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वर्शनगुण ]
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इस कथन में दोनों सिद्ध हुए। विकल्परहित स्वरूपमात्र के ग्रहण में तो दर्शन 'निराकार' सिद्ध हुआ और समस्त पदार्थों के ग्रहण में 'सर्वदर्शी सिद्ध हुमा; अतः यह कथन प्रमाण है।
इस कथन में यह विवक्षा लेनी कि जो अपना स्वरूपमात्र है, वही स्व है, वही सामान्य हुआ, अत: उसी को ग्रहण करना तथा जो गुरण-पर्याय आदि भेद हैं, उनके दर्शन की अपेक्षा पर कहना, क्योंकि निविकल्प स्वरूप के अतिरिक्त जो भी दूसरा भेद होगा, वही पर है, वही विशेष हुमा । यह सामान्य विशेष सर्व पदार्थों में है। तदात्मक अर्थात् सामान्यविशेषात्मक वस्तु के निर्विकल्प स्वरूपमात्र .. का जो अवभासन है, उसी को दर्शन कहते हैं । दर्शन के सात भेद
दर्शन के भी सात भेद हैं, उनका कथन करते हैं : -
(१) दर्शन का नाम दर्शन इसलिए है, क्योंकि वह देखता है।
(२) दर्शन का लक्षण देखना मात्र है । (३) दर्शन का क्षेत्र असंख्यात प्रदेश है । (४) दर्शन की स्थिति को दर्शन का काल कहते हैं।
(५) वस्तु एक तथा शक्ति और पर्यायें अनेक हैं - यही दर्शन को संख्या है ।