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वितर्कानुगत समाधि ]
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मानो इस भावश्रु त आनन्द में प्रतीतिरूप से संपूर्ण परमात्मभाव का आनन्द प्राप्त हुआ हो ।
शंका :- ज्ञान का विशेष लक्षण अवयवों को जानना है और सामान्य-विशेषरूप पदार्थ का निर्विकल्प सत्तामात्र अवलोकनरूप दर्शन है। अतः जब ज्ञान, दर्शन को जानता है; तब ज्ञान में सामान्य अवलोकन कैसे हो सकता है ? तथा दर्शन, ज्ञान को भी देखता है और ज्ञान, दर्शन को भी जानता है, परन्तु दर्शन तो सामान्य है । वह विशेषरूप ज्ञान को कैसे देख सकता है । इसीप्रकार सामान्य को जानने से तो सामान्य का ज्ञान हुमा, वहाँ विशेष का जानना कैसे हुधा ? __समाधान :- चित्प्रकाश में इसप्रकार सिद्ध होता है - दर्शन के सब प्रदेशों को ज्ञान जानता है । दर्शन का स्व-पर देखना सवं ज्ञान जानता है, दर्शन के लक्षण, संजा आदि भेद और द्रव्य-क्षेत्र आदि सब भेद ज्ञान जानता है, अतः ज्ञान, दर्शन के विशेषों को जानता है।
तथा ज्ञान को दर्शन कैसे देखता है - इस प्रश्न का समाधान यह है कि 'जानना' -- यह ज्ञान का सामान्य लक्षण है तथा स्व-पर को जानना - यह ज्ञान का विशेष लक्षण है, इन दोनों लक्षण मय ज्ञान है । अतः संज्ञा आदि भेदों के धारक ज्ञान को दर्शन निर्विकल्परूप देखता है। इसप्रकार