________________
११८ ]
[ चिद्विलस वाला मेरा स्वरूप अनन्त गुणों से मण्डित है, वह अनादिकाल से परसंयोग के साथ मिला है । यद्यपि मेरे स्वरूप में ज्ञयाकार ज्ञानोपयोग होता है, वह परज्ञ यरूप नहीं होता, अविकाररूप अखण्डित ज्ञानशक्तिरूप रहता है । वह ज्ञेय का अवलम्बन किये हुये है, परन्त परज्ञेय का निश्चय से स्पर्श भी नहीं करता, उसे देखकर भी नहीं देखता है, पराचरण करता हुमा भी उसका अकर्ता है।
इसप्रकार जीव उपयोग का प्रतीतिभाव या श्रद्धान करता है । अजीव आदि पदार्थ को हेय जानकर श्रद्धान करता है । बारम्बार भेदज्ञान के द्वारा स्वरूपचिन्तन से जो स्वरूप की श्रद्धा होती है, उसी का नाम 'परमार्थसंस्तव' कहा गया है ।
(२) मुनितपरमार्थ :- जिनागम द्रव्यसूत्र से अर्थ जानने पर ज्ञानज्योति का अनुभव हुअा, उसे 'मुनितपरमार्थ कहा जाता है ।
(३) यतिजनसेवा :- वीतरागरूप स्वसंबेदन से शुद्धस्वरूप का रसास्वाद होने पर यतिजनों की प्रीति, भक्ति एवं सेवा की जाती है, उसे 'यति जनसेवा' कहते हैं ।
(४) कुवृष्टिपरित्याग :- परावलम्बी एवं बहिर्मुख मिथ्यादृष्टि जनों का त्याग 'कुदृष्टिपरित्याग' कहा जाता है ।