६ में दी गई है, साथ ही
द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचऋ में भी यह श्लोक प्राकृत में दिया गया है। अतः नचक्र के साथ ऊपर कोष्ठक में प्रलापपद्धति भी लिख दिया है।
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[ चिविलास समापान :-- उपचार से द्रव्य को अनित्य कहते हैं । लक्षण की अपेक्षा पर्याय को प्रनित्य कहते हैं।
शंका - उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सत्ता का लक्षण है और सत्ता द्रव्य का लक्षण है, अतः उसे पर्याय का लक्षण नहीं कहना चाहिए। ___समाधान :- उत्पाद-व्यय भी पर्यायसत्ता का ही लक्षण है, जिसे उपचार से द्रव्य में कहा है । नयचक (पालापद्धति) में कहा भी है - "द्रव्ये पर्यायोपचारः, पर्याये द्रच्योपचारः।" द्रव्य में पर्याय का उपचार और पर्याय में द्रव्य का उपचार किया जाता है । अतः उपचार से ही कथन किया गया है। अनित्य द्रव्य मूलभूत वस्तु नहीं है - ऐसा जानना चाहिए ।
द्रव्य की अपेक्षा एक है और गुरा-पर्याय स्वभाव की अपेक्षा अनेक है। स्वभाव से एक है, अतः उपचार से अनेक कहा है । एक स्वभाव सिद्ध करने के लिए अनेकपना उपचार से सिद्ध किया है।
कारणरूप द्रव्य पूर्वपरिणाम से युक्त है और कार्यरूप द्रव्य उत्तरपरिणाम से युक्त है । कारण-कार्यरूप स्वभाव द्रव्य हो में है, अतः नय की विवक्षा से द्रव्य में कारण कार्य सिद्ध करने में दोष नहीं । पूर्वपरिणामग्राहकनय को उत्तरपरिणामग्राहकनय द्वारा सिद्ध करना चाहिए । ___ सामान्य द्रव्यवीर्य का कथन विशेष गुण-पर्यायवीर्य के द्वारा किया जाता है । अतः सामान्य-विशेषरूप है।
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[ et
द्रव्यवीर्य के ये सब विशेषण नय के द्वारा कहे है ।
(२) गुणवीर्यशक्ति
गुण को धारण करने की सामर्थ्य को गुणवीर्यशक्ति कहते हैं । यह सामान्य गुणवीर्य का कथन हुआ, अब विशेष गुणवीर्य का कथन करते हैं :
सुणी शक्ति ]
ज्ञानगुरण में ज्ञायकता को रखने की
धारण करने की सामर्थ्य ज्ञानगुणवीर्य है । दर्शन में देखने की शक्ति है, अतः उसको रखने की धारण करने की सामर्थ्य दर्शनवीर्य है । सुख को रखने को धारण करने की सामर्थ्य सुखवीर्य है । ऐसे ही अन्य गुणों की रखने की सामर्थ्यवाले विशेष गुणवीर्य हैं । प्रत्येक गुण में वीर्यशक्ति के प्रभाव से ऐसी सामर्थ्य है ।
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एक सत्तागुण है, जो वीर्य के प्रभाव से ऐसी महिमा धारण करता है । द्रव्यसत्तावीर्य के प्रभाव से द्रव्य में हैपन ( अस्तित्व ) की सामर्थ्य है । पर्यायसत्तावीर्य के प्रभाव से पर्याय में है पना ( अस्तित्व ) की सामर्थ्य है ।
एक सूक्ष्मगुणसत्तावीर्य में ऐसी शक्ति है, जिससे सब गुण सूक्ष्म हैं - ऐसी सामर्थ्यता है । ज्ञान सूक्ष्म है - ऐसी इसी से सामर्थ्यता है । ऐसे ही सब गुणों में वीर्यसत्ता का प्रभाव फैल रहा है और इसीप्रकार सब गुणों में अपने-अपने गुण का वीर्य अनन्त प्रभाव को धारण करता है, जिसका वर्णन विस्तार के भय से नहीं किया जा रहा है ।
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६२ ]
[ चिद्विलास
ज्ञान असाधारण गुण है और सत्ता साधारण गुण है । इनमें जब सत्ता की मुख्यता ली जाती है, तब कहा जाता है कि ज्ञान सत्ता के श्राधार से रहता है; प्रतः सत्ता प्रधान है । वह द्रव्य-गुण- पर्याय के रूप को रखता है, ज्ञान के भी रूप को रखता है, अतः असाधारण होते हुए भी साधारण है ।
इसीप्रकार जब ज्ञान की मुख्यता ली जाती है, तब कहा जाता है कि यदि ज्ञान न होता तो क्या सत्ता प्रचेतन नहीं हो जाती, अथवा यह कहा जाता है कि चेतना ज्ञान से है और चेतना से चेतन की सत्ता है, अतः चेतनसत्ता को धारण करने में ज्ञानचेतना कारण है । सर्वज्ञशक्ति भी ज्ञान से है, जो सबमें प्रधान है, पूज्य है । इसप्रकार जैसा ज्ञान हो उसीप्रकार सब गुण होते हैं, जैसे निगोदिया के ज्ञान होन हैं तो उसके सभी गुण विकसित या प्रकट हैं । ज्ञान ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों सभी गुण बढ़ते जाते हैं । जैसे ज्यों-ज्यों स्वसंवेदन ज्ञान बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों सुख प्रादि सब गुण बढ़ते जाते हैं । यहाँ तक कि बारहवें गुणस्थान में चारित्र के हो जाने पर भी ज्ञान के बिना सुख 'अनन्त सुख' नाम नहीं पाता ।
अतः ज्ञानगुण सब चेतना में प्रधान है, उसी के कारण चेतना सत्ता है । साधारणसत्ता ने भी जो चेतनासत्ता नाम
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पर्यायवीर्यशक्ति ]
[६३
प्राप्त किया वह चेतना से ही प्राप्त किया और चेतना में ज्ञान प्रघान है; अतः साधारणसत्ता अप्रधान थी, उसको असाधारण चेतना के द्वारा ज्ञान की प्रधानता से असाधारण चेतनसत्ता का प्रधान नाम प्राप्त हुआ है। इसप्रकार ऐसी महिमा सत्ताज्ञान में सत्ताज्ञानवीर्य के कारण है, अतः वीर्यगुरण प्रधान है। (३) पर्यायवीर्यशक्ति ___ जो वस्तुरूप परिणमन करे, उसे पर्याय कहते हैं और उसे निष्पन्न रखने की - धारण करने को सामर्थ्य को 'पर्याययोर्यशक्ति' कहते हैं । जब परिणाम द्वारा वस्तु का वेदन किया जाबे, गुण का वेदन किया जाये; तब वस्तु प्रकट होती है । वस्तु और गुण का स्वरूप पर्याय द्वारा प्रकट होता है। यदि वस्तुरूप परिणमन न हो तो वस्तु की सत्ता ही नहीं रहेगी । इसीप्रकार यदि गुणरूप परिगमन न हो तो गुग का स्वरूप ही न रहे । ज्ञानरूप परिगमन नहीं होने पर ज्ञान ही नहीं रह सकेगा । अतः यदि सब गुरण परिणमन न करें तो सब गुण कसे रह सकेंगे ? सबका मूल कारण पर्याय है । पर्याय अनित्य है, जो नित्य का कारण है । अतः वस्तु नित्यानित्य है । पर्यायरूपी चंचल तरंगे द्रव्यरूपी ध्र वसमुद्र को दर्शाती हैं।
शंका :-पर्याय वस्तु है या अवस्तु ? यदि वस्तु है तो वस्तु को वस्तुसंज्ञा न देकर 'पर्याय ही वस्तु है' - ऐसा
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६४ ]
[ चिदविलास
कहना चाहिए और यदि अवस्तु है तो इसका कोई स्वरूप नहीं रह सकेगा, इसप्रकार विरोध प्राप्त होता है ।
समाधान :- द्रव्य-गुण- पर्यायरूप वस्तु है । पर्याय परिणाम, द्रव्यवेदना, गुरण उत्पाद प्रादि रूप पर्याय है, भ्रतः इस विवक्षा से पर्याय को वस्तुसंज्ञा दी जाती है । तीनों की परिणाम - सत्ता प्रभेद है, अतः परिणाम स्वरूप पर्याय को परिणाम की अपेक्षा वस्तुसंज्ञा दी जाती है, द्रव्य की अपेक्षा से परिणाम की वस्तुसंज्ञा नहीं है । यदि परिणाम अपेक्षा से भी परिणाम को 'वस्तु' न कहा जावे तो परिणाम कोई वस्तु ही न रहे, नाशरूप हो जावे । श्रतः विवक्षा से प्रमाण है | पर्यायवस्तु द्रव्यरूप नहीं है । इसीप्रकार अनन्त गुण भी ध्रुवरूप वस्तु के कारण होने से वस्तु है, कार्यरूप नहीं । यह ध्रवरूप कहने की विवक्षा अलग है तथा कार्य परिणाम ही दिखाता है - यह विवक्षा अलग है । यह पहिले ही कहा जा चुका है कि नाना भेदों से नाना विवक्षायें होती हैं, नयों के ज्ञान से विवक्षाओं का ज्ञान होता है । श्रतः पर्यायवस्तु द्रव्यात्मक नहीं है, पर्यायरूप है - यह कथन सिद्ध हुआ ।
पर्याय के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव क्या हैं ? उसे कहते हैं :- पर्याय के उत्पन्न होने का क्षेत्र द्रव्य है । स्वरूपक्षेत्र के प्रत्येक प्रदेश में परिणामशक्ति है और उस शक्ति
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क्षेत्रीयशक्ति ]
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का स्थान ही क्षेत्र हैं ! समय की मर्यादा काल है अर्थात् निजवर्तना की मर्यादा काल है । तथा जो सर्वप्रकट है, परिणमन ही जिसका सर्वस्व है और जो सम्पूर्ण निजलक्षण अवस्थाओं से मण्डित है, वही भाव है ।
इसप्रकार जो पर्याय के स्वरूप को सदा निश्चल रखे -- ऐसी सामर्थ्य का नाम ही पर्यायवीर्यशक्ति है ।
(४) क्षेत्रवीर्यशक्ति
अपने प्रदेशों अर्थात् क्षेत्रों को परिपूर्ण निष्पन्न रखने की धारण करने की सामर्थ्य को 'क्षेत्रवीर्यशक्ति' कहते हैं । क्षेत्रवीर्य के कारण हो क्षेत्र है । क्षेत्र में अनन्त गुण हैं, अनन्त पर्यायें हैं । प्रत्येक गुण के रूप में सब गुणों का रूप सिद्ध होता है । सत्ता में सब गुण है । सत्ता लक्षण सबमें व्यापक है - ज्ञान है, दर्शन है, द्रव्य है, पर्याय है । इसप्रकार द्रव्यत्व, भगुरुलघुत्व आदि सभी गुणों में जानना चाहिए ।
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क्षेत्र में गुण का विलास है, पर्याय का विलास है तथा द्रव्यरूपी मन्दिर की मूलभूमि को क्षेत्र या प्रदेश कहा जाता है । क्षेत्र या प्रदेश में अनन्त गुरण हैं । क्षेत्र से द्रव्य की मर्यादा जानी जाती है । द्रव्य-गुण-पर्याय का विलास, निवास और प्रकाश क्षेत्र के आधार से है । यह क्षेत्र सबका अधिकरण है । जिस प्रकार नरक का क्षेत्र दुःख उत्पन्न करने
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६]
चिद्विलास
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का अधिकरण है तथा देव यादि भी उन नारकियों का दुःख नहीं मिटा सकते - ऐसा उस क्षेत्र का प्रभाव है । तथा स्वर्ग की भूमि में सहज शीत प्रादि की वेदना नहीं है। ऐसा उस क्षेत्र का प्रभाव है । ग्रतः आत्मप्रदेश का जो क्षेत्र है, उसका भी प्रभाव ऐसा है कि वह अनन्त चेतना, द्रव्य, गुरण, पर्याय के विलास को प्रकट करता है | इतनी विशेषता है कि नरक आदि के क्षेत्र तो भिन्न वस्तु हैं, लेकिन आत्मप्रदेश के क्षेत्र गुण पर्याय से भिन्न हैं ।
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इस प्रदेश या क्षेत्र में उत्पाद व्यय ध्रौव्य भी सिद्ध होते | उपचार से एक प्रदेश को मुख्य मानकर उसका उत्पाद व दूसरे प्रदेश को गौण मानकर उसका व्यय समझना चाहिए तथा जो ध्रुवरूप अनुस्यूत शक्ति है, वह मुख्य-गौण रहित वस्तुरूप शक्ति है ऐसा समझना चाहिए ।
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इसप्रकार प्रदेश या क्षेत्र की अनन्त महिमा है । यह प्रदेश या क्षेत्र लोकालोक को देखने के लिए दर्पण के समान है । जिस जीव ने इस प्रदेश या प्रदेश क्षेत्र में निवास किया है, वही प्रनन्त सुख को भोक्ता हुआ है । ऐसे प्रदेश क्षेत्र को रखने की धारण करने की सामर्थ्य का नाम 'क्षेत्रवीर्यशक्ति' है । (५) कालवशक्ति
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अपने द्रव्य-गुण-पर्याय की मर्यादा या काल को रखने की - धारण करने की सामर्थ्य का नाम 'कालवशक्ति' है ।
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कालवीर्यशक्ति ] द्रव्य की वर्तना द्रव्यकाल है, गण की वर्तना गुणकाल है और पर्याय की वर्तना पर्यायकाल है ।
शंका :- द्रव्य की वर्तना तो गुण पर्याय की वर्तना से होती है, अतः गुण और पर्याय की वर्तना भी द्रव्य की वर्तना हुई । तथा द्रव्य की वर्तना से गुण-पर्याय की वर्तना है, अतः द्रव्य की वर्तना में गुण-पर्याय की वर्तना कहना चाहिए तथा गुण-पर्याय की वर्तना में द्रव्य की वर्तना कहना चाहिए।
समाधान :- हे भव्य ! तूने जो प्रश्न किया है, वह सत्य है; परन्तु जहाँ जो विवक्षा हो, उसी को कहना चाहिए । गुण और पर्याय के पुञ्ज की वर्तना द्रव्य की वर्तना है, क्योंकि गुण-पर्याय का पुज द्रव्य है और द्रव्य का स्वभाव गुण-पर्याय है, अत: द्रव्य अपने स्वभावरूप वर्तता है। इस प्रकार द्रब्यवर्तना में स्वभाव अाया।
___ इतनी विशेषता है कि गुणवर्तना का अलग से विचार किया जाय तो गुणवर्तना में गुणवर्सना है, ज्ञानवर्तना में ज्ञानवर्तना है और दर्शनवर्तना में दर्शनवर्तना है । इसप्रकार पृथक्-पृथक् गुणों में पृथक्-पृथक् गुणवर्तना है।
__ पर्याय में पर्यायवर्तना है, परन्तु उसमें इतनी विशेषता है कि जिससमय जो पर्याय है, उस पर्वाय की वर्तना उसमें है और दूसरे समय की पर्याय की वर्तना दूसरे समय की
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१८]
