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ग्रन्थ के सम्बन्ध में
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इस सम्बन्ध में ग्रन्थकार स्वयं कहते हैं
:
सो या चरचा स्वरूप को रुचि प्रगट तब पावै अरु करें। निज
घर का निधान निज पारखी ही परखे।'
इस ग्रन्थ में परमात्मा का वर्णन किया, पीछे परमात्मा पायये का उपाय दखाया । जो परमात्मा को अनुभव कियो चाहें हैं ते या ग्रन्थ कौं बार-बार विचारों । *
ग्रन्थ में ग्रन्थकार की शैली मौलिक है, वे विषयवस्तु का प्रतिपादन इस ढंग से करते हैं, मानों वे बातें उनके हृदय के जिनमें अंतस्तल से भा रही हों । कितने ही प्रकरण ऐसे भी हैं, पूर्ण मौलिकता है, जिनका निरूपण अन्यत्र देखने में नहीं भाता । ज्ञानियों का व्यक्तित्व हो निराला होता है । ग्रन्थकार आगमप्रमाण को तो मानते ही हैं; साथ ही कतिपय स्थानों पर स्वानुभव से प्रभाग करके भी लिखते हैं। वे मात्र शास्त्रों को पढ़पढ़कर ही नहीं लिखते, बल्कि कई विषयों को स्वानुभव द्वारा प्रमाण करके भी लिखते हैं । जैसे :
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"एक ज्ञान नृत्य में अनंत गुण का घाट (तमाशा) जानिवे मै आया है, तातें ज्ञानमें है । अनंत गुण के घाट में गुण एक-एक अनंत रूप होय अपने ही लक्षणकों लिए हैं, यह कला है, एक-एक कला गुणरूप होवेतें अनंतरूप घरे हैं। एक एकरूप जिहिं रूप भया तिनकी अनंत सत्ता है, एक-एक सत्ता अनंत भावको घर है। एकएक भाव अनंतरस है, एक-एक रस में अनंत प्रभाव है ।"
यद्यपि ग्रन्थकार के विषयचयन में समयसार, प्रवचनसार श्रादि श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित ग्रन्थों का स्पष्ट प्रभाव
1. इसी पुस्तक के पृष्ठ २४ पर इसका मनुवादित अ ंश देखें । 2. इस पुस्तक के पृष्ठ १५६ पर इसका अनुवादित अशा देखें ।