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अनन्त संसार कैसे मिटे ]
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इतनी है कि वह भोंकता है | त्रिक ( तीन मोड़ेवाली ) रस्सी को साँप मानता है, सो उसे भय भी तभी तक है, जब तक वह ऐसा मानता रहता है । हरिन मरीचिका में जल मानकर दौड़ता है और इसी से वह दुःखी है । इसीप्रकार आत्मा पर को श्रापरूप मानता है, बस इतना ही संसार है और ऐसा न माने तो मुक्त ही हैं ।
जैसे एक नारी ने काठ की पुतली बनवाकर, अलंकार और वस्त्र पहनाकर अपने महल में सेज पर सुला दिया और कपड़े से ढक दिया । वहाँ जब उस नारी का पति श्राया श्रीर उसने समझा कि यह मेरी पत्नी सो रही है, इसलिए वह उसे हिलाने लगा और हवा करने लगा, फिर भी जब वह न बोली तो उसने सारी रात उसकी बहुत खिदमत (सेवा) की और सबेरा होने पर जब उसने समझा कि अरे ! यह तो काठ की है, तब वह पछताया कि मैंने व्यर्थ ही सेवा की है ।
इसीप्रकार आत्मा पर - अचेतन की सेवा वृथा कर रहा है, परन्तु ज्ञान होने पर जब वह जानता है कि यह तो जड़ है, तब उससे स्नेह त्याग देता है और स्वरूपानन्दी होकर सुख प्राप्त करता है ।
उपयोग की उठनि (उत्पत्ति) सदा होती रहती है, वह उसको सँभालता है और उपयोग को पर में नहीं जाने