[चिदविलास पर्याय में है । एक पर्याय में दूसरी पर्याय की वर्तना नहीं है। पर्याय पृथक है, जिससे द्रव्य की- गुण-पर्याय के पुञ्ज की वर्तना किसी एक गुण में या किसी एक पर्याय में नहीं आती है, क्योंकि एक गुणवस्तु द्रव्यरूप नहीं हो सकती । यदि गुणपुञ्ज (द्रव्य) एक गुण में प्रावे तो गुण अनन्त होने से अनन्त द्रव्य हो जायेंगे | गुरणपुञ्जरूप द्रव्य की वर्तना को किसी एक गुण की वर्तना नहीं कहा जा सकता, क्योंकि किसी एक गुण रूप द्रव्य नहीं हो सकता । गुणों का पुज गुणों के द्वारा गुणपुज में वर्तता है, उसी में द्रव्यविवक्षा से द्रव्य की वर्तना, गुरा विवक्षा से गुण की वर्तना और पर्यायविवक्षा से पर्याय की वर्तना होती है । इसप्रकार विवक्षा से अनेकांत की सिद्धि होती है।
अतः द्रव्य-गुण-पर्याय की जो वर्तना या मर्यादा या स्थिति है, उसको निष्पन्न रखने की सामर्थ्य का नाम 'कालवीर्यशक्ति' है। (६) तपवीयशक्ति
निश्चय और व्यवहार रूप दो भेदों को धारण करने की सामर्थ्य रूप तयवीयंशक्ति है।
व्यवहाररूप बारह प्रकार के तथा परिषह सहनेंरूप तप हैं । तप से कमों की निर्जरा तब होती है, जब इच्छाओं के निरोधरूप वर्तन होता है, पर-इच्छायें मिटती हैं, स्वरस का अनुभव होता है - ऐसे वास्तविक व्यवहार
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भाववीर्यशक्ति ]
साधन द्वारा सिद्धि होती है, उसे निष्पन्न रखने की सामर्थ्य का नाम 'व्यवहारतपवोर्यशक्ति' है, जिसके प्रभाव से अनेक ऋद्धियाँ उत्पन्न होती हैं। __ अब 'निश्चयतपवीर्यशक्ति' का स्वरूप कहते है :- तप का अर्थ है तेज और तेज का अर्थ है अपनी भासुर (तेजस्वी) अनन्तगुणचेतना को प्रभा का प्रकाश – इसे निष्पन्न रखने की सामर्थ्य का नाम 'निश्चयतपवीर्यशक्ति ' है। __ ज्ञानचेतना का स्वसंवेदन प्रकाश और स्व-परप्रकाश निजी प्रभाभार के विकास से विराजमान तेज है । इसीप्रकार दर्शन निराकार उपयोग, सर्वशित्व सामान्यचेतना के प्रभाभार के प्रकाश का तेज है । इसीप्रकार अनन्तगणों के तेजपुञ्ज के प्रभाभार के प्रकाशरूप द्रव्य का तेज है, पर्यायस्वरूप के प्रभाभार के प्रकाशरूप पर्याय का तेज है । ऐसे ही द्रव्य-गुण-पर्याय के प्रभाभार के प्रकाश को तप कहते हैं, उसे निष्पन्न रखने की सामर्थ्य का नाम 'निश्चयतपोवीर्यशक्ति ' है। (७) भाववीर्यशक्ति
जिसके प्रभाव से वस्तु प्रकट होती है, उसे 'भावबीर्यशक्ति' कहते हैं । वस्तु का सर्वस्वरस भाव है । भाव वस्तु का स्वभाव है और भाव से वस्तु का वस्तुत्व जाना जाता है । जैसे भावार्थ से अक्षरार्थ सफल होता है, वैसे ही भाव
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१०० ]
[चिदविलास
से वस्तु सफल होतो है । वस्तु का उपादान अक्रम-क्रम स्वभावभावरूप है, उसके तीन भेद हैं :- १. द्रव्यभाव, २. गुणभाव और ३. पर्यायभाव ।
गुण-पर्याय के समुदायरूप भाव को 'द्रव्यभाव' कहते हैं । गुणभाव के अनन्त भेद हैं । ज्ञान द्रव्य है, जानपनेरूप शक्ति का भाव ज्ञानगुण है। ज्ञ या कार पर्याय के द्वारा जो ज्ञान होता है, वह पर्याय है । ज्ञान के भाव द्वारा तीनों सिद्ध होते हैं । भावगुण के द्वारा गुणी सिद्ध होता है, वह द्रव्यभाव है, परन्तु 'गुण के द्वारा गुणी' - ऐसा कहने से भाव ही से द्रव्य की सिद्धि हुई, और इस भाव ही से पर्याय की सिद्धि होती है। ____ गुण का जो शक्तिरूप भाव है तथा गुण का जो पर्यायरूप भाव है, उसे गुरणभाव कहते हैं।
पर्याय में परिणमन शक्ति का जो लक्षण है, वह पर्यायभाव है । प्रत्येक गुण का भाव पृथक-पृथक् है । पर्याय का वर्तमानभाव अतीतभाव से नहीं मिलता, अतोतभाव भविष्यभाव से नहीं मिलता, वर्तमानभाव भविष्यभाव से नहीं मिलता तथा भविष्यभाव वर्तमान व अतीतभाव से नहीं मिलता । जो परिणाम बर्तमान में है, उसका भाव उसी में है । इसपकार भाव को निष्पन्न रखने की सामर्थ्य का नाम 'भाववोर्यशक्ति है ।
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गुण की विशेषता ]
१०१ ] गरण की विशेषता - एक गुण में सब गुणों का रूप होता है। वस्तु में अनन्त गुण हैं और प्रत्येक गुण में सब गुणों का रूप होता है, क्योंकि सत्तागुण है तो सब गुण हैं । अतः सत्ता के द्वारा सब गुणों की सिद्धि हुई। सूक्ष्मगुण है तो सब गुण सूक्ष्म हैं । वस्तुत्वगुण है तो सब गुण सामान्य-विशेषरूप हैं। द्रव्यत्वगुण है तो वह द्रव्य को द्रवित करता है, व्याप्त करता है । अगुरुलघुत्वगुण है तो सब गुण अगुरुला हैं । अबाधित गुण है तो सब गुण प्रबाधित हैं। अमूर्तिकगुण है तो सब गुण प्रमूर्तिक हैं।
इसप्रकार प्रत्येक गुण सब गुणों में है, और सबकी सिद्धि का कारण है । प्रत्येक गुण में द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों सिद्ध करना चाहिए । जैसे एक ज्ञानगुण है, उसका ज्ञानरूप 'द्रव्य' है, उसका लक्षण 'गुण' है । उसकी परिणति 'पर्याय' है और प्राकृति 'व्यञ्जनपर्याय' है।
शंका :- यदि परिणति पर्याय है और ज्ञान पर्याय के द्वारा ज्ञेय में आया है। फिर भी परिणति तो ज्ञेयों में नहीं आई तो ज्ञान पर्याय के द्वारा ज्ञेयों में कैसे पाया ? ___ समाधान :- ज्ञान की परिणति ज्ञेयों में अभेद को अपेक्षा या तादात्म्य की अपेक्षा नहीं आयी। पर्याय की शक्ति ज्ञेयों में उपचारपरिणति से परिणमी है अर्थात आयी है । उपचार से ही उसे ज्ञेयाकार कहा जाता है । द्रव्य-गुण-पर्याय वस्तु के हैं । जो वस्तु का सत् है, वही
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१०२ ]
[घिविलास ज्ञान का सत् है; क्योंकि जो असंख्यात प्रदेश वस्तु के होते हैं, वे ही ज्ञान के होते हैं, इसलिए अभेद सत्ता की अपेक्षा प्रभेद गुण-पर्याय की सिद्धि होती है । भेद की अपेक्षा ज्ञान द्रव्य, लक्षण गुण और परिणति पर्याय - ऐसे भेद सिद्ध होते हैं । उपचार से समस्त ज्ञेय के द्रव्य-गण-पर्याय ज्ञान में आये हैं।
उपचार के अनेक भेद हैं - १. स्वजाति उपचार,
१. पण्डित श्री गोपालदासजी बरैया कृत 'जैन-सिद्धान्त दर्पण' में उपचार के सम्बन्ध में निम्न प्रकार निरूपण किया गया है :
"एक प्रसिक धर्म का दूसरे मैं उपचार करना प्रस भूतन्यवहारनय का विषय है । उसके तीन भेद हैं :
१. स्वजाति उपचार, २. विजाति उपचार, ३. स्वजाति-विजाति उपचार ।
इसमें स्वजाति द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर भारोप करना स्वजाति उपचार है। जैसे चन्द्र के प्रतिबिम्ब को 'चन्द्र' कहना - यहां स्वजाति गर्याय का स्वजाति पर्याय में उपचार है 1
विजाति द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर प्रारोप करना विजाति उपचार है । जैसे ज्ञान को 'मूर्त' कहना – यहाँ विजाति गुण का बिजाति गुण में उपचार है।
स्वजाति-विजाति प्रथ्य-गुरण-पर्याय में परस्पर प्रारोप करना स्वजातिविजाति उपचार है। जैसे जीव-प्रजीवरूप ज़यों को ज्ञान के विषय होने से ज्ञान कहना - यहाँ स्वजाति-विजाति द्रव्य में, स्वजाति-विजाति गृएग का आरोप है।"
इनमें प्रत्येक के नौ-नौ भेद है :
१. द्रव्य में द्रव्य का आरोप, २. द्रव्य में गुमा का आरोप, ३. द्रव्य में पर्याय का प्रारोप, ४. गुराण में द्रव्य का प्रारोप, ५. गुण में गुण का प्रारोप, ६. गुण में पर्याय का पागोष, ७ पर्याय में द्रव्य का प्रारोप, ६. पर्याय में गुण का मारोप और ६ पर्याय में पर्याय का मारोप ।
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गुण की विशेषता ]
[ १०३
२. विजाति उपचार और ३. स्वजाति-विजाति उपचार - ये तीन उपचार द्रव्य, गुण और पर्याय में घटित होते हैं, अतः नौ भेद हुए । इसप्रकार स्वजाति, विजाति, स्वजाति-विजाति और सामान्य की अपेक्षा नौ-नौ भेदों को मिलाकर छत्तीस भेद हुए।
ये भेद जब ज्ञान में पाते हैं, तब ज्ञान में भी सिद्ध होते हैं । ज्ञान और दर्शनगुण चेतना को अपेक्षा स्वजाति है, लक्षण की अपेक्षा उपचार से विजाति हैं और दोनों की अपेक्षा स्वजाति-बिजाति हैं। प्रत्येक गुण सामान्यरूप से द्रव्य-गुण-पर्याय सिद्ध करता है तथा विशेष रूप से स्वजाति, विजाति एवं मिश्र को भी सिद्ध करता है । इसप्रकार प्रत्येक गण में छत्तीस भेद होते है। इसीप्रकार अनन्त गुणों में छत्तीस-छत्तीस भेद उपचार से सिद्ध होते हैं।
भेद-अभेद से द्रव्य-गुण-पर्याय सिद्ध होते हैं, यह जानना चाहिये । ज्ञान अपने स्वभाव का 'कर्ता' है । ज्ञान का भाव 'कर्म' है । ज्ञान अपने भाव से स्वयं को सिद्ध करता है, अतः स्वयं 'करण' है । अपना स्वभाव स्वयं को समर्पित करता है, अतः स्वयं 'सम्प्रदान' है । अपने भाव से स्वयं को स्वयं स्थापित करता है, अतः स्वयं 'अपादान' है । स्वयं का प्राधार स्वयं है, अतः स्वयं 'अधिकरण' है । ये छह कारक प्रत्येक गुरण में पृथक्-पृथक् अनन्त गुणपर्यन्त सिद्ध करना चाहिये ।
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१०४ ]
[ चिदविलास
में उत्पाद, व्यय और प्रौव्य - ये तोनों प्रत्येक गुरण सिद्ध होते हैं । सूक्ष्मगुण की अनन्त पर्यायें हैं । जैसे ज्ञानसूक्ष्म, दर्शनसूक्ष्म इसीप्रकार अनन्त गुणसूक्ष्म । एक गुरग की मुख्यतारूप सूक्ष्मता का उत्पाद, दूसरे गुरण की गोणतारूप सूक्ष्मता का व्यय और सूक्ष्मत्व सत्ता की अपेक्षा श्रीव्य । इसप्रकार सूक्ष्मगुण में उत्पाद, व्यय और प्रौव्य सिद्ध होते हैं । इसोप्रकार सब गुणों में उत्पाद, व्यय और धौव्य सिद्ध होते हैं ।
परिणामशक्ति
गुणसमुदाय द्रव्य है, वह द्रव्य उत्पाद व्यय - ध्रौव्य से आलिंगित है । अपने गुण-पर्यायस्वभाव के कारण गुणरूप सत्ता के दो भेद हैं १. साधारण और २ असाधारण । द्रव्यत्व श्रादि साधारण और ज्ञान आदि असाधारण सत्ता हैं | ज्ञान-दर्शन आदि विशेषगुणों की सत्ता से जब जीब प्रगट होता है, तब जीत्र के वस्तुत्व प्रादि सभी गुण जानने में आते हैं । अतः असाधारण से साधारण और साधारण से असाधारण है 1
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ये सभी द्रव्य-गुण- पर्याय जब अपनी यथावस्थितता द्वारा स्वच्छ होते हैं, तब पर के प्रभाव से प्रभावशक्तिरूप होते हैं ।
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परिणामशक्ति ]
[ १०५
निज बस्तु के सकल भाव, पर (वस्तु) के अभाव से चिद्विलासमंडित, स्वरसभरित, त्याग-उपादानशून्य, सकल' कर्मों के प्रकर्ता,प्रभोक्ता, सम्पूर्ण कर्मों से मुक्त प्रात्मप्रदेश, सहजमग्न, परमूर्तिरहित अमूर्त रूप, षट्कारकरूप, द्रव्य क्षेत्रकाल-भावरूप, संज्ञा-संख्या-खक्षण-प्रयोजनादिरूप, नित्यादिस्वभावरूप, साधारणादि गुणरूप, अन्योन्य उपचारादिरूप अनन्त भेदों के अभेदरूप हैं। इनमें सामान्य-विशेष आदि अनन्त नयों और अनन्त विवक्षानों से अनन्त सप्तभंग सिद्ध करने चाहिये । ___ अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त, सादि-सान्त और सादिअनन्त - ये चार भङ्ग सब गुणों में सिद्ध होते हैं। सर्वप्रथम ज्ञान में सिद्ध करते हैं :- १. वस्तु की अपेक्षा ज्ञान अनादि-अनन्त है, २. द्रव्य की अपेक्षा प्रनादि और पर्याय को अपेक्षा सान्त है, अतः ज्ञान प्रनादि सांत है, ३. पर्याय की अपेक्षा ज्ञान सादि-सान्त है तथा ४. पर्याय की अपेक्षा सादि और द्रव्य की अपेक्षा अनन्त है, अतः ज्ञान सादिअनन्त भी है।
इन भङ्गों को 'दर्शन' में भी इसी रीति से जानना चाहिए।
__ अब सत्ता में सिद्ध करते है :- १. द्रव्य की अपेक्षा सत्ता अनादि-अनन्त है, २. द्रव्य की अपेक्षा अनादि और
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१०६ ]
[ चिविलास
पर्याय की अपेक्षा सत्ता सादि-सान्त है तथा ४. पर्याय की अपेक्षा सादि और द्रव्य एवं गुण की अपेक्षा अनन्त होने से सत्ता सादि-अनन्त है ।
शंका :- सत्ता का लक्षण है' (अस्तिरूप) है, सादिसान्त में तो सत्ता का अभाव हो जाता है, अत: वहाँ 'है' (अस्तिरूप) लक्षण न रह सकेगा?
