________________
१५० ]
[ चिदविलास अनादि से जन्म आदि दुःख सहे, परन्तु एक अस्मिदानुगत समाधि नहीं प्राप्त हुई । उस (दुःख) को दूर करने के लिए श्री गुरुदेव इस समाधि का कथन करते हैं । 'अहं ब्रह्माऽस्मि' -- मैं ब्रह्म हूँ अर्थात् मैं शुद्ध चैतन्यमय परम ज्योति है, जीव का प्रकाश-दर्शन-ज्ञान है, उससे जीव सदा प्रकाशित होता है।
लोक में शुद्ध परमात्मा के शुद्ध दर्शन-ज्ञान और अन्तरात्मा के एकदेश शुद्ध दर्शन-ज्ञान हैं । दर्शन-ज्ञान का प्रकाश ज्ञेय को देखता-जानता है । शक्ति शुद्ध है -- इसकारण ऐसे भाव करता है। यह दर्शन-ज्ञान प्रात्मा के बिना नहीं होते, ये मेरे स्वभाव हैं - इसप्रकार ज्ञान-दर्शन को प्रतीति में मानना चाहिये । 'अहं अस्मि' अथति 'मैं हैं' के रूप में दर्शन-ज्ञान में स्वयं की स्थापना करना चाहिये और ध्यान में 'अहं अस्मि, अहं अस्मि' - ऐसा मानना चाहिये ।
जैसे शरीर में अहंबुद्धि धारण करके उसे अात्मा मानता है, बसे दर्शन-ज्ञान में अहं मानकर उसमें अहंबुद्धि धारण करना चाहिये । दर्शन-ज्ञान एवं ध्यान में अहंपना माने, तब अनादि दुःख का मूल देहाभिमान छूटता है । स्वरूप में अपनापन जानने पर और 'ज्ञानस्वरूप उपयोग मैं हूँ' - ऐसी अहंब्रह्म बुद्धि पाती है। तब ब्रह्म में अहंबुद्धि पाने पर ऐसा सुख प्राप्त होता है कि मानो दुःख लोक को छोड़कर अविनाशी प्रानन्दलोक प्राप्त हुमा हो ।