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कारण-कार्य सम्बन्ध ]
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का व्रत लिया हो कि में दही का भोजन ही करूंगा, वह दूध का भोजन नहीं करता और जिसने प्रगोरस का व्रत लिया हो कि 'मैं गोरस नहीं लूंगा', वह गोरस (दूध, दही प्रादि) का भोजन नहीं करता है । इसप्रकार तत्त्व तीनों को धारण किये हैं ।
दूध गोरस की पर्याय है और दही भी उसी की पर्याय है । एक पर्यायमात्र के ग्रहण करने से ही गोरस की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें सभी गोरस का ग्रहण नहीं हो सकता । वैसे ही केवल 'उत्पाद' से अथवा केवल 'व्यय' से अथवा केवल 'ध्रौव्य' से वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती, उसकी सिद्धि तो तीनों से ही होती है ।
जैसे कोई पाँच वर्णों वाला चित्र है, उसके एक ही वर के ग्रहण (जान) से समूचे चित्र का ग्रहण नहीं हो सकता । वैसे ही वस्तु तीनों (उत्पाद, व्यय और धौव्य ) भयो है, उनमें से किसी एक के ही ग्रहण से वस्तु का ग्रहण नहीं हो सकता ।
यदि वस्तु को केवल ध्रुव ही माना जावे तो दो दोष आते हैं । एक दोष यह है कि घ्रौव्य का ही नाश हो जावेगा । तथा उत्पाद और व्यय के बिना वह अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकेगा और अर्थक्रिया के बिना वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकेगी तथा षड्गुणी वृद्धि हानि नहीं हो