समाषाम :-- पर्याय समयस्थायी है, उसकी सत्ता भी समयमात्र काल की मर्यादा तक 'है' (अस्तिरूप) लक्षण को धारण करती है । अनादि-अनन्त का काल बहुत है, प्रतः पर्याय में सम्भव नहीं है । यदि पर्याय समयस्थायी न हो तो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य एक ही समय में सिद्ध न हो सकेंगे और फिर उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के बिना सत्ता न हो सकेगी तथा सत्ता का नाश होने पर वस्तु का नाश हो जाएगा अतः पर्याय की मयादा समयमात्र है, जिससे सादिसान्तपना सिद्ध होता है। __ ये सब परिणामशक्ति के भेद हैं, क्योंकि इसी में सब गभित हैं; अतः इसी के भेद हैं। प्रदेशत्वशक्ति
अनादि संसार से संसार-अवस्था में जो जीव के प्रदेशों का समूह संकोच-विस्तार को प्राप्त होता है, वह मोक्ष हो
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प्रदेशस्वशक्ति ]
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जाने पर अन्तिम शरीर से किंचित् ऊन ( कम ) आकार को धारण करता है । उसके प्रत्येक प्रदेश में अनन्त गुण हैं और ऐसे असंख्यात प्रदेश लोकप्रमाण हैं । वे प्रदेश अभेदविवक्षा में प्रदेशत्वरूप और भेदविवक्षा में असंख्य तथा व्यवहार में देहप्रमाण कहे गए हैं । ये प्रदेश अवस्थान विवक्षा में लोकाय में अवस्थानरूप होकर निवास करते हैं। एक-एक प्रदेश की गणना करने पर प्रसंख्य प्रदेश हैं ।
शंका :- जिनागम में कहा है - 'लोकप्रमाणप्रदेशो हि निश्चयेन जिनागमे । अतः भेदविवक्षा में असंख्य कहने से निश्चय सिद्ध नहीं होता, क्योंकि निश्चय में भेद सिद्ध नहीं होता ?
समाधान :- भेदविवक्षा से प्रदेशों की संख्या असंख्य प्रमाण होती है, कम-ज्यादा नहीं इसप्रकार नियमरूप निश्चय जानना चाहिए ।
शंका :- एक प्रदेश में जो अनन्त गुरण हैं, वे सब प्रदेशों में हैं, अतः उन प्रदेशों में सब आए या कम आए ?
समाधान:- ज्ञान सब प्रदेशों में है । प्रदेशों को पृथक् मानने पर ज्ञान पृथक्-पृथक् सिद्ध होगा और ग्रात्मप्रदेश ज्ञानप्रमाण होने से वह भी पृथक्-पृथक् सिद्ध होगा, इसतरह विपरीत होगा । अतः वस्तु में अंशकल्पना नहीं है, गुण में
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१०८ ]
[ चिविलास
भो नहीं है, परन्तु परमाणुमात्र के गज (माप) से वस्तु के प्रदेश की जन गणना की जाती है, तब उतना सिद्ध होता है । अथवा यह कहा जा सकता है कि प्रदेशों का एकत्व जैसे वस्तु का स्वरूप है, वैसे ही ज्ञान का भी स्वरूप है।
क्रम के दो भेद हैं :- १. विष्कम्भक्रम और २. प्रवाहक्रम ! विष्कम्भक्रम प्रदेश में है और प्रवाहक्रम परिणाम में है । द्रव्य में क्रमभेद नहीं होता, वस्तु के ही अंग ऐसे भेद धारण करते हैं। परन्तु क्रमभेद अंग में ही है, वस्तु में नहीं जैसे दर्पण में प्रकाश है ; वह जिसप्रकार सम्पूर्ण दर्पण में होता है, उसोप्रकार उसके प्रत्येक प्रदेश में भी होता है । प्रदेश दर्पण से पृथक् तो नहीं होते, परन्तु जब परमाणु मात्र प्रदेश की कल्पना करते हैं, तब प्रदेश में भी जाति
और शक्ति तो वैसी ही है, लेकिन संपूर्ण वस्तु – यह नाम तो सब प्रदेशों का एकत्वभाव ही प्राप्त करता है । इसी प्रकार गुण, जाति या शक्तिभेद तो प्रदेश में आते हैं, परन्तु संपूर्ण आत्मवस्तु असंख्यप्रदेशमय है । एक प्रदेश लोकालोक को जानता है, उसीप्रकार सब प्रदेश भी जानते हैं, परन्तु सब प्रदेशों का एकत्वभाव बस्तु है ।
शंका :- प्रदेश में एक गुण है और एक गण की अनन्त पर्याय हैं तो फिर एक प्रदेश में अनन्त पर्याय कैसे रह सकेंगी?
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प्रदेशत्व-शक्ति ]
[ १०६ समाधान :- जैसे एक प्रदेश में सूक्ष्मगुण है; और जो अनन्त गुण हैं, वे सब सूक्ष्म हैं। अतः सूक्ष्मगुण की सब
पर्याय, जातिभेद, शक्तिभेद सब एक हैं, इसलिए एक प्रदेश • में सब रह सकेंगी।
___जैसे एक गुण वस्तु का है, वह वस्तु में व्यापक है और वस्तु सब गुणों में व्यापक है, अतः सुक्ष्म गुण भी अपनी पर्याय के द्वारा सब गुणों में व्यापक है, अखण्डित है। प्रत्येक गुण को खण्ड-खण्ड पर्याय के द्वारा, पृथक-पृथक व्यापक कहने पर सूक्ष्मगुण अनन्त हो जायेंगे, एक नहीं रहेगी, तब द्रव्य भी अनन्त हो जायेंगे । कि द्रव्यगुण एक हैं, अतः सब प्रदेशरूप वस्तु है और वैसा ही गुण
भी है।
जिसप्रकार एक गुण सब गुणों में अपना रूप धारण करता है. व्यापक है; उसीप्रकार एक प्रदेश सब प्रदेशों में व्यापक नहीं है । एक प्रदेश का मस्तित्व एक प्रदेश में है
और दूसरे का दूसरे में है, परन्तु चेतना की अभिन्नता के कारण सब प्रदेश अभिन्नसत्तारूप हैं । एक वस्तु का प्रकाश परस्पर अनुस्यूतरूप अभेद है । प्रदेश के स्वरूप का निर्णय करने में तो भेद कहा है; परन्तु जाति, शक्ति, सत्ता और प्रकाश आदि अभेद हैं।
एक सूक्ष्मगुण सब प्रदेशों में अपना सम्पूर्ण अस्तित्व
ना
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११० ]
[ चिविलास
धारण करता है, उनमें सम्पूर्णता है । तथा सब गुण सुक्ष्म हैं, अतः सम्पुर्णता करने पर जितने प्रदेश कहे हैं, उनमें से सूक्ष्मगुण को भी पृथक् नहीं कह सकते, क्योंकि इसतरह पृथक् कहने पर गुरण के खण्ड हो जायेंगे, अतः अभेद प्रकाश है, उसमें भेद और अंश कल्पना होने पर भी अभेद है।
प्रदेश अवयवों का पुञ्ज है, यह एक वस्तु की सिद्धि करता है । इन प्रदेशों में सर्वज्ञत्वशक्ति एवं सर्वशित्वशक्ति है । ये प्रदेश अपने यथावत् स्वभावरूप हैं, अतः तत्त्वशक्ति को धारण करते हैं और परप्रदेश म्हप नहीं होते, अत: प्रतत्त्वशक्ति को धारण करते हैं। तथा जड़तारहित होते हैं, अतः चैतन्य शक्ति को धारण करते हैं।
इसीप्रकार प्रदेश अनन्त शक्तियों को धारण करते हैं। प्रदेशशक्ति अनन्त महिमा को धारण करतो है । द्रव्य-गुण-पर्याय का विलास
सत्ता के आधार से सब द्रव्य-गरण-पर्याय हैं, अतः सब द्रव्य-गुण-पर्याय के रूप का विलास सत्ता ही करती है ।
शंका:- सत्ता तो 'है' (अस्ति रूप) लक्षण को धारण करतो है, वह विलास कैसे कर सकती है ?
समाधान :- द्रव्य का विलास द्रव्य करता है, गुण का विलास गुण करता है और पर्याय का विलास पर्याय करती
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LAR.
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भावभावशक्ति ]
[ १११
है, एवं तीनों के विलास का अस्तित्वभाव सत्ता से है । अतः वह विलास सत्ता हो करती है ।
द्रव्य, गुण और पर्याय का विलास ज्ञान में प्राता है अर्थात् ज्ञानरूपवेदन के द्वारा ज्ञान ही तीनों के विलास को करता है । इसीप्रकार दर्शन में घटित होता है अर्थात् दर्शन सब द्रव्य, गुण और पर्याय के रूप का विलास करता है ।
परिणाम सबको बेदकर ( जानकर ) है, अतः पर्याय सबका विलास करती है । अनन्त गुण हैं, उनमें प्रत्येक गुण तीनों का गुण और पर्याय का विलास करता है ।
रसास्वाद लेता इसीप्रकार जो
प्रर्थात्
द्रव्य,
भावभावशक्ति
समस्त पदार्थों के समस्त विशेषों को ज्ञान वर्तमान में जानता है, पूर्व में जानता था और भविष्य में जानेगा । ज्ञान में जो शक्ति पूर्व में थी, वही भविष्य में भी रहती है अतः ज्ञान में 'भावभावशक्ति' है । इसीप्रकार दर्शन में भी जो भाव पूर्व में था, वही भविष्य में भी रहेगा, अतः दर्शन में भी 'भावभावशक्ति' है। ज्ञान और दर्शन की भाँति अनन्त गुणों में भी 'भावभावशक्ति' है । सब गुणों का भाव प्रत्येक गुण में है, अतः प्रत्येक गुरण के अपने भाव से सबका
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११२ ]
[ विविलास
भाव है और सब गुणों के भाव से एक-एक गुण का भाव है, इसलिए 'भावभावशक्ति' सब गुणों में है।
गुण में द्रव्य-पर्याय का भाव है और द्रव्य-पर्याय के भाव में गुण का भाव है, अतः 'भावभावशक्ति' का कथन किया जाता है । प्रत्येक भाव में अनन्त भाव हैं और अनन्त भावों में एक भाव है । वस्तु के सद्भाव का प्रगट होना 'भाव' है । एक भाव में अनन्तरस का विलास है, उस विलास का प्रभाव प्रगटरूप से धारण करने वाली वस्तू ही के अनेक अङ्गों का वर्णन जिनदेव ने किया है । बस्तु में अनन्त गुण हैं, प्रत्येक गण में अनन्त शक्तिपर्याय हैं, पर्याय में सब गुणों का वेदन है, वेदन में अविनाशी सुखरस है और उस सुखरस का पान करने से जीव चिदानन्द अजर-अमर होकर निवास करता है।
कारण-कार्य के तीन भेद
प्रत्येक समय कारण-कार्य के द्वारा आनन्द का विलास होता है, अतः परिणाम से कारण-कार्य है।
पूर्वपरिगामरूप कारण उत्तरपरिणामरूप कार्य को करता है, अतः उसके तीन भेद एक ही कारण-कार्य में सिद्ध होते हैं । इसका कथन करते हैं :- जैसे षड्गुणी वृद्धिहानि एक ही समय में सिद्ध होती है, वैसे ही एक ही वस्तु
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कारण- कार्य के तीन भेद ]
[ ११३
जाते हैं
के परिणाम में भेदकल्पना के द्वारा तीन भेद सिद्ध किए ( अ ) द्रव्यकारणकार्य, (ब) गुरणकारणकार्य और ( स ) पर्यायकारणकार्य ।
(a) द्रव्यकाररणकार्य :- ( १ ) द्रव्य अपने स्वभाव से स्वयं ही स्वयं का कारण हैं और स्वयं ही कार्य है अथवा (२) गुण - पर्याय कारण है और द्रव्य कार्य है, क्योंकि 'द्रव्य' गुणपर्यायवान् होता है - ऐसा सूत्र में वचन हैं । ( ३ ) पूर्वपरिणामयुक्त द्रव्य कारण है और उत्तरपरिणामयुक्त द्रव्य कार्य है । ( ४ ) अथवा 'सत् द्रव्यलक्षणम्' के अनुसार सत्ता कारण है और द्रव्य कार्य है । अथवा ( ५ ) ' द्रव्यत्व योगाद् द्रव्यम्' के अनुसार द्रव्यत्वगुण कारण है और द्रव्य कार्य है ।
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द्रव्य का कारण कार्य द्रव्य ही में है, क्योंकि द्रव्य अपने कारणस्वभाव को स्वयं ही परिणामाकर अपने कार्य को स्वयं ही करता है । यदि द्रव्य में कारण कार्य न हो तो द्रव्यपना कैसे रहे ? अतः संसार में जितने पदार्थ हैं, वे सब अपने-अपने कारण कार्य को करते हैं । ग्रतः जीवद्रव्य के कारण-कार्य से जीव का सर्वस्त्र प्रगट होता है । जो कुछ है, वह कारण कार्य ही है ।
(ब) गुणकाररणकार्य :- ( १ ) गुण को द्रव्य-पर्याय कारण है और गुण कार्य है । ( २ ) केवल द्रव्य व पर्याय ही
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११४ ]
[ चिदविलास कारण नहीं है, गुण भी गुण का कारण है और गुण ही कार्य है । एक सत्तागुण सब गुणों का कारण है और सब गुण उसके कार्य हैं। एक सूक्ष्म गुण सब गुणों का कारण है और सब गण कार्य हैं। एक अगुरुलघुगुण सब गुणों का कारण है औरसब गण उसके कार्य हैं । एक प्रदेशवगण सब ग णों काकारण है और सब गण उसके कार्य हैं।
