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[ चिदिलास (३५) द्वारभावना :- धर्मरूपी नगर में प्रवेश करने के लिए सम्यक्त्व हो द्वार है ।
(३६) प्रतिष्ठाभावना :- स्वरूप की तथा व्रत-तप की प्रतिष्ठा सम्यक्त्व से है।
(३७) निधानभावना :-- सम्यक्त्व अनन्त सुख देने के लिए निधान है।
(३८) प्राधारभावना :- सम्यक्त्व निज गुणों का आधार है।
(३६) भाजनभावना :- सर्व गुणों का पात्र सम्यक्त्व है। ये छहों भावनायें स्वरूप रस को प्रगट करती हैं।
इसके अनन्तर सम्यक्त्व के पांच भूषण लिखते हैं :१. कुशलता, २. तीर्थसेवा, ३. भक्ति, ४. स्थिरता और ५. प्रभावना ।
(४०) कुशलता :- परमात्मभक्ति, पर-परिणाम व पाप के परित्यागस्वरूप, भावसंवर व शुद्धभाव की पोषक क्रिया को कुशलता कहते हैं।
(४१) तीर्थसेवा :- अनुभवी वीतराग पुरुषों का समागम तीर्थ सेवा है।
(४२) शक्ति :- जैनसाधुओं और साधर्मियों की आदरपूर्वक महिमा बढ़ाना भक्ति है ।