________________ 156 ) [ चिबिलास व्यवहार से लोकालोक प्रतिबिम्बित होते हैं; अतः ऐसा कहा जाता है / अतः यह समाधि चारित्र की विवक्षा से बारहवें गुणस्थान के अन्त में है और केवलज्ञान में व्यक्त है; अतः वहाँ साधक अवस्था नहीं, परन्तु प्रगट परमात्मा है यही 'असंप्रज्ञात समाधि' का स्वरूप जानना / शब्द, अर्थ और ज्ञान आदि तीन भेद साधक अवस्था में यहां भी समझना चाहिए / उक्त तेरह भेद समाधि के हैं, जो परमात्मा को प्राप्त करने के साधक हैं / अतः इस ग्रन्थ में परमात्मा का वर्णन किया और तत्पश्चात् उसे प्राप्त करने का उपाय बताया। जो परमात्मा का अनुभव करना चाहें, वे इस ग्रन्थ पर पारम्बार विचार करें। अन्तिम प्रशस्ति यह ग्रंथ दीपचन्द्र साधर्मी ने रचा है, उनका जन्मस्थान सांगानेर था। जब वे आमेर आये, तब उन्होंने यह ग्रंथ रचा था / उन्होंने विक्रम संवत् सत्रह सौ उन्यासी (1776), मिती फाल्गुन बदी पञ्चमी को यह ग्रन्थ पूर्ण किया। संत पुरुष इसका अभ्यास करें। (दोहा) वेव परम मंगल करौ, परम महा सुखदाय / सेवत शिवपद पाइये, हे त्रिभुवन के राय // [ सम्पूर्ण ]