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[ चिविलास
व्यवहारनय'
पर्यायार्थिकनय के अनेक भेदों तथा गुण के भेदों से व्यवहारनय का वर्णन करते हैं :
सामान्यसंग्रहभेदक व्यवहारनय से द्रव्य के जीव और जीव भेद किये जाते हैं । विशेषसंग्रहभेदक व्यवहारनय से जीव (द्रव्य) के संसारी श्रौर मुक्त ऐसे भेद होते हैं । शुद्धसंद्भूत व्यवहारनय से शुद्धगुण और शुद्धगुरणी का भेद किया जाता है और अशुद्धसद्भूत व्यवहारनय से मति श्रादि गुणों को जीव का कहा जाता है। इसप्रकार व्यवहार के अनेक भेद हैं 1
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व्यवहार के द्वारा परररितिरूप जो राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि सब अवलम्बन है; वे सभी
१. आत्मावलोकन में भी इसका वर्णन किया गया है, उसमें निम्न गाथा से इसका प्रारंभ किया गया है.
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जाय भावना सब्वे, सब्वे भेय कररणा च जोग खिराहि । सहाव वोकवणा व्यवहारं जिलभरि ॥१०॥
तं
नाम पाते हैं ।
जितने भी पर्याय के भाव होते हैं. वे सर्व व्यवहार नाम पाते हैं । जितने भी एक के अनेक भेद किये जाते है, वे सर्व व्यवहार बंध और मोक्ष भी व्यवहार नाम पाता है। संक्षेप में जितने भी स्वभाव से अन्य भाव हैं, वे सर्व व्यवहार नाम पाते हैं - ऐसा व्यवहार का कथन जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।