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[ चिदविलास
दर्शन, चारित्र आदि प्रत्येक के कुछ जघन्य - उत्कृष्ट परिणति के द्वारा भेद करना । एक ही वस्तु के निश्चय और व्यवहार की परिणति से भेद करना । ये सभी भेदभावों से व्यवहार परिणति भेद करना ।
इसीप्रकार प्रत्येक के भी भेद किये जा सकते है और ये सभी भेदभाव व्यवहारनाम पाते हैं ।
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गुण बँधा, गुणमोक्ष हुप्रा, द्रव्य बँधा, द्रव्यमोक्ष हुआ इसप्रकार सम्पूर्ण भावों को भी व्यवहार कहा जाता है । चिरकालीन विभावों के वश स्वभाव को छोड़ कर द्रव्य, गुण और पर्याय सभी को अन्यभावरूप कहना । जैसे ज्ञानो को प्रज्ञानो, सम्यक्त्वो को मिथ्यात्वी स्वसमयो को परसमयी और सुखी को दुःखी कहना । इसीप्रकार अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख और वीर्य को भी अन्य भावरूप कहा जा सकता है। ज्ञान को प्रज्ञान, सम्यक्त्व को मिध्यात्व, स्थिर को चपल, सुख को दुःख, उपादेय को हेय, अमूत्तिकको मूर्तिक, परमशुद्ध को अशुद्ध, एकप्रदेशी पुद्गल को बहुप्रदेशी, पुद्गल को कर्मत्व, एक चेतनरूप जीव को मार्गणा और गणस्थान आदि जितनी भी परिणतियाँ हैं, उन सबके द्वारा निरूपित करना व्यवहार है ।
तथा एक ही जीव को पुण्य, पाप, आस्रव, संवर,
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