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[ चिद्विभास रस है । जो यह मानते हैं कि वह एकरूप ही है, अन्यरूप नहीं तो अनर्थ उत्पन्न होगा।
जैसे एक ज्ञानगुण है, उस ज्ञान में अन्य गुण नहीं - ऐसा जिस पुरुष ने माना, उसने ज्ञान को चेतन रहित एवं अस्तित्व, वस्तुत्व, जीवत्व और अमूर्तत्व प्रादि सब गुणों से रहित माना, यह तो माना ही; परन्तु ऐसी हालत में वह ज्ञानगुण भी कैसे रहेगा, क्यों कर रहेगा ? अर्थात् वह ज्ञानरूप भी नहीं रह सकता । इससे यहां यह बात सिद्ध हुई कि जो एक-एक गुण का रूप है, वह सर्वस्वरस है। इसप्रकार सर्वस्वरस को भी निश्चय कहा जाता है।
(११) कोई द्रव्य किसी द्रव्य से नहीं मिलता, कोई गुरण किसी गुरग से नहीं मिलता, कोई पर्यायशक्ति किसी पर्यायशक्ति से नहीं मिलती - ऐसे जो अमिलभाव है, उसे भी निश्चय कहा जाता है ।
निश्चय का सामान्य अर्थ संक्षेप में इतना ही जानना चाहिए कि निज वस्तु का जो भाव व्याप्य-व्यापक एकमेक सम्बन्धरूप होता है, वही निश्चय है।
(१२) कर्ता भेद, कर्मभेद और क्रियाभेद - इन तीन भेदों में एक ही स्वभाव देखने में आता है। ये तीनों भेद एक हो भाव से उत्पन्न हुए हैं, अतः ऐसा एक भाव भी निश्चय कहा जाता है ।