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[चिद्विलास
देता । आत्मा का उपयोग जिस ओर जुड़े, उसरूप होता है, अतः उपयोग के द्वारा अपने द्रव्य-गुण- पर्याय का विचार तथा स्वरूप में स्थिरता, विश्राम और आचरण करना चाहिये एवं अनन्त गुणों में उपयोग लगाना चाहिये ।
मन के द्वारा उपयोग चंचल होता है, उस चंचलता को रोकने से चिदानन्द प्रगट होता है और ज्ञानरूपी नेत्र खुलते हैं । ग्रतः जब अनन्त गुणों में मन लगता है, तब उपयोग अनन्त गुणों में ठहरता है और तभी विशुद्ध होता है ।
प्रतीति के द्वारा रसास्वाद उत्पन्न होता है, उसी में मग्न होकर रहना चाहिये । परिणाम को वस्तु की अनन्त शक्ति में स्थिर करना चाहिये ।
इस जीव के परिणाम परभावो का ही अवलम्बन करके उनकी सेवा कर रहे हैं, वे परिणाम उन भावों की ही सेवा करते हुए उन परभावरूप परिणामभावों को ही निजपरिणाम स्वभावरूप देखते हैं, जानते है और उनकी सेवा करते हैं । तथा उन पर को निजस्वरूप मान करके रखते हैं ।
इसीप्रकार करते हुए अनादि से इस जीव के परिणामों को अवस्था बहुत समय तक व्यतीत हुई, तथापि काललब्धि आने पर भव्यता का परिपाक हुआ, तब श्री गुरु का उपदेशरूप कारण प्राप्त हुआ ।