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[चिद्विलास (६) वस्तु अपने स्थान में अपने स्वरूप को धारण करती है - यही दर्शन का स्थानस्वरूप है ।
(७) दर्शन का फल प्रानन्द है तथा वस्तुभाव के द्वारा इस दर्शन का जो शुद्ध प्रकाश है, वही फल है ।
इस प्रकार अनेक विवक्षायें हैं और वे सभी विवक्षा से प्रमाण हैं । इसप्रकार दर्शन का संक्षेपमात्र कथन किया गया है ।
चारित्रगुरण चारित्र प्राचरण का नाम है । जो प्राचरण करे या जिसके द्वारा आवरण किया जावे, उसे चारित्र कहते हैं । चारित्ररूप परिणाम द्वारा वस्तु का आचरण किया जाता है, अतः वही आचरण चारित्र है अथवा चरणमात्र (पाचरणमात्र) का नाम ही चारित्र है। यह निर्विकल्प है, वह निजाचरण हो है । पर का त्याग भी चारित्र का भेद है ।
द्रव्य में स्थिरता, विथाम और आचरण 'द्रव्याचरण' कहलाता है । गुण में स्थिरता, विश्राम और प्राचरण 'गुणाचरण' कहलाता हैं - इस की विशेषता यह है कि सत्तागण में परिणाम की स्थिरता ही सत्ता का चारित्र (सत्ताचरण) है।
शंका :- स्थिर का अर्थ अविनाशी है तथा परिणामों