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मन की पाँच भूमिका |
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परिणमन हुआ और एकत्वध्यान हुआ, वह स्वरूपएकाग्रता है ।
पर में एकाग्रता तो होती है, परन्तु वह तो प्राकुलता रूप है, अनेक विकल्पों का मूल है, दुःख श्रौर बाधा का हेतु है, अतः उसे एकाग्रता नहीं कहते, एकाग्रता से तात्पर्य यहां स्वरूप स्थिति से है - ऐसा जानना । पर में एकाग्रता बन्ध का मूल है |
स्वरूपसाधक तो वह है, जो अपने में एकाग्र चिन्तानिरोध करे । यद्यपि मन जब पर में लगता है, तब भी ऐसा स्थिर हो जाता है कि उसे कोई अन्य चिन्ता नहीं रहती ।
सामान्यरूप से ये पाँचों भूमिकायें संसार अवस्था में स्नेह ( राग ) पूर्वक लगती हैं तो संसार का कारण बन जाती हैं ।
सद रहस्य या ग्रन्थ को, निरखो चित चैय मित्त रस्मों जिय मलिन होय, चरमस्यों हो पवित्त ॥
हे मित्र ! इस ग्रन्थ का रहस्य वित्त लगाकर समझना । क्योंकि यह जोब आवरण हो से मलिन होता है और ब्राचरण ही से पवित्र होता है - पण्डित बोषचंद शाह श्रात्मावलोकन, पृष्ठ १४७