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[ चिद्विलास
ये द्रव्यपरिणामाधीनं तस्य द्रव्यस्य परिणाम प्राश्रयं भावं, तं निश्चयम् । एतादृशा निश्चयं व्यवहारेण वचनद्वारेण भणितं वर्णितम् ।"
जिन निज अनन्त गणों का जो परस्पर एक ही समहपुञ्ज है, उसे निश्चय का स्वरूप जानना चाहिये । एक निजद्रव्य के अनन्त गुण-पर्याय हो का जो केवल निजजातिस्वरूप है, उसे भो निश्चय का रूप जानना चाहिये । एक निजद्रव्य के अनन्त गुणों को ही एक कहना । गुणों की अनन्त शक्ति-पर्यायों का एक ही स्वरूप के द्वारा जो भाव प्रगट होता है, उसे भी निश्चय जानना चाहिये । और जिस द्रव्य के परिणामों के परिणमन के आधीन द्रव्य के भाव का उस हो द्रव्य के परिणामरूप परिणमना अन्य परिणाम रूप न परिणमना, उसे भी निश्चय जानना चाहिये । इस प्रकार ऐसे-ऐसे भावों को वचनों के द्वारा व्यवहार से निश्चयसंज्ञा कही है ।
भावार्थ :- (१) हे संत ! वह जो निज-निज अनन्त गुणों के मिलने से एक पिण्डभाव है, एक सम्बन्ध है, उसे ही गुणों का पुञ्ज कहते है, उसी गूणपुञ्ज को 'वस्तु' ऐसा नाम कहा है । यह जो वस्तुत्व है. वह गुणों के पुडज के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? अर्थात् इस गुणपुज को हो वस्तु कहते हैं। अत: इस वस्तु को निश्चयसंज्ञा जाननी चाहिये।