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[ चिदविलास
इसप्रकार अर्थ का विचार करने पर अन्वय-व्यतिरेक में सब आ जाते हैं । अनन्त गरा और द्रव्य 'अन्वय' में प्रा जाते हैं और पर्यायें 'व्यतिरेक' में आ जाती हैं । इसप्रकार अन्वय और व्यतिरेक में जब द्रव्य, गुण और पर्याय प्रा जाते हैं, तो उसमें सब आ जाते हैं।
अतः स्याद्वाद की सिद्धि सामान्य-विशेष के बिना नहीं हो सकती है।
यदि वस्तु को अभेदस्वरूप हो माना जावे तो भेद के बिना गुण की सिद्धि नहीं हो सकेगी और गुण के बिना गुणी की सिद्धि कौन कर सकता है अर्थात् कोई नहीं कर सकता; अतएव भेद और अभेद दोनों को मानने से ही वस्तु की सिद्धि होती है।
वस्तु की 'प्रवक्तव्यता' में उसका कुछ भी कथन किया नहीं जा सकता, वह वचन से अगोचर है। वह ज्ञानगम्य होकर प्रकट होती है। ऐसी सामान्य विशेषरूप वस्तु में अनन्त नय सिद्ध होते हैं ।
नयविवरण यहाँ अनन्तनयों का संक्षेप में वर्णन करते है :--
ज्ञानसामान्य के ग्राहक नय से ज्ञान को सामान्यरूप कहा जाता है और ज्ञानविशेष के ग्राहक नय से ज्ञान को