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धर्ममेघ' समाधि ]
[ १२५ (१२) धर्ममेष समाधि :- धर्म का अर्थ है - अनन्त गुण अथवा निजधर्मरूप उपयोग, जिसकी विशुद्धता मेघ की भांति बढ़ती है । जैसे मेध वर्षा करते हैं, वैसे ही उपयोग में प्रानन्द बढ़ता है, विशद्धता बढ़ती है । चारित्ररूप उपयोग में अनन्त गुणों की शुद्ध प्रतीति का वेदन हुआ और यदि केवलज्ञान की अपेक्षा से कहा जावे, तब तो अनन्त गुण व्यक्त हुये । ज्ञानोपयोग में चारित्र तो शुद्ध होता है, पर तब केवलज्ञान नहीं भी हो सकता है, क्योंकि बारहवें गुणस्थान में यथाख्यातचारित्र है, तेरहवे-चौदहवें गुणस्थान में परम यथास्यातचारित्र है, अत: चारित्र की अपेक्षा धर्ममेघ समाधि बारहवें गुणस्थान में हुई । केवलज्ञान में परमात्मदशा व्यक्त है, अत: वहाँ साधक-समाधि नहीं कही जा सकती । बारहवें गणस्थान में अतरात्मा साधक है, उसको 'धर्ममेघ समाधि' है ।
शब्द अर्थ और ज्ञान - ये तीन भेद इसमें भी समझना चाहिए।
(१३) असंप्रज्ञात समाधि :- 'असंप्रज्ञात' का अर्थ है -- पर का बेदन नहीं होना, निज ही का वेदन करना और जानना । जिसके पर का विस्मरण है और निज का अवलोकन है -- ऐसे बारहवें गुणस्थानवर्ती के अन्तिम समय तक तो चारित्र के द्वारा पर की वेदना मिटो थी, क्योंकि मोह का प्रभाव हुआ था । तेरहवें गणस्थान में ज्ञान केवल अद्वैत हुअा, वहाँ ज्ञान में निश्चय से पर का जानपना नहीं,