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द्रव्य ]
[ १६. "मिथ्यासमहो मिथ्या चेत् न मिथ्यंकरन्तताऽस्ति नः ।
निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥१ सामान्यार्थ :- मिथ्यारूप एकान्तो का समूह मिथ्या है, वह मिथ्या-एकान्तसा हमारे (स्याद्वादियों के) यहां नहीं हैं; क्योंकि निरपेक्षनय मिथ्या हैं, वे सम्यक नहीं हैं; किन्तु जो सापेक्षनय हैं, वे ही सम्यक हैं और बस्तु की सिद्धि के के लिए अर्थक्रियाकारी हैं।"
अतः द्रव्य का यह कथन सिद्ध हुना। इसके पश्चात् गुरगाधिकार में गुरण का कथन किया जावेगा।
१. थीसमन्तभद्राचार्य, : देवागमस्तोत्र, कारिका १०८ २. यद्यपि यह सामान्यार्थ मलग्रन्थ में नही है, तथापि वारिका का सामान्य
शान कराने हेतु दिया गया है ।
प्रश्न :-स्वरूप अनुभव का विलास किसप्रकार कर?
उत्तर :- निरन्तर अपने स्वरूप की भावना में मग्न रहे, उपयोगद्वार में दर्शन-ज्ञान चेतनाप्रकाश को दृढ़ता से भाये । चिपरिणति से स्वरूपरस होता है । द्रव्य-गुण-पर्याय का यथार्थ अनुभव करना ही अनुभव है। अनुभव से पञ्च परमगुरू हुए व होंगे- यह अनुभव का ही प्रसाद है। अरिहन्त और सिद्ध भी अनुभव का प्राचरण करते हैं । अनुभव में अनन्त गुणों का सम्पूर्ण रस पा जाता है ।
__~.. पति दीपचन्दजी शाह अनुभवप्रकाश, पृष्ठ ३