अब कहते हैं कि उसी ग ण कारण उसी गण में होता है । सत्ता का निजकारण सत्ता ही में है । द्रव्य-गुण-पर्याय की सत्ता 'है' (सत्) लक्षण को धारण करती है; अत: उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप (उत्पाद-व्यय-प्रौव्ययुक्त सत्) जो सत्ता का लक्षण हैं, वहीं सत्ता का कारण है और सत्ता उसका कार्य है । इसीप्रकार अग रुलघुत्वगण अपने कारण के द्वारा अपने कार्य को करता है । उस अगुलधुत्वगुरण का विकार पड्गणी वृद्धि-हानि है, उसी वृद्धि-हानि के द्वारा अग रुलधुत्वगण का कार्य उत्पन्न हुआ है; अतः स्वयं प्रग रुलघुगण स्वयं ही का कारण है। ऐसे ही सब गण स्वयं स्वयं के कारण हैं, स्वयं के कार्य को स्वयं ही करते हैं। ___अन्यग गनिमित्तकारणग्राहकनय से अन्य गण के कारण से अन्य गगरूप कार्य होता है और अन्यग - ग्राहकनिरपेक्षकेवलनिजग णग्राहकनय से अपने कारण-कार्य
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कारण-कार्य के तीन भेद ]
[ ११५
को निजग ग स्वयं करता है। द्रव्य के बिना गण नहीं होता, अतः ग णरूप कार्य को द्रव्य कारण है। पर्याय न हो तो गुण रूप कौन परिणमन करता ? अतः पर्याय कारण है और ग ण कार्य है।
ऐसे अनेक भेद गणकारण कार्य के हैं ।
(स) पर्यायकारणकार्य :- (१) 'द्रव्य-गण' पर्याय का कारण है और 'पर्याय' कार्य है, क्योंकि द्रव्य के बिना पर्याय नहीं होती। जैसे समुद्र के बिना तरंग नहीं होती, वैसे ही पर्याय का आधार द्रव्य है, द्रव्य ही से परिणति (पर्याय) उत्पन्न होती है । पालापपद्धति में कहा भी है :
अनादिनिधने द्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् । उन्म अन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलबज्जले ॥१॥ इसप्रकार पर्वाय का कारण द्रव्य है ।
(२) अब गुग्ग-पर्याय का कारण कहते हैं । गण का समुदाय द्रव्य है । ग ण के बिना द्रव्य नहीं होता और द्रव्य के बिना पर्याय नहीं होती - एक तो यह विशेषण है और दूसरा विशेषण यह है कि गण के बिना गणपरिणति नहीं होती; अतः गुण, पर्याय का कारण है। गुण का पर्यायरूप परिणमन होता है, तब गणपरिणति नाम प्राप्त होता हैं, अतः ग ण कारण है और पर्याय कार्य है।
(३) पर्याय का कारण पर्याय हो है । पर्याय की सत्ता,
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११६ ]
[ पिद्विलास
गण के बिना ही पर्याय का कारण है, पर्याय का सूक्ष्मत्व पर्याय कारण हैं, पर्याय का वीर्य का कारण, पर्याय का प्रदेशत्व पर्याय का कारण है।
(४) उत्पाद-व्यय कारण है, क्योंकि उत्पाद-व्यय से पर्याय जानने में आती है।
अतः ये पर्याय के कारण हैं और पर्याय कार्य है ।
इसप्रकार कारण-कार्य के भेद हैं, अत: वस्तु का सर्वरस सर्वस्व कारण-कार्य है । जिन्होंने कारण कार्य को जान लिया, उन्होंने सब जान लिया । इस परमात्मा के अनन्तगण हैं, अनन्त शक्तियाँ हैं । अनन्त गण की अनन्तानन्त पर्यायें हैं, अनन्त चेतनाचिन्ह में अनन्तानन्त सप्तभङ्ग सिद्ध होते हैं । इसप्रकार से और भी जी वस्तु की अनन्त महिमा है, उसका वर्णन कहाँ तक किया जावे ? अतः जो सन्त हों, वे स्वरूप का अनुभव करके अमृतरस पीकर अमर हों।
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करता करम क्रिया निहलै विचार देखें,
वस्तु सौ न भिन्न होई यहै परमान है। कहै 'दोपचन्द' ज्ञाता ज्ञान में विचार सोही,
अनुभी अखंड लहि पार्व सुखथान है ।। --- पण्डित दीपचन्द शाह : ज्ञानदर्पण, छन्द ८०
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परमात्मस्वरूप की प्राप्ति के उपाय
अब शिष्य प्रश्न करता है कि हे प्रभो ! ऐसे परमात्मा का स्वरूप कैसे प्राप्त किया जावे ? अतः उस शिष्य को परमात्मा प्राप्त कराने के निमित्त आगे कथन करते हैं ।
जो जीव अन्तरात्मा होकर परमात्मा का ध्यान करते हैं, वे अन्तरात्मा चौथे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक । इनका वर्णन संक्षेप में करते हैं ।
चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव श्री सर्वज्ञदेव द्वारा कहे गये वस्तु के स्वरूप का चिन्तन करता है, उसे सम्यक्त्व हुआ है । उस सम्यक्त्व के सड़सठ भेद हैं, उनका वर्णन करते हैं । प्रथम श्रद्धान के चार भेद हैं, जिनके नाम हैं :१. परमार्थ संस्तव, २ मुनितपरमार्थ, ३. यतिजनसेवा श्रौर ४. कुदृष्टिपरित्याग ।
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( १ ) परमार्थ संस्तव :- ज्ञाता सात तत्वों के स्वरूप का चिन्तन करता है । उपयोग चेतनालक्षण दर्शन ज्ञानरूप है । ऐसे उपयोग आदि अनन्त शक्तियों को धारण करने
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११८ ]
[ चिद्विलस वाला मेरा स्वरूप अनन्त गुणों से मण्डित है, वह अनादिकाल से परसंयोग के साथ मिला है । यद्यपि मेरे स्वरूप में ज्ञयाकार ज्ञानोपयोग होता है, वह परज्ञ यरूप नहीं होता, अविकाररूप अखण्डित ज्ञानशक्तिरूप रहता है । वह ज्ञेय का अवलम्बन किये हुये है, परन्त परज्ञेय का निश्चय से स्पर्श भी नहीं करता, उसे देखकर भी नहीं देखता है, पराचरण करता हुमा भी उसका अकर्ता है।
इसप्रकार जीव उपयोग का प्रतीतिभाव या श्रद्धान करता है । अजीव आदि पदार्थ को हेय जानकर श्रद्धान करता है । बारम्बार भेदज्ञान के द्वारा स्वरूपचिन्तन से जो स्वरूप की श्रद्धा होती है, उसी का नाम 'परमार्थसंस्तव' कहा गया है ।
(२) मुनितपरमार्थ :- जिनागम द्रव्यसूत्र से अर्थ जानने पर ज्ञानज्योति का अनुभव हुअा, उसे 'मुनितपरमार्थ कहा जाता है ।
(३) यतिजनसेवा :- वीतरागरूप स्वसंबेदन से शुद्धस्वरूप का रसास्वाद होने पर यतिजनों की प्रीति, भक्ति एवं सेवा की जाती है, उसे 'यति जनसेवा' कहते हैं ।
(४) कुवृष्टिपरित्याग :- परावलम्बी एवं बहिर्मुख मिथ्यादृष्टि जनों का त्याग 'कुदृष्टिपरित्याग' कहा जाता है ।
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परमात्मस्वरूप को प्राप्ति के उपाय ]
:
आगे यहां सम्यक्त्व के तीन चिह्न कहते हैं (५) जिनागमशुश्रूषा :- जिनागम में कहे गये ज्ञानमय स्वरूप को अनादि मिथ्यादृष्टिपना छोड़कर प्राप्त करना चाहिये, उसमें उपकारी जिनागम है, उसके प्रति प्रोति करे । ऐसी प्रीति करे कि जैसे कोई दरिद्रो को किसी ने चिन्तामणि दिखाया, तब उसके द्वारा चिन्तामरिण को प्राप्त किया । उससमय उस दिखानेवाले से वह दरिद्री जिसप्रकार प्रीति करता है, वैसी प्रीति जिनसूत्र से करे इस चिह्न को 'जिनागमशुश्रूषा' कहते हैं ।
(६) धर्मसाधन में परमानुराग :- जिनधर्मरूप अनन्त गुणों का विचार धर्मसाधन है, उसमें परम अनुराग करे । यह 'धर्मसाधन में परमराग' सम्यक्त्व का दूसरा चिह्न है ।
(७) जिनगुरु वैयावृत्य :- जिनगुरु से ज्ञान- श्रानन्द प्राप्त होता है, अतः उनको वैयावृत्य, सेवा और स्थिरता करना जिनगुरु वैयावृत्य' है । यह सम्यक्त्व का तोसरा चिह्न है ।
ये तीनों चिह्न ग्रनुभवी के हैं । विनयों के दस भेद कहते हैं :
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[ ११६
—
( 5 ) अरहन्त, ( ९ ) सिद्ध, (१०) आचार्य (११) उपाध्याय, (१२) साधु, (१३) प्रतिमा, (१४) श्रुत, (१५) धर्म, (१६) चतुर्विधसंघ और ( १७ ) सम्यक्त्व | इनसे स्वरूप भावना होती है ।
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१२० ]
[चिदिलास इसके अनन्तर तीन शुद्धियों का कथन करते हैं :
(१८-१९-२०) मन, वचन और काय को शुद्ध करके स्वरूप की भावना भाना तथा जो स्वरूप की भावना करता हो – ऐसे पुरुष में मन, वचन और काय तीनों को लगावे तथा स्वरूप को निःशंक और निःसन्देहतया ग्रहण करे ।।
इसके बाद पांच दोषों के त्याग का कथन करते हैं :(२१) सर्वज्ञवचन को निःसन्देहतया माने । (२२) मिथ्यामत की अभिलाषा न करे।
(२३) परद्वंत की इच्छा न करे और पवित्र स्वरूप को ग्रहण करे ।
(२४) दूसरों के प्रति ग्लानि न करे और मिथ्यात्वी परग्राही द्वैत को मन से प्रशंसा न करे।।
(२५) मिथ्यात्वी के गुणों को वचनों से न कहें ।
अब सम्यक्त्व के पाठ प्रभावना-भेदों का वर्णन करते हैं :- १. अष्टप्रवचनी, २. धर्मकथा, ३. वादी, ४. निमित्तो, ५. तपसी ६. विद्यावान, ७. सिद्ध और ८. कवि ।
(२६) अष्टप्रवचनी :-सिद्धान्त के द्वारा स्वरूप को उपादेय कहे ।
(२७) धर्मकथा :- निजधर्म का कथन करे ।
(२८) वादो :-बलपूर्वक द्वैत का आग्रह छुड़ावे और मिथ्यावाद को मिटावे ।
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परमात्मस्वरूप की प्राप्ति के उपाय ]
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(२६) निमित्ती :-- स्वरूप प्राप्त करने में निमित्त जिनवाणी, गुरु, सहधर्मी तथा निज-विचार हैं । निमित्त सम्बन्धी जो धर्मज्ञ हैं, उन सब का हित करे।
(३०) तपसी :- परत की इच्छा को मिटाकर निजप्रताप प्रगट करे।
(३१) विद्यमान :- विद्या के द्वारा जिनमत का प्रभाव करे और ज्ञान के द्वारा स्वरूप का प्रभाव करे ।
(३२) सिद्ध :- वचन के द्वारा स्वरूपानन्दी का हित करे और संघ की स्थिरता करे । चूकि इससे स्वरूप की सिद्धि होती है, अतः उसे सिद्ध कहते हैं ।
(३३) कवि :-- स्वरूप के लिए रचना करके परमार्थ प्राप्त करता है और प्रभावना करता है । ____इन आठों के द्वारा जिनधर्म के स्वरूप का प्रभाव जैसे बड़े, वैसे करे - ये अनुभवी के लक्षण हैं।
अब छह भावनाओं का कथन करते हैं :- १. मूलभावना, २. द्वारभावना, ३. प्रतिष्ठाभावना, ४. निधानभावना, ५. आधारभावना और ६. भाजनभावना |
(३४) मूलभावना :- सम्यक्त्वस्वरूप अनुभव सकल धर्म तथा मोक्ष का मूल है, जिनधर्मरूपी कल्पवृक्ष का मूल सम्यक्त्व है - इसप्रकार भावना करे ।
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१२२ ]
[ चिदिलास (३५) द्वारभावना :- धर्मरूपी नगर में प्रवेश करने के लिए सम्यक्त्व हो द्वार है ।
(३६) प्रतिष्ठाभावना :- स्वरूप की तथा व्रत-तप की प्रतिष्ठा सम्यक्त्व से है।
(३७) निधानभावना :-- सम्यक्त्व अनन्त सुख देने के लिए निधान है।
(३८) प्राधारभावना :- सम्यक्त्व निज गुणों का आधार है।
(३६) भाजनभावना :- सर्व गुणों का पात्र सम्यक्त्व है। ये छहों भावनायें स्वरूप रस को प्रगट करती हैं।
इसके अनन्तर सम्यक्त्व के पांच भूषण लिखते हैं :१. कुशलता, २. तीर्थसेवा, ३. भक्ति, ४. स्थिरता और ५. प्रभावना ।
