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[ चिविलास
का विचार प्रदेशों को अपेक्षा किया जाय तो ज्ञान के असंख्यात प्रदेश हैं।
(६) स्थानस्वरूप :- ज्ञानमात्र वस्तु का स्थानक ज्ञानमात्र वस्तु में है, अतः ज्ञानमात्र वस्तु ज्ञानस्वरूप अपने स्थानक में है - यही ज्ञान का स्थानस्वरूप कहा जाता है । ज्ञान जब दर्शन को जानता है, तब दर्शन के जानने का ख्यानस्वरूप दर्शन का ज्ञान है- यह भेदकल्पना उत्पन्न होती है, इसे ज्ञाता मात्र जानता है।
(७) फल :- ज्ञान का फल ज्ञान ही है, क्योंकि एक वस्तु का फल अन्य वस्तुरूप नहीं हो सकता; वस्तु अपने लक्षण को नहीं त्यागती और एक गण में दूसरा गुण प्रवेश नहीं करता । अतः निर्विकल्प निजलक्षण ज्ञान ही ज्ञान का फल है । चूंकि ज्ञान अपने को स्वयं संप्रदान करता है, अतः उसका फल स्वभावप्रकाश है।
दूसरी अपेक्षा से ज्ञान का फल सुख कहा जाता है। बारहवें गणस्थान में मोह चला जाता है, परन्तु अनन्तसुख नाम तो अनन्त ज्ञान (केवलज्ञान) होने पर तेरहवें गुणस्थान में ही प्राप्त होता है। अतः ज्ञान के साथ जो आनंद है, वही ज्ञान का फल है । 'नास्ति ज्ञानसमं सुखम्'- ऐसा भी कहा गया है।
उपरोक्त ये सात भेद 'दर्शन' में भी लगा सकते हैं, 'वीर्य' में भी घटित किए जा सकते हैं और इसीप्रकार