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निश्चय नय ]
(२) जिस-जिस स्वरूप को धारण उत्पन्न हुए हैं, वे सब अपने-अपने रूप को .. गुण का अन्य गुरग से जुदा रूप अपने में अनाद... रहता है। ऐसे पृथकरूप को ही 'निजजाति' कहत हैं । जो स्वयमेव अनादिनिधन है, वह रूप किसी अन्यरूप से नहीं मिलता और जो रूप है, वही गुण है और जो गुण है, वही स्वरूप है – ऐसा तादात्म्यलक्षण सम्बन्ध है । यदि कोई उस रूप को नास्ति (निषेध) का चिन्तवन करे तो गुण की ही नास्ति का चिन्तवन करेगा। अतः जो आप ही प्रापरूप है, उस रूप को निजजाति स्वभावरूप कहते हैं, इसप्रकार निजरूप की निश्चयसंज्ञा कही है।
(३) पुनः अनन्त-गुणों का एक पुरजभाव देखना चाहिये और पृथक्-पृथक नहीं देखना चाहिये । पुनः अनन्त शक्तिवान जो एक गुण है, उस एक गुण को ही देखना चाहिये, उन पृथक-पृथक् शक्तियों को नहीं देखना चाहिये, जघन्य-उत्कृष्ट भेदों को भी नहीं देखना चाहिये । उस एक शक्ति को हो देखना चाहिये - ऐसा जो अभेददर्शन या एक ही रूप का दर्शन है, उस अभेददर्शन को भी निश्चयसंज्ञा है।
(४) हे सन्त ! गुणों के पुञ्ज में कोई गुण तो नहीं है - यह तो निःसन्देह इसोप्रकार है, परन्तु उस भाव के