(४०) कुशलता :- परमात्मभक्ति, पर-परिणाम व पाप के परित्यागस्वरूप, भावसंवर व शुद्धभाव की पोषक क्रिया को कुशलता कहते हैं।
(४१) तीर्थसेवा :- अनुभवी वीतराग पुरुषों का समागम तीर्थ सेवा है।
(४२) शक्ति :- जैनसाधुओं और साधर्मियों की आदरपूर्वक महिमा बढ़ाना भक्ति है ।
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परमात्मस्वरूप की प्राप्ति के उपाय ]
(४३) स्थिरता :- सम्यक्त्वभाव की दृढ़ता स्थिरता है। (४४) प्रभावना :-पूजा प्रभाव करना प्रभावना है । ये सम्यक्त्व के पांच भूषण हैं ।
अब सम्यक्त्व के पांच लक्षण कहते हैं :- १. उपशम, २. संवेग, ३. निर्वेद, ४. अनुकम्पा और ५. आस्तिक्य ।
(४५) उपशम :- राग-द्वेष को मिटाकर स्वरूप को प्राप्त करना उपशम है।
(४६) संवेग :- जिनधर्म तथा निजधर्म से राग संवेग है।
(४६) निर्वेद :- वैराग्य भाव निर्वेद है ।
(४८) अनुकम्पा :- स्वदया एवं परदया का भाव अनुकम्पा है ।
(४६) मस्तिक्य :- स्वरूप और जिनवचन की प्रतीति अस्तिक्य है।
ये अनुभवी के पांच लक्षण हैं ।
इसके पश्चात् छह जैनसार लिखते हैं :- १. वन्दना, २. नमस्कार, ३. दान, ४. अनुप्रयाण, ५. आलाप एवं ६. संलाप - इन्हें नहीं करना चाहिये ।।
(५०) वन्दना :-परतीर्थों, परदेवों और परचैत्यों की वन्दना नहीं करना चाहिये ।
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१२४
[ घिविलास (५१) नमस्कार :- उनकी पूजा और नमस्कार नहीं करना चाहिये ।
(५२) दान :- उनको दान नहीं देना चाहिये ।
(५३) अनुप्रयाण :- उनकी अधिक खान-पान द्वारा खातिरदारी नहीं करना चाहिये ।
(५४) पालाप :- उनसे बातचीत नहीं करना चाहिये।
(५५) संलाप :- उनके गुण-दोषों (सुख-दुःख) की बात नहीं पूछना चाहिये और बार-बार भक्ति, एवं उनसे बातचीत नहीं करना चाहिये ।
अब सम्यक्त्व के अभङ्ग कारण लिखते हैं । समकिति इन भङ्ग (डिगने) के कारण होने पर भी डिगते नहीं, अतः इन्हें अभङ्गकारण कहते हैं । इनके छह भेद हैं :
(५६) राजा, (५७) जनसमुदाय, (५८) बलवान, (५६) देव, (६०) पिता आदि बड़े पुरुष और (६१) माता – इन प्रभङ्गकारणों के सम्बन्ध में छह भयों को जानते रहें और निजधर्म तथा जैनधर्म का त्याग न करें।
इसके अनन्तर सम्यक्त्व के छह स्थानों का वर्णन करते हैं :
१. अस्तिजीव, २. नित्य, ३. कर्ता, ४. भोक्ता, ५. अस्तिध्र व और ६. उपाय ।
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शाप्ता के विचार ]
[ १२५
(६२) अस्तिजीव :- प्रात्मा अनुभवसिद्ध है । चेतना में चित्त लीन करें । जीव अस्तिरूप है, केवलज्ञान से प्रत्यक्ष है।
(६३) नित्य :- जीव द्रव्याथिकनय से नित्य है ।
(६४) कर्ता :- मिथ्यादृष्टि जीव पुण्य-पाप का कर्ता है।
(६५) भोक्ता :- मिथ्यादृष्टि जीव पुण्य-पाप का भोक्ता भी है।
निश्चयनय से जोब न तो कर्ता है और न भोक्ता ।
(६६) अस्तिध्रव :- निर्वाण का स्वरूप अस्तिध्र व है, व्यक्त निर्वाण वह अक्षय मुक्ति है ।
(६७) उपाय :- दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्ष के उपाय है।
ये सड़सठ भेद (४+३+१०+३+५+८+६+५+५+ ६+६+६=६७) सम्यक्त्व के अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति के उपाय हैं। ज्ञाता के विचार
ज्ञाता इसप्रकार विचार करता है :
उपयोग जब ज्ञेय का अवलंबन करता है, तब ज्ञेय अवलम्बी होता है, अतः ज्ञेय का अवलम्बन लेनेवाली शक्ति
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१२६ ]
[विविलास ज्ञेय का अवलम्बन लेकर उसे छोड़ देती है। क्योंकि ज्ञेय का सम्बन्ध अस्थिर है, ज्ञ यावलम्बी परिणाम भी झूट जाते हैं अतः ज्ञेय और ज्ञ यावलम्बी परिणाम निजवस्तु नहीं हैं ।
जो ज्ञेय का अवलम्बन लेनेवाली शक्ति को धारण करती है, वह चेतनावस्तु है। वह ज्ञय के साथ मिलने से से अशुद्ध तो हो गई है, परन्तु शक्ति को अपेक्षा शुद्ध और गुप्त है । जो वस्तु शुद्ध है, वही रहती (टिकती) है, तथा जो अशुद्ध है, वह नहीं रहती (टिकनी); क्योंकि अशुद्धता ऊपरी मल है, जबकि शुद्धता स्वरूप की शक्ति है । __ जैसे स्फटिकमरिण में लाल रंग दिखता है, परन्तु वह स्फटिक का स्वभाव नहीं है; अतः मिट जाता है, जबकि स्वभाव नहीं मिटता।
जैसे मयूर-मकरन्द में (मयूर के प्रतिबिम्बवाले दर्पण में) मयूर (मोर) दिखाई पड़ता है, पर उसमें वास्तव में मयूर है नहीं; उसीप्रकार कर्मदृष्टि में आत्मा परस्वरूप होकर भासित होता है, परन्तु वास्तव में वह पररवरूप नहीं होता।
जैसे धतूरे के पोने से दृष्टि में सफेद शंख पीला दिखता है, परन्तु वह केवल दृष्टिविकार है, दृष्टिनाश नहीं । वैसे हो मोह की गहल से पर को स्व मानते हैं, परन्तु बह अपना नहीं है।
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शाता के विचार ]
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जैसे लकड़हारे ने चिन्तामरिण प्राप्त करके भो उसकी परख नही जानी, परन्तु इससे चिन्तामणि का प्रभाव नष्ट नहीं हो गया । वैसे ही प्रज्ञानवश स्वरूप की महिमा नहीं जानी, फिर भी इससे स्वरूप का प्रभाव नष्ट नहीं हुआ । ___ जैसे बादलों की घटा में सूर्य छिपा है, परन्तु वह छिपा होकर भी प्रकाश को धारण करता है, रात्रि की भांति अन्धकारयुक्त नहीं है । वैसे ही प्रात्मा कर्मरूपी घटा में छिपा है, फिर भी ज्ञान-दर्शनरूपी प्रकाश करता ही रहता है, वह नेत्रों तथा ज्ञन्द्रियों के द्वारा दर्शन प्रकाश करता है और मन द्वारा जानता है, अचेतन की भांति जड़ नहीं है ।
इसप्रकार स्वरूप परमगुप्त है, तथापि ज्ञाता उसे प्रगट (प्रत्यक्ष) देखता है । __ शंका :- जो बन्धन से मुक्त होना चाहता है, वह कैसे शुद्ध हो सकता है ?
समाधान :- जो अपनी चेतना की प्रकाशशक्ति उपयोग द्वारा प्रगट है, उसको प्रतीति में लाना चाहिये । जिस प्रकार पानी की तरंग पानी में गुडुप (अन्तर्मग्न) हो जाती हैं, उसीप्रकार यह जीव यदि दर्शन-ज्ञान परिणाम को गुडुप करे तो निज समुद्र को मिले और महिमा प्रगट करे ।
पर में परिणामों को लीन करता है, परन्तु पर वस्तु तो पर है; अतः छूट जाती है, तब खेद होता है, परिणाम
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१२८ ]
[ चिदविलास
मलिन होता है; इसलिए उसमें परिणाम गुप्त ( तन्मय ) नहीं करना चाहिये, बल्कि स्वरूप में ही लगाना चाहिये । ज्ञान के अशुद्ध रहने पर भी उसका जानपना तो नष्ट नहीं होता, इस जानपने की ओर देखने से निज ज्ञानजाति की भावना में निज रसास्वाद माता है । यह बात कुछ कहने में नहीं आती, इसके तो श्रास्वाद करने में ही स्वाद-आनन्द है; जिसने चखा, श्रास्वाद लिया; वही जानता है । लक्षण लिखने में नहीं भाते हैं ।
यह जीव इधर बाह्य को देख-देखकर, उधर ( अन्तरंग निज-परमार्थस्वरूप ) को भूला हुआ है, इसीकाररण यह जीव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है। जैसे लोटन जड़ी को देखकर बिल्ली लोटती है, अतः बाह्य का देखना छूटने पर ही चौरासी लाख योनियों का लोटना छूटता है, इसीलिए परदर्शन को मिटाकर निज अवलोकन करने पर ही यह मोक्ष पद होता है, यही अनन्तसुखरूप चिद्विलास का प्रकाश है ।
अनन्त संसार कैसे मिटे ?
कोई कहता है कि संसार तो अनन्त है, वह कैसे मिटे ? उसका उत्तर है कि बन्दर की उलझन इतनी ही है कि वह मुट्ठी नहीं छोड़ता । तोते की उलझन भी इतनी हो है कि वह नलिनी को नहीं छोड़ता । कुत्ते की उलझन भी
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अनन्त संसार कैसे मिटे ]
[ १२६
इतनी है कि वह भोंकता है | त्रिक ( तीन मोड़ेवाली ) रस्सी को साँप मानता है, सो उसे भय भी तभी तक है, जब तक वह ऐसा मानता रहता है । हरिन मरीचिका में जल मानकर दौड़ता है और इसी से वह दुःखी है । इसीप्रकार आत्मा पर को श्रापरूप मानता है, बस इतना ही संसार है और ऐसा न माने तो मुक्त ही हैं ।
जैसे एक नारी ने काठ की पुतली बनवाकर, अलंकार और वस्त्र पहनाकर अपने महल में सेज पर सुला दिया और कपड़े से ढक दिया । वहाँ जब उस नारी का पति श्राया श्रीर उसने समझा कि यह मेरी पत्नी सो रही है, इसलिए वह उसे हिलाने लगा और हवा करने लगा, फिर भी जब वह न बोली तो उसने सारी रात उसकी बहुत खिदमत (सेवा) की और सबेरा होने पर जब उसने समझा कि अरे ! यह तो काठ की है, तब वह पछताया कि मैंने व्यर्थ ही सेवा की है ।
इसीप्रकार आत्मा पर - अचेतन की सेवा वृथा कर रहा है, परन्तु ज्ञान होने पर जब वह जानता है कि यह तो जड़ है, तब उससे स्नेह त्याग देता है और स्वरूपानन्दी होकर सुख प्राप्त करता है ।
उपयोग की उठनि (उत्पत्ति) सदा होती रहती है, वह उसको सँभालता है और उपयोग को पर में नहीं जाने
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१३० ]
[चिद्विलास
देता । आत्मा का उपयोग जिस ओर जुड़े, उसरूप होता है, अतः उपयोग के द्वारा अपने द्रव्य-गुण- पर्याय का विचार तथा स्वरूप में स्थिरता, विश्राम और आचरण करना चाहिये एवं अनन्त गुणों में उपयोग लगाना चाहिये ।
मन के द्वारा उपयोग चंचल होता है, उस चंचलता को रोकने से चिदानन्द प्रगट होता है और ज्ञानरूपी नेत्र खुलते हैं । ग्रतः जब अनन्त गुणों में मन लगता है, तब उपयोग अनन्त गुणों में ठहरता है और तभी विशुद्ध होता है ।
प्रतीति के द्वारा रसास्वाद उत्पन्न होता है, उसी में मग्न होकर रहना चाहिये । परिणाम को वस्तु की अनन्त शक्ति में स्थिर करना चाहिये ।
इस जीव के परिणाम परभावो का ही अवलम्बन करके उनकी सेवा कर रहे हैं, वे परिणाम उन भावों की ही सेवा करते हुए उन परभावरूप परिणामभावों को ही निजपरिणाम स्वभावरूप देखते हैं, जानते है और उनकी सेवा करते हैं । तथा उन पर को निजस्वरूप मान करके रखते हैं ।
इसीप्रकार करते हुए अनादि से इस जीव के परिणामों को अवस्था बहुत समय तक व्यतीत हुई, तथापि काललब्धि आने पर भव्यता का परिपाक हुआ, तब श्री गुरु का उपदेशरूप कारण प्राप्त हुआ ।
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अनन्त संसार फैसे मिटे ]
[१३१
उन श्री गुरु ने ऐसा उपदेश दिया - "हे जीयो ! तुमने परिणामों के द्वारा पर की सेवा कर-करके पर-नीच को उच्च-स्वमानकर देख रहे हो। यह 'पर' नीच है, 'स्व' नहीं है और उसमें स्व-उच्चत्व नहीं है ।१ तुमको ये रंचमात्र भी कुछ नहीं दे सकते, तुम झूठ ही यह मान रहे हो कि ये हम को देते हैं । ये 'पर' नीच हैं और तुम उन नीच को स्व एवं उच्च मानकर बहुत नीच हो गये हो ।
हे भव्य ! परिणामों में ही जो कोई निजत्व एवं उच्चता है, उसे तुमने न देखा है, न जाना है और न उसकी सेवा की है, अतः उसे तुम कहाँ से याद रख सकते हो ?
