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व्यवहारनय ] हेय अर्थात त्यागने योग्य हैं । संसारी जीवों को एक चैतन्य आत्मस्वरूप में अवलम्बन करना चाहिये । स्वरूप सर्वथा उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य है । तथा वैराग्यतारूप संवर एकदेश उपादेय है । इसप्रकार जो उपदेश व्यवहार हैं; उसे हेय-उपादेयरूप जानना चाहिये ।
पर्यायभेद करने को व्यवहार कहते हैं । स्व (अपने) में स्वभाव-स्वभावो भेद कहना शुद्धब्यबहार है और स्वभाव से अन्यथा कहना प्रशद्धव्यवहार है । व्यवहारनय के सूचक कुछ उदाहरण
आकाश में समस्त द्रव्य रहते हैं । जीव और पुद्गल की गति में धर्मास्तिकाय का सहकार होता है और स्थिति में अधर्मास्तिकाय का सहकार होता है। सभी द्रव्यों के परिणामों के परिणमन में काल की वर्तना का सहकार होता है । पुद्गलादि की गति के द्वारा कालद्रव्य का परिमाण उत्पन्न होता है ।
ज्ञान में ज्ञय और ज्ञ य में ज्ञान होता है । ज्ञान-दर्शन की एक-एक शक्ति एक-एक स्व-पर ज्ञयभेद को जानती है । इसीप्रकार सम्पूर्ण भावों और द्रव्यों का परस्पर मिलाप होता है।
इसीप्रकार पर्याय के भाव और विकार उत्पन्न हुए, स्वभाव का नाश हुमा । पुनः स्वभाव उत्पन्न होकर विकार