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ज्ञान के सात भेद ]
[ ३५ रूप परिणमन करता है, तब व्यतिरेकशक्तिरूप ज्ञान होता है । अन्वय और व्यतिरेक परस्पर अन्योन्यरूप होते हैं, अतः परमलक्षण वेदकता में है और वेदकता परिणाम से है । तथा द्रव्यत्वगण के प्रभाव से परिणाम द्रव्य-गुणाकार होता है और द्रव्य गुण-पर्यायाकार होता है।
इसप्रकार ज्ञान के बहुत भेद सिद्ध होते हैं । ज्ञान का लक्षण 'जानपना' है - यह निश्चित हुया । इसका विस्तार और भी अनेक प्रकार से किया गया है ।
(३) क्षेत्र :- भेदविवक्षा से ज्ञान के असंख्यात प्रदेश कहे गए हैं और अभेदविवक्षा से ज्ञानरूप वस्तु का सत्त्वक्षेत्र जाननेमात्र है ।
(४) काल :- ज्ञान की जितनी मर्यादा है, उतना ही ज्ञान का काल है।
(५) संख्या :- ज्ञानमात्र वस्तु सामान्य है, अतः एक है। पर्याय की अपेक्षा अनन्त है । शक्ति की अपेक्षा भी अनन्त है । भेदकल्पना में ज्ञान जब दर्शन को जानता है, तब वह दर्शन का ज्ञान - ऐसा नाम पाता है और जब वह सत्ता को जानता है, तब वह सत्ता का ज्ञान - ऐसा नाम पाता है। इसप्रकार कल्पना करने पर ज्ञान के भेदों की संख्या है । निर्विकल्प अवस्था में ज्ञान एक है । यदि संख्या
१. मन्वय व्यतिरेकरूप होता है और व्यतिरेक अन्ययरूप होता है ।