और यदि अब उस स्वभाव को देखोगे, जानोगे और उसकी सेवा करोगे तो यह स्वयं ही तुमको याद भी रहेगा और तुम सुखी भी होप्रोगे, अयाचित (बिना मांगे) महिमा को प्राप्त करोगे और प्रभु बनोगे ।
ये जो छह द्रव्य हैं, उनमें चेतन राजा है, पाँच द्रव्यों में तुम मत अटको, तुम्हारी महिमा बहुत उच्च है । नोकर्मों२ की बस्ती (नगरी) बसी हुई है। वह तुम्ही से
१. यद्यपि कोई पदार्ध उच्च या नीच नहीं है, तथापि यहाँ स्वद्रव्य' का
उपादेयत्व बताने के लिए उसे 'उच्च' कहा है और परद्रव्य का हेयत्न
बताने के लिए 'नीच' कहा है । २. नोकर्म से तात्पर्य द्रष्पकर्म के फलरूप शरीरादि से है ।
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१३२ 3
[चिद्विलास बस्ती के समान दिखतो है और इन आठ कर्मों को देखो, ये पुदगलद्रव्य की जाति के हैं, तुम्हारे अपने अङ्ग नहीं हैं । जो-जो पौद्गलिक जातियों के नाम हैं, उन-उन जातियों के नाम चेतन ने अपने परिणामों से धारण कर लिए हैं; लेकिन वे निजस्वभाव नहीं हैं, बल्कि परकलित भाव हैं। अतः स्पष्ट है कि निज चेतना ने झूठा स्वांग धारण किया है । अतः उस परभाव रूप स्वांग को दूर करो, उसको दूर करते ही प्रत्यक्ष साक्षात् स्वभावसन्मुख स्थिर हो जावोगे, विश्राम प्राप्त करोगे तथा वचनातीत महिमा प्राप्त करोगे । यदि फिर भी कभी पर-नीच परिणाम धारण करोगे तो भी च कि चेतन राजा ने उन्हें अच्छीतरह पहचान लिया है, अतः तुम नीच से सम्बन्ध करके भी टगायोगे नहीं, बल्कि बढ़ते-बढ़ते परमपद प्राप्त करोगे, तीनों लोकों में तुम्हारी कोति प्रवर्तगी ।"१
गुरु के ऐसे वचन सुनकर ज्ञाता अपनी चेतन शक्ति को ग्रहण करता है और जहाँ-जहाँ देखता है, वहाँ-वहां उसे जड़ का नमूना दिखाई देता है लेकिन अपना पद ज्ञानज्योतिरूप अनुपम है । स्वरूपप्रकाश से अनादि विभाव का नाश होता है । अपने स्वरूप से जो दर्शन-ज्ञानरूपी प्रकाश उत्पन्न होता है, वह परपद को देख-जानकर अशुद्ध होता
१ यह प्रकरण प्रात्मावलोकन अन्ध में भी बहुत विस्तार से दिया गया है।
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भनन्त संसार कैसे मिटे ]
[१३३
है । वहाँ इतनी विशेषता है कि जहाँ रागादि परिणामरूप देखना-जानना है, वहां विशेष अशुद्धता है और जहाँ सामान्य पददशा की अपेक्षा (भूमिकानुसार) देखना-जानना है, वहाँ सामान्य अशुद्धता है । ___ चतुर्थ गुणस्थानवी जीव के एकदेश उपयोग की सम्हाल हुई है, अतः वहां उसे एकदेश शुद्धता जाननी चाहिये ।
पञ्चम गुणस्थान में अप्रत्याख्यान सम्बन्धी रागादि गये तो उतने अंश में अशुद्धता गई और स्थिरता बढ़ी, तब एकदेश स्थिरता होने पर एकदेश संघम नाम प्राप्त हुआ ।
छठवें गुरणस्थान में प्रत्याख्यान का प्रभाव हुअा, विशेष स्थिरता हुई । सकल प्राकुलताओं के कारण सकल पाप हैं, उनका अभाव हुआ; परन्तु वहाँ भी अशुभभाव गौरणतारूप से हो जाता है, लेकिन वह पापबन्ध और दुर्गति का कारण नहीं होता । वहाँ शुभभाव मुख्य है और शुद्धभाव गौण हैं, परन्तु फिर भी वह ऐसी मुख्यता को प्राप्त कराता है कि वह मुख्य जैसा ही कार्य करता है, वहाँ शुद्ध गौण होने पर भी बलिष्ठ (बलवान) है। ___ छठवें गुणस्थानवर्ती के भेदविज्ञान विचार के कारण का शीघ्रता से शुद्धोपयोगरूप सातवाँ गुणस्थान हो जाता है। शुभोपयोग में गभितशुद्धता है, अतः सातवें गुणस्थान का साधक छठवां गुणस्थान है। उपदेशादि क्रिया होती है, पर विशेष
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५३४ ]
[ चिविलास
स्थिरता होने से 'सकलविरति संयम' नाम प्राप्त होता है ।
इसके पश्चात् सातवें गुणस्थान से आगे वीतराग निर्विकल्प समाधि बढ़ती जाती है, निष्प्रमाद दशा होती है, अपने स्वभाव का रसास्वाद मुख्य होता है और क्रमशः गुणस्थान के अनुसार बढ़ता जाता है । मन की पाँच भूमिका
परिणाम मन के द्वारा प्रवर्तित होते हैं । मन की पांच भूमिकायें हैं :- १. क्षिप्त, २. विक्षिप्त, ३. मूढ, ४. चिन्तानिरोध और ५. एकाग्र – इन भूमिकाओं में मन घूमता रहता है । इनका वर्णन करते हैं :
(१) क्षिप्त :-- जहाँ मन विषय-कषायों में व्याप्त होकर रंजकरूप [अशुद्ध] भाव में सर्वस्वरूप से लीन रहता है, उसे क्षिप्त मन कहते है ।
(२) विक्षिप्त :- जहाँ चिन्ता की प्राकुलता से कोई विचार ही उत्पन्न नहीं होता, उसे विक्षिप्त मन कहते हैं।
(३) मूढ़ :- हित को अहित और अहित को हित माने, देव को कुदेव और कुदेव को देव माने, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म माने तथा जो पर को स्व और स्व को न जाने, उसे विवेकरहित मूढ़ मन कहते हैं।
(४-५) चिन्तानिरोध एवं एकाग्रता :- एकाग्रता को चिन्तानिरोध कहते हैं । बाह्य में स्थिरता हुई, स्वरूपरूप
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मन की पाँच भूमिका |
[ १३५
परिणमन हुआ और एकत्वध्यान हुआ, वह स्वरूपएकाग्रता है ।
पर में एकाग्रता तो होती है, परन्तु वह तो प्राकुलता रूप है, अनेक विकल्पों का मूल है, दुःख श्रौर बाधा का हेतु है, अतः उसे एकाग्रता नहीं कहते, एकाग्रता से तात्पर्य यहां स्वरूप स्थिति से है - ऐसा जानना । पर में एकाग्रता बन्ध का मूल है |
स्वरूपसाधक तो वह है, जो अपने में एकाग्र चिन्तानिरोध करे । यद्यपि मन जब पर में लगता है, तब भी ऐसा स्थिर हो जाता है कि उसे कोई अन्य चिन्ता नहीं रहती ।
सामान्यरूप से ये पाँचों भूमिकायें संसार अवस्था में स्नेह ( राग ) पूर्वक लगती हैं तो संसार का कारण बन जाती हैं ।
सद रहस्य या ग्रन्थ को, निरखो चित चैय मित्त रस्मों जिय मलिन होय, चरमस्यों हो पवित्त ॥
हे मित्र ! इस ग्रन्थ का रहस्य वित्त लगाकर समझना । क्योंकि यह जोब आवरण हो से मलिन होता है और ब्राचरण ही से पवित्र होता है - पण्डित बोषचंद शाह श्रात्मावलोकन, पृष्ठ १४७
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समाधि का स्वरूप विशेषविचारधर्म ग्राहकनय में 'चिन्तानिरोध' और 'एकाग्न' – ये दो भूमिकाएं धर्मध्यान और शुक्लध्यान की कारण है तथा समाधि को सिद्ध करती हैं। इसके प्रमाण में यह श्लोक है :
"साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चिन्तानिरोधनम् । शुद्धोपयोग इत्येते भवन्येकार्थवाचकाः ॥"१
सामान्यार्थ :- साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चिन्तानिरोध और शुद्धोपयोग - ये सब एकार्थवाचक है ।
चिन्तानिरोध और एकाग्रता से समाधि होती है राग आदि विकल्पों से रहित, स्वरूप में निर्विघ्न स्थिरता और वस्तुरस के प्रास्वाद के साथ, स्वसंवेदन-ज्ञान के द्वारा जो स्वरूप का अनुभव होता है, उसे 'समाधि' कहते हैं ।
कुछ लोग समाधि का कथन करते हुए कहते हैं :श्वास-उच्छवास वायु हैं, उसको अन्तर में भरे अर्थात्
- १. पद्यनन्दि एकस्वसप्ततिका, गाथा ६४
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',
समाधि का स्वरूप J
( १३७
पूरे, उसे 'पूरक' कहते हैं। तथा जो वायु को कुम्भ (घट) की भाँति भरता है और भरकर स्थिर करता है, उसे 'कुम्भक' कहते हैं । फिर जो धीरे-धीरे वायु का रेचन करता है, उसे 'रेचक' कहते हैं । पाँच घड़ी तक किये जानेवाले कुम्भक को 'धारणा' कहते हैं और साठ घड़ी तक किये जानेवाले कुम्भक को 'ध्यान' कहते है । उससे श्राधे समय का किया जानेवाला कुम्भक 'समाधि' कहलाता है ।
वास्तव में यह समाधि कारण है, क्योंकि इससे मन की जय होती है और मन की जय करने से राग-द्व ेष- मोह मिटते हैं और राग-द्वेष- मोह मिटने से समाधि लगती है । यदि मन स्थिर हो तो निज गुणरत्न प्राप्त किया जा सकता है, अतः समाधि कारण है ।
कोई न्यायवादी न्याय के बल पर छहों मतों के अनुसार परन्तु वहाँ समाधि नहीं,
समाधि का निर्णय करते हैं; बल्कि केवल विकल्प हेतु है ।
जैनमत में तो अरहंतदेव ने जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संबर, निर्जरा और मोक्ष- ये सात तत्त्व कहे हैं । प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो प्रमाण कहे हैं । नित्य श्रनित्यादि अनेकान्तवाद है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप मोक्षमार्ग है | संपूर्ण कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष है । नैयायिकमत में उनके जटाधारी ईश्वरदेव ने प्रमाण,
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१६८ ]
[ विलास
प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, पितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान - ये सोलह तत्त्व बतलाये हैं ! प्रत्यक्ष, उपमा, अनुमान और आगम - ये चार प्रमाण कहे हैं । नित्यादि एकान्तवाद है । दुःख, जन्मप्रवृत्ति दोष, मिथ्याज्ञान का उत्तरोत्तर नाश मोक्षमार्ग है । वे छह इन्द्रियाँ, उनके छह विषय, छह बुद्धियाँ, एक शरीर, एक सुख और एक दु.ख - इन इक्कीस प्रकार के दुःखों के अत्यन्त उच्छेद (क्षय) को मोक्ष मानते हैं ।
-
बौद्धमत में लाल वस्त्र धारण करनेवाले उनके बुद्धदेव ने दुःख, समुदाय, निरोध और मोक्षमार्ग - ये चार तत्त्व तथा प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमारण कहे हैं । क्षणिकान्तवाद अर्थात् सर्वक्षणिकवाद है । तथा सर्वनैरात्म्यवासना मोक्षमार्ग है । वासना का अर्थ है 'क्लेश का नाश' और ज्ञान (बुद्धि) के नाश का 'मोक्ष' अर्थ हैं ।
शैवमत में शिवदेव ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय - ये छह तत्त्व तथा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम - ये तीन प्रमाणवाद बताए है | ये नैयायिकों की भांति मोक्षमार्ग मानते है | बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्व ेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार 'मोक्ष' मानते हैं ।
इन नो का अत्यन्त नाश ही
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समाधि का स्वरूप ]
जैमिनीय अर्थात् भाट्टमत में देव नहीं माना गया है। प्रेरणा, लक्षण, और धर्म -- ये तीन तत्त्व माने गए हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति और अभाव - ये छह प्रमाण हैं । नित्य एकान्तवाद है। तथा वेदविहित आचरण को मोक्षमार्ग मानते हैं । नित्य अतिशय को धारण करनेवाले सुख का व्यक्त हो जाना हो 'मोक्ष' मानते है ।
सांख्य मत के बहुत भेद हैं । कोई ईश्वरदेव को और कोई कपिल को मानते हैं। पच्चीस तत्त्व हैं। राजस, तामस और सात्विक अवस्थाओं का नाम प्रकृति है । प्रकृति से महत् (महत् तत्त्व) महत् से अहङ्कार, अहंकार से पांच तन्मात्रायें और ग्यारह इन्द्रियां होती हैं।
उन पांच तन्मात्राओं में से स्पर्शतन्मात्रा से बायु, शब्दतन्मात्रा से आकाश, रूपतन्मात्रा से तेज (अग्नि), गन्धतन्मात्रा से पृथ्वी और रसतन्मात्रा से जल उत्पन्न होता है । __ स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र - ये पांच बुद्धीन्द्रियाँ तथा वाणी, हाथ, पैर, गुदा और गुप्तेन्द्रिय -- ये पांच कर्मेन्द्रियाँ तथा ग्यारहवां मन है । पुरुष अमर्त, चैतन्यस्वरूपी, कर्ता और भोक्ता है 1 मूल प्रकृति विकृतिरहित
१. प्रकृतेमहान्ततो हंकारस्तस्माद् गुणश्च वोडाकः । तस्मादपि षोडश काचम्मः पंचभूतानि ॥ (सांख्पका )
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१४. ]
[ विविलास
है, महान् आदि सात तत्त्व तथा सोलह गरण प्रकृति की विकृति रूप हैं और पुरुष न प्रकृतिरूप है और न विकृतिरूप है । पंगुवत् प्रकृति और पुरुष का योग होता है। प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द - ये तीन प्रमाण हैं । नित्य एकान्तवाद है 1 तथा पच्चीस तत्त्वों का ज्ञान मोक्षमार्ग है । ये प्रकृति
और पुरुष का विवेक (भेद) देखने से प्रकृति में स्थित पुरुष का भिन्न होना 'मोक्ष' मानते हैं।
सातवें नास्तिक मत (चार्वाक) में देव, पुण्य-पाप और मोक्ष कुछ नहीं माने गये हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, और बायु - ये चार भूत और एक प्रत्यक्ष प्रमाण माना गया है । चारों भूतों के समवाय (संयोग) से चैतन्यशक्ति उत्पन्न होती है । जैसे मादक सामग्री के समवाय से मदर्शाक्त (नशा) उत्पन्न होती है। इनके मत में अदृश्य सुख का त्याग और दश्य सुख का भोग ही पुरुषार्थ है ।
निर्णय करने पर उपरोक्त सभी मतों में समाधि सिद्ध नहीं होती। समाधि के तेरह भेद
समाधि के तेरह भेद हैं :- १. लय, २. प्रसंज्ञात, ३. वितर्कानुगत, ४. विचारानुगत, ५. प्रानन्दानुगत, ६. अस्मिदानुगत, ७. निवितर्कानुगत, ८. निविचारानुगत, ६. निरानन्दानुगत, १०, निरस्मिदानु गत, ११. विवेकख्याति,
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समाधि-वर्णन का स्वरूप ]
[ १४१
4.
