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[घिविलास ज्ञान का सत् है; क्योंकि जो असंख्यात प्रदेश वस्तु के होते हैं, वे ही ज्ञान के होते हैं, इसलिए अभेद सत्ता की अपेक्षा प्रभेद गुण-पर्याय की सिद्धि होती है । भेद की अपेक्षा ज्ञान द्रव्य, लक्षण गुण और परिणति पर्याय - ऐसे भेद सिद्ध होते हैं । उपचार से समस्त ज्ञेय के द्रव्य-गण-पर्याय ज्ञान में आये हैं।
उपचार के अनेक भेद हैं - १. स्वजाति उपचार,
१. पण्डित श्री गोपालदासजी बरैया कृत 'जैन-सिद्धान्त दर्पण' में उपचार के सम्बन्ध में निम्न प्रकार निरूपण किया गया है :
"एक प्रसिक धर्म का दूसरे मैं उपचार करना प्रस भूतन्यवहारनय का विषय है । उसके तीन भेद हैं :
१. स्वजाति उपचार, २. विजाति उपचार, ३. स्वजाति-विजाति उपचार ।
इसमें स्वजाति द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर भारोप करना स्वजाति उपचार है। जैसे चन्द्र के प्रतिबिम्ब को 'चन्द्र' कहना - यहां स्वजाति गर्याय का स्वजाति पर्याय में उपचार है 1
विजाति द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर प्रारोप करना विजाति उपचार है । जैसे ज्ञान को 'मूर्त' कहना – यहाँ विजाति गुण का बिजाति गुण में उपचार है।
स्वजाति-विजाति प्रथ्य-गुरण-पर्याय में परस्पर प्रारोप करना स्वजातिविजाति उपचार है। जैसे जीव-प्रजीवरूप ज़यों को ज्ञान के विषय होने से ज्ञान कहना - यहाँ स्वजाति-विजाति द्रव्य में, स्वजाति-विजाति गृएग का आरोप है।"
इनमें प्रत्येक के नौ-नौ भेद है :
१. द्रव्य में द्रव्य का आरोप, २. द्रव्य में गुमा का आरोप, ३. द्रव्य में पर्याय का प्रारोप, ४. गुराण में द्रव्य का प्रारोप, ५. गुण में गुण का प्रारोप, ६. गुण में पर्याय का पागोष, ७ पर्याय में द्रव्य का प्रारोप, ६. पर्याय में गुण का मारोप और ६ पर्याय में पर्याय का मारोप ।