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पारित्रगुण ]
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की प्रवृत्ति जो स्वरूप में प्राती है, वह चारित्र है, लेकिन परिणाम समयस्थायी (अस्थिर) है, अतः उससे चारित्र कैसे सिद्ध होगा?
समाधान : - ज्ञान-दर्शनस्वरूप में जो स्थिररूप से स्थिति होती है, वही 'चारित्र' है । चारित्र परिणाम की प्रवृत्ति स्वरूप में होते ही ज्ञान और दर्शन की स्थिति भी स्वरूप में होती है, तब उसे स्वरूप का लाभ होता है, फिर वही परिणाम वस्तु में लीन हो जाता है, वही उत्तर परिणाम का कारण है । परिणाम वस्तु के द्रव्य और गुण का आस्वाद लेकर वस्तु में ही लीन हो जाता है पोर तब उससे ही वस्तु का सर्वस्व प्रकट होता है। व्यापकता के कारण वस्तु के सर्वस्व की मूलस्थिति का निवास वस्तु है, बह भो परिणाम की लीनता में जाना जाता है।
अतः ज्ञान और दर्शन की शुद्धता परिणामों की शुद्धता से है । जैसे अभव्य के दर्शन और ज्ञान निश्चयष्टि से सिद्ध के समान हैं, परन्तु उसके परिणाम कभी सुलटते नहीं हैं, अतः उसके दर्शन और ज्ञान सदा अशुद्ध रहे पाते हैं। भव्य के परिणाम शुद्ध हो सकते हैं, अतः उसके दर्शन और ज्ञान भी शुद्ध हो सकते हैं - इस न्याय से परिणामों को निजवृत्ति (स्वसन्मुखता) होने पर जो स्वभावगुणरूप वस्तु में उपयोग की स्थिरता होती है, उसी का नाम चारित्र है।
परिणाम द्रव्य को द्रवित करता है, क्योंकि परिणाम