१२. धर्ममेघ और १३. प्रसंप्रज्ञात । अन्तिम असंप्रज्ञात के दो भेद हैं :- १. प्रकृतिलय और २. पुरुषलय ।
-...
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(१) लय समाधि :- लय अर्थात् परिणामों की लीनता निजवस्तु में परिणाम प्रवर्तन करे । राग-द्वेष-मोह मिटाकर दर्शन-ज्ञानमय अपने स्वरूप को प्रतीति में अनुभव करे। जसे शरीर में आत्मबुद्धि थी, वैसे ही प्रात्मा में आत्मबुद्धि धारण करे । तथा जब तक बुद्धि स्वरूप में से बाहर न निकले, तब तक निज में लीन रहे, इसको समाधि कहते है।
लय के तीन भेद हैं :- १. शब्द, २. अर्थ और ३. ज्ञान । 'लय' शब्द हुमा, निज में परिणाम लीन होना -- यह उसका अर्थ हुआ, शब्द और अर्थ का जानपना - यह ज्ञान हुआ । तीनों भेद लय समाधि के हैं। शब्दागम से अर्थागम, अर्थागम से ज्ञानागम - ऐसा श्री जिनागम में कहा है।
शंका :- लय समाधि के भेदों में शब्द क्यों कहा ?
समाधान :- शुक्लध्यान के भेदों में शब्द से शब्दान्तर कहा गया है - इसी रीति से यहां जानना चाहिये । यहाँ द्रव्य-गुण-पर्याय के विचार से परिणाम वस्तु में लीन हो जाते है । ज्ञान में परिणाम आया, उसी में लीन हुआ; दर्शन में आया, उसी में लीन हुना। इसीप्रकार निज में विश्राम, आचरण, स्थिरता और ज्ञायकता द्वारा लय समाधि
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१४२ }
[ चिदपिनाम
के विकल्प भेद नष्ट होकर परिणाम निज में वर्तते हैं। जिन-जिन इन्द्रियविषयक परिणामों ने इन्द्रियोपयोग नाम धारण किया था और संकल्प-विकल्परूप जिस मन ने उपयोग नाम पाया था, उन दोनों प्रकार के उपयोगों के छूटने पर बुद्धि द्वारा ज्ञानोपयोग उत्पन्न होता है । वह जानपना बुद्धि से पृथक है । ज्ञान, ज्ञानरूप परिणति द्वारा ज्ञान का वेदन करता है, प्रानन्द प्राप्त करता है और स्वरूप में लोन होकर तादात्म्यरूप हो जाता है । जहाँ-जहाँ परिणाम विचरण करते हैं, वहाँ-वहाँ श्रद्धा करके लीन होते हैं, अतः द्रव्य-गुण में परिणामों के विचरण करते समय जब जहाँ श्रद्धा हो, वहीं लीनता हो जावे, तब 'लयसमाधि' होती है ।
(२) प्रसंज्ञात समाधि :- सम्यक्त्व को जाने और उपयोग में ऐसे भाव की भावना करे कि चेतना का प्रकाश अनन्त है, परन्तु उस में दर्शन-ज्ञान-चारित्र मुख्य है । मेरी दृशिशक्ति निर्विकल्प उत्पन्न होती है । ज्ञानशक्ति विशेषरूप से (सविकल्परूप से) जानती है । चारित्र परिणामों के द्वारा वस्तु का अवलम्बन करके वेदन होता है तथा उसमें विश्राम द्वारा आचरण की स्थिरता होती है ।
स्वयं अपने स्वभावरूप कर्म को करके कर्ता होता है । तब स्वभाव कर्म होता है। निजपरिणति के द्वारा स्वयं स्वयं को साधता है, प्रतः स्वयं ही करण होता है, स्वयं की परिणति
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प्रसंशात समाधि ]
[ १४३
स्वयं को सौंपता है। अत. स्वयं ही सम्प्रदान होता है । स्वयं में से स्वयं को स्थापित करता है, अतः स्वयं ही अपादान होता है । स्वयं के भाव का स्वयं ही प्राधार है, अतः स्वयं अधिकरण होता है। __ स्वयं के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पर भलीभांति विचार करके स्थिरता से राग आदि विकारों को नहीं आने देना चाहिये । इसप्रकार जैसे-जैसे उपयोग की जानकारी प्रवर्तित होती है, वैसे-वैसे ध्यान की स्थिरता में आनन्द बढ़ता है और समाधि का सुख प्राप्त होता है । वीतराग परमानन्द समरसीभाव स्वसंवेदन सुख को समाधि कहते हैं । द्रव्य का द्रव्यीभाव, गुण का लक्षणभाव, पर्याय का परिणमन के लक्षण द्वारा वेदना का भाव अर्थात् वस्तुरस का सर्वस्व बतलाने वाला भाव - इनको सम्यकप्रकार से जानकर जो समाधि सिद्ध की जाती है, उसे 'प्रसंज्ञात समाधि' कहते हैं।
प्रसंज्ञात समाधि के भी तीन भेद हैं - शब्द, अर्थ और ज्ञान । प्रसंज्ञातशब्द शब्द है । प्रसंज्ञात शब्द का सम्यग्ज्ञान रूप भाव अर्थ है, और शब्द और अर्थ का जानपना ज्ञान है।
जाननहारे (प्रात्मा) को जानकर, मानकर तथा महातद्रप होकर जो उत्कट समाधि धारण की जाती है, उसे 'प्रसंझात समाधि' कहते हैं ।
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१४४ 1
[चिद्विलास
(३) वितानगत समाधि :- द्रव्यश्रुत से विचार करना वितर्कश्रुत है । अर्थ में मन लगाना भावभुत है अर्थात् वीतराग निर्विकल्प स्वसवेदन समरसीभाव से उत्पन्न प्रानन्द 'भावश्रुत' है ।
वही कहते हैं – भावच त का अर्थ भाव है । वहाँ द्रव्यश्र त का तात्पर्य यह है कि द्रव्यश्र त में जहां उपादेय वस्तु का वर्णन है, वहीं अनुपम प्रानंदधन चिदानन्द के अनन्त चैतन्यचिन्ह का अनुभव रसास्वाद बताया है । मन और इन्द्रियों के द्वारा चेतना विकार अनादि से प्रवृत्ति कर रहा था, उस शुभाशुभ विकार से छूटकर श्रुतविचार द्वारा ज्ञानादि उपयोगों की प्रवृत्ति से अपना स्वरूप पहिचाना ।
जैसे किसी दीपक के ऊपर चार परदे थे । उनमें से तीन परदे तो दूर हुये । प्रकाश के कारण पहिचाना कि दीपक है, अवश्य है, क्योंकि प्रकाश का अनुभव हो रहा है । लेकिन जब चौथा परदा दूर होगा, तब ही यह जीव कृतकृत्य परमात्मा होकर निर्वृत्त होगा अर्थात् सिद्धपद को प्राप्त करेगा। उसके पूर्व भी अनुभव के प्रकाश की जाति तो बही है, अन्य नहीं है।
इसीप्रकार जब कषाय की तीन चौकड़ी नष्ट हुई, तब निजवेदन से चेतनाप्रकाश स्वजाति ज्योति का अनुभव हुआ 1 उससमय चेतनाप्रकाश का अनुभव ऐसा होता है कि
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वितर्कानुगत समाधि ]
[ १४५
मानो इस भावश्रु त आनन्द में प्रतीतिरूप से संपूर्ण परमात्मभाव का आनन्द प्राप्त हुआ हो ।
शंका :- ज्ञान का विशेष लक्षण अवयवों को जानना है और सामान्य-विशेषरूप पदार्थ का निर्विकल्प सत्तामात्र अवलोकनरूप दर्शन है। अतः जब ज्ञान, दर्शन को जानता है; तब ज्ञान में सामान्य अवलोकन कैसे हो सकता है ? तथा दर्शन, ज्ञान को भी देखता है और ज्ञान, दर्शन को भी जानता है, परन्तु दर्शन तो सामान्य है । वह विशेषरूप ज्ञान को कैसे देख सकता है । इसीप्रकार सामान्य को जानने से तो सामान्य का ज्ञान हुमा, वहाँ विशेष का जानना कैसे हुधा ? __समाधान :- चित्प्रकाश में इसप्रकार सिद्ध होता है - दर्शन के सब प्रदेशों को ज्ञान जानता है । दर्शन का स्व-पर देखना सवं ज्ञान जानता है, दर्शन के लक्षण, संजा आदि भेद और द्रव्य-क्षेत्र आदि सब भेद ज्ञान जानता है, अतः ज्ञान, दर्शन के विशेषों को जानता है।
तथा ज्ञान को दर्शन कैसे देखता है - इस प्रश्न का समाधान यह है कि 'जानना' -- यह ज्ञान का सामान्य लक्षण है तथा स्व-पर को जानना - यह ज्ञान का विशेष लक्षण है, इन दोनों लक्षण मय ज्ञान है । अतः संज्ञा आदि भेदों के धारक ज्ञान को दर्शन निर्विकल्परूप देखता है। इसप्रकार
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[चिद्विलास
दर्शन सामान्य अवलोकन लक्षरणवाला ही है । एक चेतन सत्ता से दोनों का प्रकाश हुआ है, दोनों की सत्ता एक है । ऐसा तर्क ( ज्ञान ) समाधान करनेवाले से भावश्रृत में होता है । इस भावश्रुत का नाम 'वितर्क' है । इसके श्रनुगत अर्थात् साथ-साथ जो सुख होता है, वह समाधि है । वह समाधि भावश्र ुत के विलास से चित्प्रकाश को जानने से, वेदन करने से, अवलोकन करने से और अनुभव करने से छद्मस्थ को होती है ।
ज्ञाता को अपने आनन्दरूप समाधि उत्पन्न होती है, उसके तीन भेद हैं :- प्रथम तो वितर्क शब्द, दूसरा उसका अर्थ अर्थात् वितर्क का अर्थं श्रुत और तीसरा अर्थ का ज्ञान ।
शब्द से अर्थ, अर्थ से ज्ञान और ज्ञान से होनेवाले आनन्दरूप समाधि है । इसतरह 'वितर्क समाधि' का स्वरूप जानना चाहिये ।
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(४) विचारानुगत समाधि :- 'विचार' का अर्थ है श्रुत का पृथक्-पृथक् अर्थ विचार करना 1 श्रुत के अर्थ द्वारा स्वरूप के विचार में वस्तु की स्थिरता, विश्राम, श्राचरण, ज्ञायकता, श्रानन्द, वेदना, अनुभव और निर्विकल्प समाधि होती है, वही कहते है, । मर्थ कहने से तात्पर्य ध्येयरूप वस्तु से है । वह् द्रव्य या गुण या पर्याय है । द्रव्य का विचार - गुण- पर्यायरूप अथवा सत्तारूप प्रथवा चेतनापुञ्ज
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विचारानुगत समाधि ]
[ १४७ रूप इत्यादि अनेक प्रकार से हो सकता है।
इसप्रकार द्रव्य का विचार करके उसकी प्रतीति में लीन होने से समाधि होती है।
वह जीव प्रात्मा का अनुभव करता है, केवल विचार ही नहीं करता । ज्ञानगुण के प्रकाश को विचार कहते हैं । वह जब प्राप्त होता है, तब ही ध्यान होता है । पर्याय को स्वरूप में लीन करे, द्रव्य से गण में मन लगावे, गुण से पर्याय में लगावे अथवा और प्रकार से ध्येय का ध्यान करना अर्थान्तर कहलाता है । अथवा सामान्य-विशेष या भेद-अभेद से वस्तु में ध्यान धारण करके सिद्धि करना, प्रर्थ से अर्थान्तर कहलाता है।
शब्द का मर्थ वचन है, वह दो प्रकार का है :-१. द्रव्यवचन और २. भाववचन; लेकिन यहां भाववचन से तात्पर्य है।
भावश्रुत का अर्थ है - वस्तु के गुण में लीनता। भाववक्षन में गुणविचार के द्वारा विचार हो जाने पर और अधिक गुणविचार न करके स्थिरता द्वारा प्रानन्द होता है । शब्द के माध्यम से अन्तरंग में वस्तु को प्राप्त करने के लिए जो विचार होते हैं, उन्हें शब्दान्तर कहते हैं ।
में द्रव्य हूँ, ज्ञान हूँ', दर्शन हूँ, वीर्य हूँ - ऐसा उपयोग में जान करके 'अह अथात् स्वय अपने पद में द्रव्य-गुरण के
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१४८ 1
[ घिविलास
द्वारा 'अहं' शब्द की कल्पना करके प्रतीत्यस्वपद के स्थान पर स्वरूपाचरण द्वारा आनन्दकन्द में सुख उत्पन्न होता है -- ऐसी समाधि वचनयोग के भाव से गुणस्मरण कहलाती है ।
विचार तक ही वचन था, वह विचार छूट गया और मन लीनता में ही रह गया। इसप्रकार वचनयोग से छुटकर मनोयोग से आने पर योग से योगान्तर कहलाता है।
विचारानुगतसमाधि के तोन भेद हैं :- विचारशब्द, विचार का ध्येयवस्तुरूप अर्थ तथा ध्येय वस्तु को विचार से जाननेवाला ज्ञान । अथवा जो उपयोग विचार में आये, उस उपयोग में परिणामों की स्थिरता ही ध्यान है । उससे उत्पन्न हुआ आनन्द और उसमें लीनता बीतराग निर्विकल्पसमाधि है । इसी का नाम 'विचारानुगस समाधि' है ।
(५) मानन्दानुगत समाधि : ज्ञान के द्वारा निजस्वरूप को जानना और जानते समय आनन्द होना ज्ञानानन्द है । दर्शन के द्वारा निजपद को देखते समय आनन्द होना दर्शनानन्द है । निजस्वरूप में परिणमते हुए होनेवाला मानन्द चारित्रानन्द है ।
आनन्द का वेदन करनेवाले की सहज अपने आप ही अपने अपने दर्शन-ज्ञान में परिणति रहती है, तभी आनन्द जानना चाहिये । जब ज्ञान का ज्ञान होता है, दर्शन का दर्शन होता है और घेदन करनेवाले का वेदन होता है; तब
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मस्मिदातुगत समाधि ]
