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अनन्त संसार फैसे मिटे ]
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उन श्री गुरु ने ऐसा उपदेश दिया - "हे जीयो ! तुमने परिणामों के द्वारा पर की सेवा कर-करके पर-नीच को उच्च-स्वमानकर देख रहे हो। यह 'पर' नीच है, 'स्व' नहीं है और उसमें स्व-उच्चत्व नहीं है ।१ तुमको ये रंचमात्र भी कुछ नहीं दे सकते, तुम झूठ ही यह मान रहे हो कि ये हम को देते हैं । ये 'पर' नीच हैं और तुम उन नीच को स्व एवं उच्च मानकर बहुत नीच हो गये हो ।
हे भव्य ! परिणामों में ही जो कोई निजत्व एवं उच्चता है, उसे तुमने न देखा है, न जाना है और न उसकी सेवा की है, अतः उसे तुम कहाँ से याद रख सकते हो ?
और यदि अब उस स्वभाव को देखोगे, जानोगे और उसकी सेवा करोगे तो यह स्वयं ही तुमको याद भी रहेगा और तुम सुखी भी होप्रोगे, अयाचित (बिना मांगे) महिमा को प्राप्त करोगे और प्रभु बनोगे ।
ये जो छह द्रव्य हैं, उनमें चेतन राजा है, पाँच द्रव्यों में तुम मत अटको, तुम्हारी महिमा बहुत उच्च है । नोकर्मों२ की बस्ती (नगरी) बसी हुई है। वह तुम्ही से
१. यद्यपि कोई पदार्ध उच्च या नीच नहीं है, तथापि यहाँ स्वद्रव्य' का
उपादेयत्व बताने के लिए उसे 'उच्च' कहा है और परद्रव्य का हेयत्न
बताने के लिए 'नीच' कहा है । २. नोकर्म से तात्पर्य द्रष्पकर्म के फलरूप शरीरादि से है ।