[ १४६ चेतना प्रकाश का आनन्द होता है । स्वयं का स्वयं द्वारा वेदन करने से अनुभव में जो सहज चिदानन्द स्वरूप का आनन्द होता है, उस प्रानन्द के सुख में समाधि का स्वरूप है।
वस्तु का वेदन कर-करके ध्यान में आनन्द होता है । उस आनन्द की धारणा धारण करके जब स्थिर रहा जाता है, तब 'आनन्दानुगत समाधि' कही जाती है ।
जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध है | बंधन के कारण उनकी दशा एकत्वसो हो रही है। वह परस्पर अव्यापक होने पर भी ब्यापक के समान हो रही है। जब यह जोव भेदज्ञानबुद्धि से जीव और पुद्गल को पृथक्-पृथक् करके जानता है । नोकर्म तथा द्रव्यकर्म की वर्गणायें जड़ एवं मत्तिक हैं और मेरा जाननरूप ज्ञान उपयोगलक्षण के द्वारा पृथक्-पृथक् प्रतीति में जाने जाते हैं - ऐसा निर्मल ज्ञान होने पर जहाँ स्वरूप में मग्नता होती है तो स्वरूपमग्नता के होते ही आनन्द होता है।
प्रानन्दानुगत समाधि के भी तीन भेद जानना चाहिये :आनन्द शब्द, प्रानन्द शब्द का मानन्द अर्थ तथा प्रानन्दशब्द और आनन्द अर्थ को जाननेवाला ज्ञान । जहाँ आनन्दानुगत समाधि है, वहाँ सुख का समूह है।
(६) प्रस्मिवानुगतसमाषि:-परपद को अपना मानकर
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१५० ]
[ चिदविलास अनादि से जन्म आदि दुःख सहे, परन्तु एक अस्मिदानुगत समाधि नहीं प्राप्त हुई । उस (दुःख) को दूर करने के लिए श्री गुरुदेव इस समाधि का कथन करते हैं । 'अहं ब्रह्माऽस्मि' -- मैं ब्रह्म हूँ अर्थात् मैं शुद्ध चैतन्यमय परम ज्योति है, जीव का प्रकाश-दर्शन-ज्ञान है, उससे जीव सदा प्रकाशित होता है।
लोक में शुद्ध परमात्मा के शुद्ध दर्शन-ज्ञान और अन्तरात्मा के एकदेश शुद्ध दर्शन-ज्ञान हैं । दर्शन-ज्ञान का प्रकाश ज्ञेय को देखता-जानता है । शक्ति शुद्ध है -- इसकारण ऐसे भाव करता है। यह दर्शन-ज्ञान प्रात्मा के बिना नहीं होते, ये मेरे स्वभाव हैं - इसप्रकार ज्ञान-दर्शन को प्रतीति में मानना चाहिये । 'अहं अस्मि' अथति 'मैं हैं' के रूप में दर्शन-ज्ञान में स्वयं की स्थापना करना चाहिये और ध्यान में 'अहं अस्मि, अहं अस्मि' - ऐसा मानना चाहिये ।
जैसे शरीर में अहंबुद्धि धारण करके उसे अात्मा मानता है, बसे दर्शन-ज्ञान में अहं मानकर उसमें अहंबुद्धि धारण करना चाहिये । दर्शन-ज्ञान एवं ध्यान में अहंपना माने, तब अनादि दुःख का मूल देहाभिमान छूटता है । स्वरूप में अपनापन जानने पर और 'ज्ञानस्वरूप उपयोग मैं हूँ' - ऐसी अहंब्रह्म बुद्धि पाती है। तब ब्रह्म में अहंबुद्धि पाने पर ऐसा सुख प्राप्त होता है कि मानो दुःख लोक को छोड़कर अविनाशी प्रानन्दलोक प्राप्त हुमा हो ।
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निर्वितर्कानुगत समाधि ]
[ १५१
___'अहं ब्रह्म, अहंब्रह्म, अहं ब्रह्मोऽस्मि' - ऐसी बार-बार बुद्धि द्वारा प्रतीति करना चाहिए, तब कुछ समय तक ध्यान में ऐसा प्रतीतिभाव दृढ़ रहता है । इसके पश्चात् क्रमशः अपना छट जाता है और केवल 'अस्मि' रह जाता है अर्थात् 'चैतन्य हूँ” – यह भाव रह जाता है।
इसप्रकार जब 'मैं चैतन्य हूँ' तथा 'हूं' 'हूं' - ऐसा भाव रह जाय ; तब परमानन्द बढ़ता है, वचनातीत महिमा का लाभ होता है, स्वपद की प्रतीतिरूप स्थिति रहती है, इसी को 'अस्मिदानुगत समाधि' कहते हैं । इससे अपूर्व प्रानन्द की वृद्धि होती है । मस्मिदानुगतसमाधि में भी तीन भेद जानने चाहिये :-- स्वरूप में 'अहं अस्मि' - यह शब्द, 'अहं अस्मि' का भाव -- यह अर्थ तथा उसका जानपना - यह ज्ञान । इस प्रकार तीन भेद है।
(७) निवितर्कानुगत समाधि :- अभेद निश्चल स्वरूपभाव द्रव्य या गुण में - जहाँ वितर्कणा नहीं है, निश्चलता में निर्विकल्प निर्भद भावना है तथा एकाग्र स्वस्थिर स्वपद में लीनता है - वहाँ 'निवितर्क समाधि' कही जाती हैं।
निवितर्क - ऐसा शब्द, निर्वितर्क अर्थात् तर्क रहित स्वाद में लीनता - ऐसा अर्थ एवं इनका जानपना - ऐसा ज्ञान – ये तीन भेद इसमें भी जानना चाहिए।
(८) निश्चिारानुगत समाधि :- अभेद स्वाद में एकत्व अवस्था जानो; उसमें विचार नहीं होता, स्वरूप भावना
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१५२ ]
[ चिविलास की निश्चल वृत्ति होती है । वह द्रव्य में हो तो भी निश्चल, गुरणभावना हो तो निश्चल तथा पर्यायवृत्ति की भी निश्चलता होने से राग आदि विकार तो मूल से नष्ट हो जाते हैं । सहजानन्द समाधि प्रकट होती है, निज विश्राम प्राप्त होता है, परिणाम विशुद्ध से भी विशुद्धतर होते चले जाते हैं, स्थिरता प्राप्त होती है, निर्विकल्प दशा होती है ।
अर्थ से अर्थान्तर, शब्द से शब्दान्तर और योग से योगान्तर का विचार (पलटना) नष्ट हो जाता है । भेदविचार या विकल्पनय छूट जाते हैं। परमात्मदशा के नजदीक आ जाता है - इसे 'निर्विचार समाधि' कहते हैं ।
निर्विचार --- ऐसा शब्द, विचाररहित - ऐसा अर्थ और उनका जानपना -- ऐसा ज्ञान; इसप्रकार ये तीनों भेद यहाँ भी जानना चाहिये ।।
(६) निरानन्दानुगत् समाधि :- सम्पूर्ण सांसारिक प्रानन्द छूट जाता है । इन्द्रियजनित विषय-वल्लभ दशा दूर हो जाती है । विकल्प विचार से होनेवाला प्रानन्द मिथ्या जाना । परमिश्रित प्रानन्द जो प्राता था; सो समाप्त हो गया। सहजानन्द प्रकट हुमा । परम-पदवी को नजदोक भूमिका पर आरूढ़ हुआ। ___ जहां विभाव मिटा, वहाँ ऐसा जाना कि मुक्ति के द्वार का प्रवेश समीप है, मुक्तिरूपी वधू से निर्विघ्न सम्बन्ध समीप है तथा अतोन्द्रिय भोग होनेवाला है । यही 'निरानन्दानुगत
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निरस्मिदानुगत समाधि ]
[ १५३ समाधि है । 'निरानन्द' - ऐसा शब्द, पर के आनन्द रहित - ऐसा अर्थ और उनको जाननेरूप ज्ञान, ये तीन भेद इसमें भी समझना चाहिये ।
(१०) निरस्मिदानुगत समाधि :- पहिले अहं 'ब्रह्म अस्मि' - ऐसा 'अस्मिभाव' था, परन्तु अब वह भाव भी दूर हुमा । विकार अत्यधिक रूप से मिटा । 'अस्मि' में अहंपने की मान्यता थी, वह भी मिटी। निजपद ही का विलास या खेल है, पर के कारण नहीं हुमा । परम साधक की परम साध्य से भेंट हुई और ऐसी हुई कि मन गल गया, स्वरूप में स्वसंवेदन द्वारा स्वयं प्रात्मा ने आत्मा को जाना
और परमात्मा को दशा समीप से समीपतर हुई । यह परम विवेक प्राप्त करने का सोपान है ।
मानरूप विकार गया, विमल चारित्र का खेल या विलास हुना। मन की मलता मिटी, स्वरूप में तदाकार होकर एकमेकरूप हुआ, जिससे ऐसा प्रानन्द प्राप्त हुआ कि वह केवलीगम्य ही है। जिस समाधि में सुख की कल्लोल उठती है, दुःखरूप उपाधि मिट चुकी है, आनन्दरूपी गृह को जा पहुंचा है, वहाँ अब तो केवल राज्य ही करना रहा है, समीप ही राज्य का कलशाभिषेक होगा, केवलज्ञानरूपी राजमुकुट किनारे रखा है, समय नजदीक है, सिर पर जल्दी ही केवलज्ञानरूपी मुकुट धारण किया
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१५४ [
[विविलास जायगा । यह 'निरस्मिदानुगत समाधि' है । शब्द, अर्थ और ज्ञान - ऐसे तीनों भेद इस में भी जानना चाहिये ।
(११) विवेकख्याति समाधि :- विवेक का अर्थ है प्रकृति और पुरुष का विवेचन अर्थात् उनका पृथक्-पृथक भेद जानना, अन्य भेद मिट गए हैं। चैतन्यपुरुष के शुद्ध परिणतिरूप ज्ञान में दोनों का विवेक अर्थात् प्रतीति हुई है। चैतन्यपरिणतिरूप वस्तु, वस्तु के अनन्त गुणों का वेदन करनेवाली है, उत्पाद-व्यय करनेवाली है, षड्गुणी बुद्धिहानि उसका लक्षण है और वह वस्तु का बेदन करके आनन्द उत्पन्न करती है।
जैसे समुद्र में तरंग उत्पन्न होती है, वह तरंग समुद्रभाव को जनाती है। वैसे ही यह चैतन्यपरिणति स्वरूप का ज्ञान कराती है । सकल सर्वस्व परिणति का अर्थ है प्रकृति । तथा पुरुष का अर्थ है परमात्मा, उससे प्रकृति उसी प्रकार उत्पन्न होती है - जैसे समुद्र से तरंग उत्पन्न होती है । पुरुष अनन्त गुणधाम चिदानन्द परमेश्वर है । उन दोनों का ज्ञान में जानपना हुआ, परन्तु प्रत्यक्ष नहीं हुआ, क्यों कि वेद्य-वेदक में प्रत्यक्ष होता है, केवलज्ञान में सम्पूर्ण प्रत्यक्ष नहीं होता है । लेकिन अभी तो साधक है, थोड़े ही समय में परमात्मा होगा । इसी को 'विवेकख्याति समाधि' कहते है । इसके भी शब्द, अर्थ और ज्ञानरूप तीन भेद जानना चाहिए।
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धर्ममेघ' समाधि ]
[ १२५ (१२) धर्ममेष समाधि :- धर्म का अर्थ है - अनन्त गुण अथवा निजधर्मरूप उपयोग, जिसकी विशुद्धता मेघ की भांति बढ़ती है । जैसे मेध वर्षा करते हैं, वैसे ही उपयोग में प्रानन्द बढ़ता है, विशद्धता बढ़ती है । चारित्ररूप उपयोग में अनन्त गुणों की शुद्ध प्रतीति का वेदन हुआ और यदि केवलज्ञान की अपेक्षा से कहा जावे, तब तो अनन्त गुण व्यक्त हुये । ज्ञानोपयोग में चारित्र तो शुद्ध होता है, पर तब केवलज्ञान नहीं भी हो सकता है, क्योंकि बारहवें गुणस्थान में यथाख्यातचारित्र है, तेरहवे-चौदहवें गुणस्थान में परम यथास्यातचारित्र है, अत: चारित्र की अपेक्षा धर्ममेघ समाधि बारहवें गुणस्थान में हुई । केवलज्ञान में परमात्मदशा व्यक्त है, अत: वहाँ साधक-समाधि नहीं कही जा सकती । बारहवें गणस्थान में अतरात्मा साधक है, उसको 'धर्ममेघ समाधि' है ।
शब्द अर्थ और ज्ञान - ये तीन भेद इसमें भी समझना चाहिए।
(१३) असंप्रज्ञात समाधि :- 'असंप्रज्ञात' का अर्थ है -- पर का बेदन नहीं होना, निज ही का वेदन करना और जानना । जिसके पर का विस्मरण है और निज का अवलोकन है -- ऐसे बारहवें गुणस्थानवर्ती के अन्तिम समय तक तो चारित्र के द्वारा पर की वेदना मिटो थी, क्योंकि मोह का प्रभाव हुआ था । तेरहवें गणस्थान में ज्ञान केवल अद्वैत हुअा, वहाँ ज्ञान में निश्चय से पर का जानपना नहीं,
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________________ 156 ) [ चिबिलास व्यवहार से लोकालोक प्रतिबिम्बित होते हैं; अतः ऐसा कहा जाता है / अतः यह समाधि चारित्र की विवक्षा से बारहवें गुणस्थान के अन्त में है और केवलज्ञान में व्यक्त है; अतः वहाँ साधक अवस्था नहीं, परन्तु प्रगट परमात्मा है यही 'असंप्रज्ञात समाधि' का स्वरूप जानना / शब्द, अर्थ और ज्ञान आदि तीन भेद साधक अवस्था में यहां भी समझना चाहिए / उक्त तेरह भेद समाधि के हैं, जो परमात्मा को प्राप्त करने के साधक हैं / अतः इस ग्रन्थ में परमात्मा का वर्णन किया और तत्पश्चात् उसे प्राप्त करने का उपाय बताया। जो परमात्मा का अनुभव करना चाहें, वे इस ग्रन्थ पर पारम्बार विचार करें। अन्तिम प्रशस्ति यह ग्रंथ दीपचन्द्र साधर्मी ने रचा है, उनका जन्मस्थान सांगानेर था। जब वे आमेर आये, तब उन्होंने यह ग्रंथ रचा था / उन्होंने विक्रम संवत् सत्रह सौ उन्यासी (1776), मिती फाल्गुन बदी पञ्चमी को यह ग्रन्थ पूर्ण किया। संत पुरुष इसका अभ्यास करें। (दोहा) वेव परम मंगल करौ, परम महा सुखदाय / सेवत शिवपद पाइये, हे त्रिभुवन के राय // [ सम्पूर्ण ]